Thursday, October 2, 2014

स्वच्छ हो भारत


भोजन नहीं किया था कब से,  पानी पीकर काम चले ।
यात्रा से कल रात ही लौटे, मोदी कहाँ विश्राम करे ॥

हाथ में अपने झाड़ू लेकर, मोदी जी श्रमदान करें ।
कहने से सुनता नहीं कोई, लोग, जो देखें, काम करें ॥

श्रेष्ठ पुरुष के आचरण को, अन्य लोग अपनाते हैं ।
वह जो प्रमाण कर देता है, वे उसको लक्ष्य बनाते हैं ॥

गीता का यह मन्त्र सरल है, कई लोग दोहराते हैं ।
दुर्लभ वे जो निज जीवन में, करके इसे दिखाते हैं ॥

है जीवन ही संदेश मेरा, गांधी के वाक्य सुने हमने ।
राष्ट्रपिता के जन्म दिवस पर, पूर्ण करें उनके सपने ॥

थूंके नहीं सड़क पर बिलकुल, नाक न अपनी साफ़ करें ।
तम्बाकू की, पान की, पीकें, आदत का उपचार करें ॥

गड्ढे भरें, न जल का संचय, ना मच्छर उत्पात करें ।
कूड़ेदान में कूड़ा डालें, आज से यह शुरुआत करें ॥

जो वस्तुएँ, नहीं उपयोगी, ढेर न उनका घर में लगाएं ।
धूल ढकी, कीटों की जनक ये, मुक्ति इनसे शीघ्र ही पाएं ॥

स्वच्छ वस्त्र पहने हम, अपना, वातावरण भी स्वच्छ रखें ।
स्वच्छ जलाशय, स्वच्छ हो मंदिर, घर, कार्यालय स्वच्छ रखें ॥

गांधी के इन वचनों को हम, करें स्मरण, आचार में लाएं ।
अधिकारों की भीड़ हो गई, कुछ कर्त्तव्य भी क्यों न निभाएं ॥

स्वच्छता हम गांधी से सीखें, थोड़ा सा तो प्रयास करें ।
स्वच्छ हो भारत, स्वस्थ हो भारत, आज नई शुरुआत करें ॥

Sunday, September 14, 2014

नासदीय सूक्त


नहीं विद्यमान तब था कुछ भी,
                    उसका अभाव भी नहीं था तब ।
वायु भी नहीं, था व्योम नहीं,
                    उसे किसने ढका था, कहाँ था सब ॥

वह ब्राह्मिक द्रव, सर्वत्र व्याप्त,  कितना गहरा था,  किसके पास ॥

अमरत्व नहीं, तब मृत्यु नहीं थी,
                    नहीं प्रकाश, दिन रात न था ।
लेता था श्वास, वायु के बिन,
                    वह स्वयं पूर्ण था, शेष न था ॥

था केवल वह ही विद्यमान,  उसके अतिरिक्त न कोई था ॥

था अन्धकार से ओत प्रोत,
                     केवल घनघोर तिमिर फैला ।
सब कुछ तब था द्रव के सदृश,
                     नहीं था प्रकाश किंचित कैसा ॥

वह एक जो आवृत्त शून्य से था,  अग्नि के गर्भ से प्रकट हुआ ॥

मन से उत्पन्न कामना ने,
                     आरम्भ से व्याप लिया था उसे ।
करें खोज ह्रदय में मुनि उसकी,
                     संबंधित 'है', 'जो नहीं' उससे ॥

सम्बन्ध जटिल है यह इसमें,
                     बीज सभी हैं, शक्ति सभी ।
सूक्ष्म शक्तियाँ उसके भीतर,
                     वृहद शक्तियाँ बाहर भी ॥

पर, कौन उसे जानता है,
                     और कौन बता सकता है यहाँ ।
आरम्भ हुआ इसका था कब,
                    और कहाँ आदि है, अंत कहाँ ॥

पश्चात सृजन के देव हुए,
                   तब किसे पता यह, कब था बना ।
गर्भ से जिसके सृजन हुआ,
                  यह उसने किया, या उसके बिना॥

सृष्टि यह कैसे बनी थी,
                    कब हुआ आरम्भ था ।
यह व्योम का अध्यक्ष जाने,
                    या उसे भी नहीं पता ॥

[ऋग्वेद के नासदीय सूक्त पर आधारित]
[Based on 'Nasadiya Sukta' (Hymn of Creation) from RigVeda.]


