कविता संग्रह
Tuesday, November 13, 2018
नदी के पार
उस ओर है जाना कठिन, अब है परीक्षा वीर की ||
जल की तरंगें उछलती, भिड़ती, लगे संग्राम है |
व्यतिकरण लेता रूप नाना, सतत है, अविराम है ||
[To be continued...]
Thursday, November 8, 2018
पटाखे
तुम्हारी ही वजह से है, तुम्हारी जिम्मेदारी है ||
ख़ुशी मिलती बहुत तुमको, फुलझड़ी को घुमाने से |
जो ऊपर दूर तक जाए, राकेट ऐसा चलाने से ||
जो अंगारों को बरसाए, धूम ऐसी मचाने से |
बदलते सुर, जो मटके में, पटाखे वे चलाने से ||
सूतली से जो बाँधे हैं, `हरे` वो बम चलाने से |
डाल गोबर में मुर्गा छाप, परखच्चे दूर उड़ाने से ||
जो वर्षा अग्नि की करते, उन्हें क्रमबद्ध चलाने से |
जो घर्षण से रहित लगते, चक्र ऐसे घुमाने से ||
जो भीषण गूँज करते हैं, अगरबत्ती लगाने से |
सुबह की नींद खुल जाए, नाद ऐसा बजाने से ||
क्या हुआ जो, एक दिन ही, वर्ष में तुम चलाते हो |
सहन हम से नहीं होता, शोर इतना मचाते हो ||
हमारा प्यारा कुत्ता भी, नहीं यह देख पाता है |
क्रूर तुम हो, पशु का ध्यान, तुम्हें किंचित न आता है ||
प्रदूषण पर असर कितना, नहीं साबित अभी यह है |
परन्तु हम प्रभावित हैं, अतः अब रोक तो तय है ||
फसल के ठूँठ जलाता जो, न कोई रोक पाता है |
पटाखे को चलाया जो, तो लज्जा में नहाता है ||
Sunday, April 1, 2018
कृष्णार्जुन संवाद - 9
अर्जुन तुम ईर्ष्या से रहित, तुम्हें गूढ़ ज्ञान बतलाता हूँ |
जिसे जान कर मुक्ति मिले, मैं वह रहस्य समझाता हूँ ||
जिसको सुन होते हैं पवित्र , यह विद्या है सबसे उत्तम |
जो गोपनीय हैं उनमें भी, इसका स्थान है सर्वप्रथम ||
धर्म के अनुसार यह, प्रत्यक्ष अनुभव योग्य है |
अनुसरण इसका है सरल, उत्तम है, अव्यय बोध है ||
इसमें श्रद्धा से जो विहीन, वे मुझको जान न पाते हैं |
हे अर्जुन ऐसे पुरुष पुनः, इस मृत्युलोक में आते हैं ||
जग समस्त में हे अर्जुन, अव्यक्त रूप है व्याप्त मेरा |
मुझमें स्थित सब प्राणी पर, उनमें नहीं निवास मेरा ||
सर्वत्र चलने वाली वायु, व्योम में रहती यथा |
उसी भांति सभी प्राणी, स्थित हैं मुझ में सर्वदा ||
कल्प अंत में सब प्राणी , मेरी प्रकृति में होते लीन |
नया कल्प आरम्भ हो तब, करता हूँ मैं रचना नवीन ||
जैसा स्वभाव होता उनका, मैं पुनः उन्हें करता हूँ सृजन |
उदासीन, आसक्ति रहित इन , कर्मों से नहीं हो बंधन ||
मेरी अध्यक्षता में प्रकृति, चराचर विश्व करे निर्मित |
पुनः पुनः इसी कारण, होता यह जग है परिवर्तित ||
मनुष्य तन आश्रित जो मेरे, परम भाव को जान न पाते |
सभी प्राणियों के ईश्वर को, अर्जुन, मूर्ख समझ नहीं पाते ||
Saturday, March 31, 2018
कृष्णार्जुन संवाद - 8
अधिभूत होता है क्या, अधिदैव, हे कृष्ण, किसे कहते ||
ब्रह्म वही जो नष्ट न हो, उसका स्वभाव अध्यात्म हुआ |
जिससे उत्पत्ति अभिवृद्धि हो, जीवों की, वह कर्म हुआ ||
जो नश्वर हैं , वे अधिभूत, अधिदैव वही जो सब में निहित |
