Tuesday, December 31, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 5
संन्यास की भी करते हो प्रशंसा, फिर कहते हो योग अपनाओ ।
जो हितकर इन दोनों में हो, कृष्ण मुझे वह एक बताओ ॥
संन्यास हो या कर्मयोग हो, दोनों ही मंगलकारी ।
फिर भी अर्जुन दोनों में से, कर्मयोग है हितकारी ॥
जो नहीं द्वेष किसी से करते, रहते जो इच्छा से विमुक्त ।
उनको संन्यासी समझो तुम, वे बंधन से हो जाते मुक्त ॥
सांख्य और योग में भेद देखते, सत्य का उनको नहीं पता ।
किसी भी एक का आश्रय लें तो, दोनों का ही फल मिलता ॥
प्राप्त जो लक्ष्य सांख्य से होता, योग से भी है वही मिलता ।
सांख्य और योग, ये दोनों एक हैं, यह जो जानते उनको पता ॥
जिस संन्यास में योग नहीं है, हे अर्जुन, वह दुःख देता ।
जो मुनि होता योग से युक्त, शीघ्र ही ब्रह्म को पा लेता ॥
योग युक्त जो, निर्मल मति के, इन्द्रियाँ मन वश में होते ।
सबको प्रिय वे, उनको प्रिय सब, कर्म में लिप्त नहीं होते ॥
कर्मयोगी जो तत्त्व जानते, करते वे भी क्रियाएँ सभी ।
निज विषयों में लीन इन्द्रियाँ, नहीं करता हूँ मैं कुछ भी ॥
ब्रह्म में कर्म समर्पित कर, आसक्ति से रहित कर्म करता ।
पाप में लिप्त नहीं होता है, जल में कमल सा है रहता ॥
काया से, मन से, बुद्धि से, अथवा केवल इन्द्रियों से ।
योगी आत्म शुद्धि के लिए, आसक्ति से रहित कर्म करते ॥
योगी कर्म के फल को त्याग, निरंतर शान्ति पाते हैं ।
फल की इच्छा से करते कर्म, वे बंधन में फँस जाते हैं ॥
जिसकी इन्द्रियाँ संयत, जिसने, मन से त्याग दिए हैं कर्म ।
पुर में स्थित, नौ द्वारों वाले, न तो करते, न कराते कर्म ॥
लोगों के कर्म नहीं रचता, कर्तृत्व भी नहीं है उपजाता ।
न ही ईश्वर कर्म का फल देता, यह सब प्रकृति से हो जाता ॥
करता नहीं किसी के पाप ग्रहण, स्वीकार न ईश्वर पुण्य करे ।
अज्ञान से ज्ञान है ढका हुआ, उस से ही जीव मोहित होते ॥
आत्म तत्त्व के ज्ञान से जिनका, अज्ञान हुआ अवसादित है ।
वह ज्ञान ही, सूर्य की भाँति करता, परम तत्त्व को प्रकाशित है ॥
मनबुद्धि लीन हैं, परम तत्त्व में, निष्ठा, शरण उसी की है ।
ज्ञान से दूर हैं कल्मष, उनको, होती मोक्ष की प्राप्ति है ॥
विद्या विनय से युक्त पुरुष में, गौ आदि सब प्राणियों में ।
ज्ञान जिन्होंने प्राप्त किया है, सम दृष्टि रखते सब में ॥
संसार उन्होंने जीता, जिनके, मन समता में स्थापित हैं ।
ब्रह्म है दोषरहित, सम, इससे, वे सब ब्रह्म में स्थित हैं ।
होते नहीं हर्षित प्रिय पाकर, उद्विग्न अप्रिय से नहीं होते ।
स्थिरबुद्धि, जो मोह रहित हैं, ज्ञानी ब्रह्म में स्थित होते ॥
अनासक्त जो विषय के सुख में, आत्म सुख करता है प्राप्त ।
ब्रह्मयोग से युक्त पुरुष को, अक्षय सुख होता है प्राप्त ॥
जो भी विषय से प्राप्त भोग हैं, दुःखों का कारण वे बनते ।
आदि अन्त होने वाले हैं, ज्ञानी नहीं उनमें रमते ॥
देह नष्ट होने से पूर्व ही, सह सकने में समर्थ हैं जो ।
काम क्रोध जनित वेगों को, वो योगी हैं, सुखी हैं वो ॥
आत्म सुख को, आत्म तृप्ति को, आत्म ज्योति जो पाते हैं ।
योगी ब्रह्म में स्थित होते वे, ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥
पाप क्षीण हो जाते जिनके, संशय भी मिट जाते हैं ।
प्राणियों के हित में रत वे, ऋषि निर्वाण को पाते हैं ॥
काम-क्रोध से मुक्त हैं जो, मन को वश में कर पाते हैं ।
आत्म तत्त्व का ज्ञान जिन्हें, वे ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥
विषयों का करता है त्याग, नेत्र भृकुटि में स्थित करता ।
नासिका में विचरण करते, प्राण अपान को सम करता ॥