Monday, July 28, 2014

जीर्ण धनुष


शिव के धनुष को तोड़ दिया, सुन, परशुराम सभा में आए ।
सिर पर जटा, भृकुटि है तिरछी, हाथ में फरसा, क्रोध दिखाए ॥

देख भयानक वेश को राजा, भय से त्रस्त, आसन से उठते ।
पिता सहित नाम निज लेते, दंडवत मुनि चरणोँ में करते ॥

सीता ने भी किया प्रणाम, जनक ने सारी कथा सुनाई ।
परशुराम ने फिरकर देखा, धनुष के टुकड़े दिए दिखाई ॥

मुनि तब क्रोध में भरकर बोले, मूर्ख जनक, इसे किसने तोड़ा ।
जनक मौन, उत्तर नहीं देते, सबके मन में भय है थोड़ा ॥

लोग सभी भयभीत देखकर, राम उठे, नहीं हर्ष न त्रास ।
नाथ, धनुष को जिसने तोड़ा, निश्चय होगा आपका दास ॥

परशुराम तब राम से बोले, सेवक वही जो करता सेवा ।
शिव के धनुष को तोड़ने वाला, दुष्टकर्मी है शत्रु मेरा ॥

जिसने ऐसा काम किया है, सभा छोड़ पृथक हो जाए ।
अन्यथा कोप हमारा लेगा, प्राण सभी के, जो भी आए ॥

मुनि को सुन, लक्ष्मण मुस्काए, परशुराम को वचन सुनाए ।
ऐसे धनुष बहुत से तोड़े, क्रोध में पहले आप न आए ॥

क्योँ इस धनुष में इतनी ममता, अन्य में कोई मोह नहीं ।
शिव का धनुष प्रसिद्ध है जग में, रे बालक तुझे होश नहीं ॥

लक्ष्मण हँसे, कहा हे भगवन, सभी धनुष हैं एक समान ।
जीर्ण धनुष टूटा, क्या हानि, राघव लिए थे नूतन मान ॥

यह तो टूट गया छूते ही, राम का इसमें दोष नहीं ।
मुनिवर इतनी छोटी बात पर, उचित आपका रोष नहीं ॥

अरे दुष्ट, तू मुझे न जाने, समझे मुझको निरा मुनि ।
क्षत्रिय कुल का शत्रु हूँ मैं, मेरा क्रोध महा अग्नि ॥

पृथ्वी भूप रहित कर डाली, मेरे हाथ से जब बरसा ।
काटी भुजाएँ सहस्रबाहु की, अति भयानक यह फरसा ॥

लक्ष्मण हँसते, मुनि तुम निज को, योद्धा मानते बहुत बड़े ।
मुझे दिखाते अपनी कुल्हाड़ी,  फूँक से पर्वत नहीं उड़े ॥

कुम्हड़े की बतिया नहीं कोई, तर्जनी देखते जो मर जाए ।
मुनि पर शस्त्र उठाते न कुल में, आपकी बात पे रोष न आए ॥

विश्वामित्र, कुटिल यह बालक,  कुल पर अपने कलंक लगाए ।
मेरी महिमा इसे बता दो, काल का ग्रास न यह बन जाए ॥

आपका यश और महिमा मुनिवर, आपसे श्रेष्ठतर कौन बताए ।
अपनी करनी पहले बताई, फिर कहिये यदि मन न अघाए ॥

क्रोध रोककर क्योँ दुःख पाते, गाली न आपकी शोभा बढ़ाए ।
युद्ध में डींग हाँकते कायर, शूरवीर करनी कर जाए ॥

लक्ष्मण की कटु वाणी सुनकर, फरसे को मुनि हाथ में लाए ।
दोष मुझे नहीं देना कोई,  यह निज मृत्यु स्वयं बुलाए ॥

बालक का अपराध न देखें, क्षमा करें लक्ष्मण को आप ।
विश्वामित्र, तुम्हारे प्रेम से, अनदेखा करता हूँ पाप ॥

आपके शील को कौन न जाने, लक्ष्मण फिरसे लगे उकसाने ।
फरसा मुझको आप दिखाते, मैं लगा आपके प्राण बचाने ॥

वीर बली नहीं मिले आपको, ब्राह्मण तुम घर में ही सयाने ।
'अनुचित अनुचित' उठी पुकारें, राम ने रोका, लक्ष्मण माने ॥


Wednesday, April 30, 2014

अणु की कहानी

ब्रह्माण्ड के विस्तार में, अणु की कहानी खो गई ।
कितने अणु हैं मिट गए, गुम उनकी वाणी हो गई ॥