अधियज्ञ मुझे जानो अर्जुन, मैं सभी प्राणियों में स्थित ||
अंतकाल हो, देह तजें जो, फिर भी मुझमें जिनका चित्त |
मेरे भाव को प्राप्त वे होते, नहीं संशय इसमें किंचित ||
अंतकाल में करके चिंतन, जिस भी विषय का, देह तजें |
रहें उसी विचार में तन्मय, उसी भाव को प्राप्त करें ||
सभी काल में करते स्मरण, मुझको, तुम यह युद्ध करो |
मुझमें अर्पित मन और बुद्धि, निश्चित मुझको प्राप्त करो ||
सर्वज्ञ सनातन अखिल नियंता, अचिन्त्य सूक्ष्म जो सूर्य सदृश |
अंतकाल में करें स्मरण जो, करें प्राप्त वे, दिव्य पुरुष ||
एकाग्र चित्त से युक्त हो जो, भृकुटि के मध्य में ध्यान करे |
भक्तियुक्त योग बल से, वो परम पुरुष को प्राप्त करे ||
ज्ञानी जिसे कहते अविनाशी, वीतराग ही होते प्रविष्ट |
ब्रह्मचर्य करते जो पालन , यह पद उनका भी है इष्ट ||
इन्द्रियाँ जिसकी रहें संयमित, मन को ह्रदय में करे निरोध |
सिर में प्राणवायु स्थापित, करके धारण करता योग ||
जो प्रयाण करते हैं देह से, रखते हुए मेरी स्मृति |
ॐ, शब्द उच्चारण करते, वे पाते हैं परम गति ||
अनन्य भाव से करते चिंतन, मुझे करें जो नित्य स्मरण |
उन हेतु मैं सुलभ हूँ अर्जुन, नित्ययुक्त जो योगीजन ||
नहीं लेते वे जन्म पुनः, जो नश्वर है, दुखदायी है |
जिसने मुझको प्राप्त किया, सिद्धि जो परम है, पाई है ||
ब्रह्मलोक तक लोक सभी, हैं पुनर्जन्म से मुक्त नहीं |
मुझे प्राप्त कर लेता जो, हो पुनर्जन्म से मुक्त वही ||
युग सहस्र होते हैं दिन में, रात भी ब्रह्मा की उतनी |
इसका ज्ञान जिन्हे होता वे, रात दिवस की समझ के धनी ||
ब्रह्मा दिन आरम्भ हो जब, अव्यक्त से व्यक्त जीव होते |
रात्रि के आरम्भ समय, सब व्यक्त जीव लीन होते ||
पुनः पुनः जन्म धारण कर, रात्रि में होता है विलुप्त |
ब्रह्मा का दिन जैसे होता, जीव समूह पुनः ले रूप ||
व्यक्त हुए, अव्यक्त हुए, ज्यों ब्रह्मा का दिन, रात हुई |
एक तत्त्व अव्यक्त है ऐसा, नष्ट नहीं होता है कभी ||
अक्षर है, वह परम गति, अव्यक्त तत्त्व जो उक्त कहा |
पुनरागमन नहीं होता जो, परम धाम को पा लेता ||
जीव सभी जिसमें स्थित हैं, जग समग्र जिसमें है व्याप्त |
पुरुष सनातन श्रेष्ठ है सबसे, भक्ति से ही होता प्राप्त ||
दो ही मार्ग से अर्जुन योगी, देह छोड़कर जाता है |
एक पुनर्जन्म को प्राप्त करे, एक जन्म से मुक्त कराता है ||
सूर्य उत्तरायण में हो जब, शुक्ल पक्ष, दिन का हो समय |
देह त्याग करते जो ज्ञानी, मुक्ति को पाते निश्चय ||
सूर्य दक्षिणायन में हो जब, रात्रि कृष्ण पक्ष की हो |
योगी स्वर्ग प्राप्त करते फिर, पुनः देह मिलती उनको ||
एक शुक्ल मार्ग, एक कृष्ण मार्ग, ये शाश्वत हैं, इनसे जाए |
जो शुक्ल, मोक्ष तक पहुँचाए, जो कृष्ण, पुनः जग में लाए ||
जो इन दोनों से अवगत हो, वह योगी मोह से ग्रस्त न हो |
पार्थ अतः तुम सर्वकाल में, केवल योग का आश्रय लो ||
वेदपाठ, तप, यज्ञ, दान के, पुण्य से भी ऊपर जाते |
योगी जो तत्त्व समझते हैं, वे परम धाम मेरा पाते ||