हैं इन्द्रियाँ मनबुद्धि संयत, मोक्ष परायण जो मुनि है ।
जिसको इच्छा भय क्रोध नहीं, उसकी सदा ही मुक्ति है ॥
भोक्ता सब यज्ञ तपस्या का, लोकों का ईश्वर जाने मुझे ।
सभी प्राणियों का सुहृद जानता, परम शान्ति मिलती है उसे ॥
[Source: Geeta Chapter - 5, कर्म संन्यास योग, Verse: 1-29]
Monday, December 30, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 4.3
यज्ञ द्रव्यमय की तुलना में, ज्ञान यज्ञ अति उत्तम है ।
सभी भाँति के कर्मों का हो, ज्ञान में, पार्थ, समापन है ॥
ज्ञानी पुरुष के समीप जाकर, श्रद्धा पूर्वक नमन करो ।
भली भाँति करो उनकी सेवा, नम्रता पूर्वक प्रश्न करो ॥
तत्त्व को सम्यक जानने वाले, ज्ञान का अक्षय स्रोत हैं जो ।
उपदेश करेंगे ज्ञान का वे, हे पार्थ, ज्ञान उनसे सीखो ॥
इस ज्ञान को पाकर, हे अर्जुन, नहीं मोह को प्राप्त करोगे कभी ।
सब प्राणी देखोगे स्वयं में, फिर मुझ में देखोगे सभी ॥
सभी पापियों से भी अधिक, यदि पापकर्म हैं तुमने किए ।
पाप समुद्र से तर जाओगे, ज्ञान की नाव का आश्रय ले ॥
जैसे तीव्र प्रज्वलित अग्नि, ईंधन को करती है भस्म ।
वैसे ज्ञान की अग्नि, अर्जुन, सब कर्मों को करती भस्म ॥
ज्ञान के जैसा पवित्र कुछ भी, विद्यमान इस जग में नहीं ।
योग में सिद्ध, प्राप्त करते हैं, इसे समय से, स्वयं में ही ॥
जो तत्पर, जिसकी इन्द्रियाँ वश, उस श्रद्धावान को ज्ञान मिले ।
ज्ञान प्राप्त करने पर उसको, परम शांति शीघ्र मिले ॥
अज्ञानी, श्रद्धा से रहित, संशय से युक्त, होते हैं नष्ट ।
यह लोक नहीं, परलोक नहीं, संशय से युक्त, पाते हैं कष्ट ॥
आसक्ति कर्म के फल में नहीं, संशय हैं ज्ञान से जिसके मिटे ।
जिसने आत्म को प्राप्त किया है, कर्म बाँधते नहीं उसे ॥
अज्ञान जनित इस संशय को, तुम ज्ञान के द्वारा नष्ट करो ।
योग का आश्रय लो अर्जुन, हो जाओ खड़े, अब युद्ध करो ॥
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 33-42]
Saturday, December 28, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 4.2
क्या कर्म है, है अकर्म क्या, इस विषय में मोहित सब व्यक्ति ।
वह कर्म का तत्त्व कहूँगा तुम्हें, जिसे समझ अशुभ से मिले मुक्ति ॥
आवश्यक है ज्ञान कर्म का, समझ आवश्यक विकर्म की ।
अकर्म का बोध भी होना चाहिए , गहन गति है कर्मों की ॥
अकर्म देखता कर्म में जो, कर्म अकर्म में देखता है ।
वह बुद्धिमान मनुष्यों में, कर्मों का सम्यक कर्त्ता है ॥
सभी कर्म जिस व्यक्ति के हों, कामना और संकल्प रहित।
कर्म ज्ञान से दग्ध हैं जिसके, ज्ञानी उसे कहते पंडित ॥
आसक्ति कर्म के फल की त्याग, जो नित्य तृप्त, नहीं चाहते कुछ ।
कर्म प्रवृत्त भलीभांति होते हुए, कर्म नहीं करते वे कुछ ॥
आशा नहीं कोई, मन संयत, त्याग सभी भोगों का करे ।
कर्म देह निर्वाह निमित्त हों, पाप ग्रस्त नहीं होते वे ॥
जो स्वतः मिले, उसमें संतुष्ट, निर्द्वन्द्व हैं, ईर्ष्या जिन्हें नहीं ।
समता है सिद्धि असिद्धि में, करते हैं कर्म पर बंधते नहीं ॥
आसक्ति रहित हैं, मुक्त हैं जो, चित्त है जिनका ज्ञान में लीन ।
यज्ञ हेतु करते हैं आचरण, हों उनके सब कर्म विलीन ॥
ब्रह्म ही है सामग्री यहाँ, ब्रह्म को ही यह अर्पित है ।
ब्रह्म अग्नि है यज्ञ की जिसमें, ब्रह्म ही करे समर्पित है ॥
आहुति की क्रिया ब्रह्म है, इसमें समाहित होता मन।
चित्त समाहित ब्रह्म में जब हो, ब्रह्म से ही होता है मिलन॥
देवताओं के लिए यज्ञ की, करें उपासना कुछ योगी ।
ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ को, देते हैं आहुति कुछ योगी ॥