पर ये अणु आये कहाँ से, गुम किधर ये हो गए ।
क्यूँ ये अचानक जाग कर के, फिर अचानक सो गए ॥

कुछ अणु मिलकर बड़े, रोशन सितारे हो गए ।
कुछ सितारे टूट कर, अणु ढेर सारे हो गए ॥

जिस खोज में ये भटकते, वह लक्ष्य इनका है कहाँ ।
आरम्भ जिसका है नहीं, हो अंत उसका फिर कहाँ ॥

क्या जानते हैं ये अणु, और जान कर के मस्त हैं ।
अथवा नहीं हैं जानते, और भय से ये भी त्रस्त हैं ॥

सीख ली है नृत्य की, अणु ने कहाँ से क्या पता ।
ब्रह्माण्ड में है राज कितने, कौन है सकता बता ॥

Tuesday, April 29, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 7

मेरे आश्रय हो योग करे, मुझमें आसक्त हो जैसे मन ।
जिससे मुझे पूर्णतः जाने, हे अर्जुन, अब उसको सुन ॥ 

पूर्ण रूप से कहूँगा तुमसे, ज्ञान मैं यह, विज्ञान सहित । 
जिसे जानकर, फिर नहीं रहता, शेष जानने को किंचित ॥ 

सहस्रों में कहीं कोई एक, सिद्धि के लिए यत्न करता ।
जो मुझको तत्त्व से जाने, ऐसा तो है कोई विरला  ॥ 

आकाश, अग्नि, भूमि, वायु, जल, अहंकार, मन और बुद्धि । 
इन आठ भिन्न रूपों वाली, हे भरतश्रेष्ठ, मेरी प्रकृति ॥ 

इस अपरा प्रकृति से अलग, जानो तुम मेरी परा प्रकृति । 
सब जीव उसी में, उसी में है, जग धारण करने की शक्ति ॥ 

सभी प्राणियों की उत्पत्ति, इन दोनों से हुई समझ ।
मैं सृष्टा हूँ, जग समग्र का, प्रलय का कर्त्ता मुझे समझ ॥

विद्यमान कुछ नहीं है ऐसा, मुझसे अधिक श्रेष्ठ जो हो ।
मुझमें सबकुछ ऐसे पिरोया, धागे में मणियाँ ज्यों हों ॥

जल में रस मैं हूँ, हे अर्जुन, सूर्य चन्द्र में ज्योति हूँ ।
शब्द हूँ नभ में, प्रणव वेद में, पुरुषों में पौरुष मैं हूँ ॥

मैं हूँ पुण्य गंध पृथ्वी में, और अग्नि में तेज हूँ मैं ।
जीवन सभी प्राणियों में हूँ, तपस्वियों में तप हूँ मैं ॥

निश्चित जानो अर्जुन तुम, भूतों का सनातन बीज हूँ मैं ।
बुद्धि हूँ बुद्धिमानों में और, तेजस्वियों में तेज हूँ मैं ॥

आसक्ति और कामना रहित, बलवानों में बल भी हूँ मैं ।
हे पार्थ जो धर्मविरुद्ध न हो, वह काम प्राणियों में हूँ मैं ॥

सात्त्विक भाव राजसिक एवं, भाव तामसिक जितने हैं ।
वे मुझसे हैं, ऐसा जानो, मैं उनमें नहीं, न वे मुझमें हैं ॥

इन तीन गुणों के भावों से, यह जग है पूरा ही मोहित ।
इस कारण जान नहीं पाते, मुझको अव्यय और गुणातीत ॥

तीन गुणों से युक्त ये मेरी, दैवी माया है दुस्तर ।
जो मेरा ही आश्रय लेते, वे इससे जाते हैं तर ॥

युक्त आसुरी भाव से जो, माया ने जिनका ज्ञान हरा ।
दुष्कर्म करें जो, मूढ़ नराधम, नहीं लेते आश्रय मेरा ॥

सुकृत करते, मुझको भजते, अर्जुन चार तरह के लोग ।
ज्ञानी अथवा जिज्ञासु, हो पीड़ित अथवा अर्थ का लोभ ॥

इन सबमें, हे अर्जुन मुझको, ज्ञानी बहुत ही प्यारा है ।
वह मुझमें स्थित है, उसको, केवल मेरा सहारा है ॥

कई जन्मों के अन्त में ज्ञानी, मुझे पूर्णतः पाते हैं ।
सब कुछ रूप है वासुदेव का,  नहीं सहज मिल पाते हैं ॥

