Sunday, December 22, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.3




    अविभाज्य सनातन नित्य अचल, अव्यक्त है यह सर्वत्र स्थित ।
    अचिन्त्य अविकारी, इसे जानकर, शोक तुम्हारे लिए अनुचित ॥

    यदि नित्य इसको जन्मता, और नित्य मरता मानते  ।
    इसके लिए किसी शोक का, तब भी नहीं कारण तुम्हें ॥

    जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित, मृत का है निश्चित जन्म ।
    अपरिहार्य इस सम्बन्ध में,  शोकातुर क्यों होते तुम॥

    होते सभी अव्यक्त आदि में, मध्य में रूप करें धारण ।
    अव्यक्त निधन हो जाने पर, नहीं शोक का है कोई कारण ॥

    कोई देखे आश्चर्य से इसको, कोई आश्चर्य से इसे कहे ।
    कोई आश्चर्य से सुनता है, कोई सुनने पर भी नहीं समझे ॥

    सभी शरीरों में यह देही, नित्य अवध्य अवस्थित है ।
    इसलिए सभी जीवों हेतु, यह शोक सर्वथा अनुचित है ॥

    अपने धर्म का भी यदि सोचो, युद्ध से हटना उचित नहीं ।
    धर्मयुद्ध से श्रेष्ठ जगत में, क्षत्रिय के लिए कुछ भी नहीं ॥

    धर्मयुद्ध यदि नहीं करोगे, अपकीर्ति होना तय है ।
    सज्जन को मृत्यु से ज्यादा, अपयश का होता भय है ॥

    भय के कारण युद्ध से भागा, महारथी समझेंगे तुम्हें ।
    सम्मानित जिन बीच हुए हो, वही तुच्छ समझेंगे तुम्हें ॥

    नहीं कहने से वचन सुनाते,  शत्रुओं को सुनना होगा ।
    निंदा तेरे सामर्थ्य की होगी, उससे अधिक दुःख क्या होगा ॥

    मर गए तो स्वर्ग को पाओगे, जीते तो धरा का राज्य मिले ।
    इसलिए युद्ध का निश्चय कर, हे कुन्तीपुत्र, हो जाओ खड़े ॥

    विजय पराजय, लाभ हानि को, एक समान समझ कर के ।
    करने को युद्ध तत्पर होगे तो,  पाप न कोई लगेगा तुम्हें ॥

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