कामना ज्ञान हरे जिनका,  वे अन्य देवता ध्याते हैं ।
प्रकृति उनकी होती जैसी, वैसे नियम अपनाते हैं ॥

श्रद्धा से परिपूर्ण हो करते, जिस जिस देव की वे भक्ति । 
दृढ़ उनकी श्रद्धा करता हूँ , उन्ही देवताओं के प्रति ॥

श्रद्धावान भक्त जब विधिवत, देवों का अर्चन करते ।
मेरे द्वारा दिए जो फल हैं,  प्राप्त उन्हीं को वे करते ॥

अल्प समझ है जिनकी, फल भी, उनके अन्त हो जाते हैं ।
देवभक्त पाते देवों को ,  मेरे भक्त, मुझे पाते हैं ॥

अव्यक्त व्यक्ति का रूप लिया , यह मानें जिनमें समझ नहीं ।
अव्यय जो, उत्कृष्ट है मेरा,  रूप परम का बोध नहीं ॥

योगमाया से रहता आवृत्त, सबको विदित नहीं होता ।
अज अव्यय मेरे स्वरूप का, मूढ़ को भान नहीं होता ॥ 

जो था अतीत, जो वर्तमान, जो होगा सबका मुझे ज्ञान ।
प्राणी समस्त हैं विदित मुझे, नहीं कोई जिसे हो मेरा ज्ञान ॥

प्राणी सभी सम्मोहित हैं, हैं आदिकाल से ग्रसित हुए ।
इच्छा और द्वेष से जन्मा जो, उस द्वंद्व मोह में लिप्त हुए ॥

जिनके पापों का अंत हुआ, और जो हैं पुण्य कर्म करते ।
मुक्त द्वन्द्व मोह से होते, दृढ़ता से मुझको भजते ॥

मेरा आश्रय ले यत्न करें, वृद्धत्व मृत्यु से मुक्ति को ।
अध्यात्म समझ पाते वे ही, समझ कर्म की हो उनको ॥

अधिभूत मुझे, अधिदैव मुझे, अधियज्ञ मुझे जानते जो ।
भले उपस्थित अंतकाल हो, मुझे जान लेते हैं वो ॥ 

[ Source: Geeta Chapter - 7 ]

Monday, April 28, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 6.3

समता रूप योग, मधुसूदन, आपने जो बतलाया है ।
चित्त की चंचलता विचारकर, संशय मन में आया है ॥

यह मन स्वभावतः चंचल है, सामर्थ्यवान और सुदृढ़ है ।
इसको वश में करना केशव, वायु विजय सा दुष्कर है ॥

निःसंदेह मन चंचल अर्जुन, सुगम नहीं निग्रह करना ।
अभ्यास और वैराग्य से किन्तु, सम्भव है वश में करना ॥

जिसका मन पर नहीं है संयम, योगप्राप्ति कठिन उसे ।
यत्नशील और संयत मन ही, करे उपाय से प्राप्त इसे ॥

जो श्रद्धायुक्त हो योग करे, हो मन पर संयम नहीं जिसे ।
हे कृष्ण, यदि सिद्धि नहीं मिलती, कैसी गति मिलती है उसे ॥

योग कर्म दोनों से विचलित, ब्रह्म के पथ से हो विक्षिप्त ।
क्या वह नष्ट नहीं हो जाता, जैसे मिटे मेघ खंडित ॥

आप ही हो केशव जो मेरा, संशय छेदन कर सकते ।
नहीं कोई भी सिवा आपके, संशय मेरा हर सकते ॥

शुभ कर्म किये जिसने उसका, इस लोक में होता नाश नहीं ।
परलोक में भी, हे अर्जुन, वह, दुर्गति को करता प्राप्त नहीं ॥

योगभ्रष्ट उत्तम लोकों में, दीर्घ समय तक वास करें ।
जो सदाचार से युक्त धनी, उनके घर जन्म को प्राप्त करें ॥

अथवा जन्म ग्रहण करते हैं, ज्ञानवान योगियों के घर ।
निःसंदेह इस लोक में होता, ऐसा जन्म, दुर्लभ अवसर ॥

पूर्व जन्म की बुद्धि उनको, वहाँ सहज सुलभ होती ।
सिद्धि प्राप्ति हेतु, अर्जुन, फिर प्रयत्न करते योगी ॥

भले विघ्न हों, पूर्वाभ्यास से, ब्रह्म के पथ में रुचि हो जाती ।
थोड़ी सी जिज्ञासा योग की, कर्ममार्ग से आगे बढ़ाती ॥

प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करते, पापरहित होते योगी ।
कई जन्मों में सिद्धि प्राप्त कर, पा लेते हैं परम गति ॥

तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी, ज्ञानीजनों से भी उत्तम ।
कर्मी से भी श्रेष्ठ है योगी, अतः पार्थ तू योगी बन ॥

श्रद्धा से जो मुझको भजते, आसक्त मुझमें जिनका मन ।
मेरे मत अनुसार, हे अर्जुन, सबसे श्रेष्ठ वे योगीजन ॥

[Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 33-47]

कृष्णार्जुन संवाद - 6.2


Friday, March 21, 2014

चुनाव के दिन

जनता जिसकी करे प्रतीक्षा, नेतागण होते भयभीत ।
समय चुनाव का निकट है मित्रों, सभी सुनाते अपने गीत ॥

कुर्ता पहने नजर हैं आते, अन्य दिवस जो पहने कोट ।
मैं तो सेवक, दास आपका, दे दो मुझको अपना वोट ॥

पाँच वर्ष मैं कार्य करूँगा, यह लो पाँच सौ रुपये का नोट ।
लोकतन्त्र का मूल्य चुकाया, मुझे ही देना अपना वोट ॥

बिजली नहीं है, सड़क पे गड्ढे, नल तो है पर नीर नहीं ।
मुझे जिता दो, मैं कर दूँगा, मुझ जैसा कोई वीर नहीं ॥

पर्चों से भर गई दिवारें, जिधर भी देखें नजर वो आते ।
नए वर्ष की बहुत बधाई, पोस्टर से नेता मुस्काते ॥

झंडे फहरे ऊँचे भवन पर, झोंपड़ियों में भी दिख जाते।
नेता दिखते भाषण करते, घर गरीब के रोटी खाते ॥

मुझको जोब दिला दो कुछ भी, वोट तुम्हें मैं देता हूँ ।
हँसी रोक नहीं पाते नेता, 'तुम्हें आश्वासन देता हूँ' ॥

पिछली बार वोट को लेकर, अन्तर्धान थे आप हुए ।
आपके दर्शन फिर से पाए, हम बड़भागी, कृतार्थ हुए ॥

पत्रकारों को भीतर लाओ, इनको 'मेवा मिठाई' खिलाओ ।
हमने जो पर्चे छापे हैं, समाचार में उन्हें दिखाओ ॥

दूसरे दल से टिकट है पाया, उसके विरुद्ध प्रचार करो ।
लिखो, भ्रष्ट है, अवसरवादी, स्टिंग आदि से वार करो ॥

ढोल बजाते, चलें समर्थक, नारे लोग लगाते हैं ।
माला पहने, घर घर जाकर, नेता हाथ मिलाते हैं ॥

लोकतंत्र की राह कठिन है, दिग्गज भी गिर जाते हैं ।
जिनको जनता मत देती है, महाराज बन जाते हैं ॥

हम पर है दायित्व बड़ा,  हमें नीयत को पढ़ना होगा ।
देश की डोर हमारे हाथ है, सही चुनाव करना होगा ॥

Friday, March 7, 2014

मैं उनसे नहीं मिलता

मैं उनसे नहीं मिलता जो, देश अहित की बात करें |
मैं उनसे नहीं मिलता जो, नौटंकी दिन रात करें ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, कहते कुछ और करते कुछ ।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, संविधान को समझे तुच्छ ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, लोगों में भ्रम पैदा करते ।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, हिंसा और रक्तपात करते ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, अपमान शहीदों का करते।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, बलिदानी वीरों पर हँसते॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, गणतन्त्र दिवस पर करे सवाल।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, हर पल बदले अपनी चाल॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, हर काम अधूरा ही करते।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, बिना बात धरना धरते ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, नारी का अपमान करें ।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, वोटबैंक का ध्यान करें ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, जनता को मूर्ख बनाते हैं ।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, केवल आरोप लगाते हैं ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, बस टीवी पर दिखना चाहें ।
मैं उनसे नहीं मिलता जो, कुछ कर न सकें, गीत गाएँ ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, सत्य को देख नहीं पाते |
मैं उनसे नहीं मिलता जो, बिना बुलाए घर आते ॥

मैं उनसे नहीं मिलता जो, अराजकता फैलाते हैं ।
मैं उनसे नहीं मिलता जो,  स्वयं को 'आप' बुलाते हैं ॥

[ Some reasons why Modi might have declined to meet Kejriwal.  ]

Tuesday, March 4, 2014

सौगंध मुझे इस माटी की

सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा, मैं देश नहीं झुकने दूँगा ।

यह धरती मुझ से पूछ रही, कब मेरा कर्ज चुकाओगे ।
अम्बर भी प्रश्न करे मुझसे, कब अपना फर्ज निभाओगे ॥
भारत माँ को है वचन मेरा, तेरा शीश नहीं झुकने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

वे लूट रहे हैं सपनों को, मैं चैन से कैसे सो जाऊँ ।
वे बेच रहे हैं भारत को, खामोश मैं कैसे हो जाऊँ ॥
हाँ मैंने कसम उठाई है, मैं देश नहीं बिकने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

वे जितना अँधेरा लाएँगे, मैं उतना उजाला लाऊँगा ।
वे जितनी रात बढ़ाएँगे,  मैं उतने सूर्य उगाऊँगा ॥
इस छल-फरेब की आंधी में, मैं दीप नहीं बुझने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

वे चाहते हैं, जागे न कोई, बस रात का कारोबार चले ।
वे नशा बाँटते रहें सदा, और देश यूँ ही बीमार चले ॥
पर जाग रहा है देश मेरा, निद्रा में नहीं गिरने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

अस्मिता पे माता बहनों की, लगी गिद्धों की कुदृष्टि है ।
पीड़ित शोषित और वंचित की, आशा पर होती वृष्टि है ॥
दुःख पीड़ा को झेला है बहुत, अब दर्दी नहीं उगने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

अब घड़ी फैसले की आई, हमने सौगंध है अब खाई।
अब तक जो समय गँवाया है, करनी उसकी है भरपाई ॥
नहीं भटकेंगे, नहीं अटकेंगे, मैं देश नहीं रुकने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

[ This is a slightly modified version of this poem by Narendra Modi ]

Sunday, February 23, 2014

हे मातृभूमि

हे मातृभूमि, हे जन्मभूमि, अनुपम तुझसे यह नाता है ।
तेरी रज को अपने शीश लगा, तेरा लाल परम सुख पाता है ॥

हे देवभूमि, हे पुण्यभूमि, तेरे चरणों में वंदन है ।
तेरी सुगंध है जीवन में, तुझे कोटि कोटि अभिनन्दन है ॥

हे दिव्यभूमि, हे कर्मभूमि, तुझसे ही जीवन में रस है ।
तू अक्षय स्रोत प्रेरणा का, तेरी प्रसन्नता में यश है ॥

हे कृपामूर्ति, हे दयामूर्ति, उपकार हैं माँ अगणित मुझ पर ।
तेरी सेवा ध्येय है जीवन का, तेरा ऋण न चुका सकता अणु भर ॥

Saturday, February 8, 2014

राहुल अर्णब संवाद

संसद के भीतर राहुल को जब, बीत गया था एक दशक ।
क्या है समर्थ कुछ करने में वह, लोगों के मन में था शक ॥

राहुल से हाथ मिला कर अर्णब, मन ही मन में मुस्काए ।
इतने दिन तक कहाँ थे बन्धु, याद अचानक हम आए ॥

प्रेस से मैं पहले भी मिला हूँ, टीवी पर है पहली बार ।
दल के भीतर कार्य हूँ करता, ध्यान उसी में लगा था यार ॥

कठिन विषय से तुम बचते हो, कहीं यह बात तो सत्य नहीं ।
कठिन विषय मुझको पसंद हैं, आपकी बात में तथ्य नहीं ॥

राहुल पहला प्रश्न तो यह है, पी एम पद से क्यों घबराते ।
सिस्टम तो एम पी चुनता है, एम पी चुनकर पी एम बनाते ॥

अपना पी एम घोषित करना, संसद राय को जाने बिना ।
नहीं लिखा यह संविधान में, इसीलिए नहीं हमने चुना ॥

लेकिन पिछली बार तो राहुल, घोषित तुमने किया ही था ।
तब तो पी एम पहले से था, परिवर्तन का प्रश्न न था ॥

कांग्रेसगण तो तुम्हें चुनेंगे, संशय किंचित इसमें नहीं ।
जो रीति है लोकतंत्र की, वही किया है जो है सही ॥

लेते निर्णय कई लोग जब, तब ही लोकतंत्र बढ़ता ।
संविधान में स्पष्ट लिखा है, उसी का मैं आदर करता ॥

लोगों का कहना है राहुल, मोदी से डरते हो तुम ।
हार के भय से व्याकुल होकर, करते नहीं सामना तुम ॥

मोदी से भिड़ना नहीं चाहते, कहीं पराजय ना हो जाय ।
कांग्रेस के दिन ठीक नहीं हैं, लोगों की है ऐसी राय ॥

इसका उत्तर समझने हेतु, समझना होगा राहुल को ।
राहुल के दिन कैसे कटे हैं, भय किस बात का है उसको ॥

जब छोटे बच्चे थे, अर्नब, तब सोचा होगा तुमने ।
'मैं भी कुछ करना चाहता हूँ', पत्रकार पर तुम क्यों बने ॥

मुझसे ही तुम प्रश्न हो करते, पत्रकारिता मुझे प्रिय है ।
उत्तर मेरे प्रश्न का दो तुम, मोदी से लगता भय है ?

प्रश्न का उत्तर अवश्य दूँगा, पर पूछा है कुछ मैंने ।
क्यों देखे थे छोटी आयु में, पत्रकारिता के सपने ॥

सोचा पत्रकार बनना है, आधा अधूरा क्या बनना ।
राहुल तुम हो राजनीति में, आधा नेता क्या बनना ॥

तुमने उत्तर नहीं दिया है, अर्नब, पर मैं देता हूँ ।
कैसे सोचता राहुल गांधी, परिचय उसका देता हूँ ॥

बालक था मैं, मेरे पिता को, राजनीति में आना पड़ा ।
इस सिस्टम से लड़ते रहे वे, प्राण भी अपने गँवाना पड़ा ॥

दादी जेल में जाती देखी, मृत्यु भी देखी उसकी ।
खोया, जिसके खोने का भय, अब मुझको भय तनिक नहीं ॥

मेरा एक इरादा यही है, मेरे हृदय की पीड़ा है ।
अर्जुन की दृष्टि की भांति, ध्येय यही बस मेरा है ॥

मुझको केवल यह दिखता है, सिस्टम में परिवर्तन हो ।
मोदी आदि गौण विषय हैं, आवश्यक नहीं कि वर्णन हो ॥

[This is based on first few minutes of Rahul's Interview with Arnab]

Friday, February 7, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 6.2

वायुरहित स्थान में जैसे, दीप नहीं विचलित होता ।
संयत मन वाला वह योगी, आत्मयोग में स्थित होता ॥

मन निरुद्ध है योग के द्वारा, विषयों से उपराम हुआ ।
आत्मा से आत्मा का दर्शन, आत्मा में ही तृप्त हुआ ॥

इन्द्रियों से जो ग्राह्य नहीं है, बुद्धिग्राह्य उस सुख में स्थित ।
योगी नहीं होता है विचलित, सदा तत्त्व में रहता स्थित ॥

जिसको पाकर अन्य कोई भी, लाभ मानता अधिक नहीं ।
जिसमें स्थित हो, भारी दुःख भी, विचलित करता उसे नहीं ॥

उस विद्या को कहते योग, दुःख के संयोग को हरती जो ।
धैर्य रखो मन में, निश्चय से, उसका दृढ़ अभ्यास करो ॥

संकल्प से उद्भव होता जिनका, सभी कामनाओं को तजो ।
सभी ओर से, सभी इन्द्रियाँ, मन के द्वारा वश में करो ॥

धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा,  धीरे धीरे शमन करो ।
आत्मा में मन स्थित कर के, कुछ भी चिंतन नहीं करो ॥

अस्थिर चंचल, यह मन जाता, जहाँ जहाँ दौड़ कर के ।
करो उसे आत्मा में स्थापित, वहाँ वहाँ निग्रह कर के ॥

ब्रह्मभाव से युक्त है जो, कल्मष हैं जिसके दूर हुए ।
शांत रजोगुण हुआ है जिसका, उत्तम सुख है मिले उसे ॥

मन शांत हुआ जिस योगी का, रहता है सदा योग में लीन ।
ब्रह्मप्राप्ति सरल है उसको, उत्तम सुख में हो लवलीन ॥

अपने को सभी प्राणियों में, अपने में सभी प्राणियों को ।
सर्वत्र देखते समदर्शी, हैं युक्त योग से होते जो ॥

सबको जो मुझमें है देखता, मुझको देखता है सबमें ।
वह मेरे लिये अदृश्य नहीं, नहीं उसके लिये अदृश्य हूँ मैं ॥

एकत्व का आश्रय लेते जो, सबमें स्थित, मुझको भजते ।
सभी अवस्था में रहकर भी , योगी मुझमें ही रहते ॥

जिनको सब जीवों के सुख दुःख, दिखते हैं अपने ही समान ।
मेरे मत अनुसार, हे अर्जुन, योग में श्रेष्ठ तू उनको जान ॥

[Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 19-32]

कृष्णार्जुन संवाद - 6.1                         कृष्णार्जुन संवाद - 6.3

Saturday, January 4, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 6.1

    कर्म के फल की चाह नहीं, जो करने योग्य हो, कर्म करे ।
    संन्यासी और योगी वही, नहीं जो अग्नि और कर्म तजे ॥

    कहते जिसे संन्यास उसी को, योग, हे अर्जुन, तुम जानो ।
    संकल्प त्याग कर सके नहीं जो, योगी उसको मत मानो ॥

    आरम्भ योग में जो करते, उनके लिए कर्म ही साधन है ।
    जो योग में हो जाते प्रवीण, कर्मों का त्याग ही साधन है ॥

    जब रहे नहीं विषयों में रुचि, आसक्ति कर्म में होती क्षीण ।
    संकल्प सभी हों त्याग दिए, कहते तब उसको योग प्रवीण ॥

    मन से अपना उद्धार करे, नहीं इससे अपना करे पतन ।
    यह मन ही मित्र स्वयं का है, स्वयं का ही शत्रु है मन ॥

    जिसने अपना मन जीता है, मन उसके लिए बन्धु जैसा ।
    नहीं वश में किया है जिसने मन, अपकार करे शत्रु जैसा ॥

    सर्दी गर्मी में, सुख दुःख में, सम्मान और अपमान में ।
    मन जिसने जीता, शांत है जो, होता है स्थित परमात्म में ॥

    ज्ञान विज्ञान से तृप्त है मन, कूटस्थ है, इन्द्रियाँ वश में हैं ।
    पाषाण और स्वर्ण में समदर्शी, उस पुरुष को योगी कहते हैं ॥

    सुहृद मित्र में, वैरी में, उदासीन मध्यस्थ में जो ।
    सज्जन में और पापी में, समबुद्धि रखते श्रेष्ठ हैं वो ॥

    एकान्त में रहते हुए योगी, संयत कर ले अपना चित्त ।
    परिग्रह से आशा से रहित हो, करे समाधि में मन को स्थित ॥

    कुशा घास से, वस्त्र आदि से, आसन हो जो बना हुआ ।
    ऊँचा नहीं, नीचा भी नहीं, पवित्र स्थान पर उसे बिछा ॥

    स्थिर आसन पर बैठे स्थिर हो, मन अपना एकाग्र करे ।
    इन्द्रियों की सब रोक क्रियाएँ, योग का दृढ़ अभ्यास करे ॥

    सिर गर्दन और काया सीधी, निश्चल होकर, स्थिर बैठे ।
    नाक के अग्र भाग को देखे, इधर उधर कुछ नहीं देखे ॥

    शांतमना हो, भय से मुक्त हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित ।
    मन संयत कर, मेरे परायण, चित्त को मुझ में करे स्थित ॥

    इस रीति से मन संयत कर, अभ्यास जो योगी करता है ।
    मेरे स्वरूप की, शान्ति की, निर्वाण की प्राप्ति करता है ॥

    योग सिद्ध नहीं होता उसका, भोजन अधिक जो करता है ।
    अथवा भोजन करे बहुत कम, सोता अधिक या जगता है ॥

    उचित करे आहार विहार, कर्मों में भी उचित व्यवहार ।
    यथा योग्य सोए और जागे, योग कराए दुःखों से पार ॥

    चित्त संयमित होता है जब, आत्मा में ही स्थित होता ।
    स्पृहा कामना की नहीं रहती, युक्त तभी योगी होता ॥

    [Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 1-18]

Wednesday, January 1, 2014

we start our journey


[ 2014 is the year of change. So this time, translation from my own poem ]

    The task is hard, not so easy as it may appear,
           All eyes are on us.
    The destination is miles away, not even visible,
           Innovation is a must.

    The sky is cloudy, the road is difficult,
           Obstacles will be there for certain.
    Our endurance and patience will be tested,
           Adversity may appear time and again.

    We need to be cautious and avoid old mistakes,
           Put aside our egos, and stupidity.  
    In the new year, we are full of enthusiasm,
          With enhanced will power, and new strategy.

    We need to be brave, and apply our minds in creative ways,
          We'll give it all we got, and work with passion.
    We start our journey towards our goal,
          With unwavering belief, and celebration.