इन्द्रियों की देते हैं आहुति, संयम रूप अग्नि में कोई ।
विषयों की देते हैं आहुति, इन्द्रिय रूप अग्नि में कोई ॥
आत्म संयम रूप अग्नि में, ज्ञान से जो प्रज्वलित हुई ।
इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाएँ, इनकी आहुति देते कोई ॥
कोई करते यज्ञ द्रव्यरूपी, करते तपरूपी यज्ञ कोई ।
कोई यज्ञ योगरूपी करते, स्वाध्याय और ज्ञान का यज्ञ कोई ॥
अपान में आहुति प्राण की देते, अपान की प्राण में देते तथा ।
प्राण अपान की गति रोकते, प्राणायाम में जिनकी निष्ठा ॥
आहार नियत अपनाते कोई, प्राणों में प्राण की आहुति दें ।
प्रयत्नशाली व्यक्ति सभी ये, पालन तीक्ष्ण व्रतों का करें ॥
ये सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं, जो यज्ञ से पाप क्षीण कर के ।
सनातन ब्रह्म को करें प्राप्त, अवशेष यज्ञ का पाकर के ॥
अनेक भाँति के यज्ञ इस तरह, वर्णन वेद में जिनका मिले ।
जानो इनको कर्म जनित, इस ज्ञान को पाकर मोक्ष मिले ॥
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 16-32]
कृष्णार्जुन संवाद - 4.1
इस अविनाशी योग को मैंने, सूर्य को सबसे पहले कहा ।
सूर्य ने इसको कहा मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा ॥
परम्परा से प्राप्त योग यह, राजर्षियों को ज्ञात हुआ ।
बहुत समय हो जाने से यह, लगभग यहाँ समाप्त हुआ ॥
वही पुरातन योग आज यह, मैंने तुमको बतलाया ।
भक्त हो मेरे, मित्र हो तुम, उत्तम रहस्य को समझाया ॥
आपका जन्म तो अभी हुआ है, सूर्य तो बहुत पुराना है ।
किस प्रकार मैं जानूँ सूर्य ने, योग को आपसे जाना है ॥
बहुत से मेरे जन्म हो चुके, हुए हैं जन्म तुम्हारे भी ।
मुझको सब है ज्ञात, पार्थ तुम, नहीं जानते हो कुछ भी ॥
अजन्मा हूँ अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ प्राणियों सबका ।
अवलम्बन प्रकृति का ले, अपनी माया से प्रकट होता ॥
जब जब भी है धर्म की हानि, होती, भारत, इस जग में।
वृद्धि अधर्म की होती है, लेता तब तब अवतार हूँ मैं ॥
सज्जनों की रक्षा के लिए, नष्ट दुर्जनों को करने ।
धर्म की स्थापना हेतु, होता हूँ प्रकट मैं हर युग में ॥
जन्म और कर्म हैं दिव्य मेरे, इसको जो तत्व से जानता है ।
पुनर्जन्म उसका नहीं होता, प्राप्त मुझे वह करता है ॥
क्रोध राग और भय से रहित जो, मेरी शरण में आते हैं ।
हो ज्ञान रूप तप से पवित्र, मेरी भक्ति को पाते हैं ॥
जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं उनको वैसे भजता ।
हे पार्थ सभी व्यक्ति करते हैं, अनुसरण मेरे पथ का ॥
कर्म के फल को चाहने वाले, पूजन करते देवों का ।
मनुष्य लोक में शीघ्र है मिलता, कर्म किये जो, फल उनका ॥
गुण और कर्मों के विभाग से, चार वर्ण हैं मैंने रचे ।
उनका कर्त्ता होते हुए भी, अकर्त्ता अव्यय समझो मुझे ॥
कर्म लिप्त नहीं करते मुझे, नहीं मेरी उनके फल में स्पृहा ।
जो इस प्रकार जानता मुझको, कर्मों से वह नहीं बंधता ॥
यह जानकर करते थे कर्म, मुमुक्षु पूर्वकाल में भी ।
किये थे कर्म उन्होंने जैसे, अर्जुन, कर्म करो तुम भी ॥
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 1-15]
Friday, December 27, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 3.3
धारण अध्यात्म चित्तवृत्ति कर, सब कर्म समर्पित मुझमें करो ।
आशा ममता का करो त्याग, तुम शोकरहित हो युद्ध करो ॥
अनुसरण मेरे इस मत का, मानव नित्य जो करते हैं ।
वे श्रद्धावान असूया रहित, कर्मों से निश्चित तरते हैं ॥
लेकिन जो व्यक्ति असूया वश, मेरे मत को नहीं अपनाते ।
वे ज्ञान से मूढ़, विवेक रहित, उनके पुरुषार्थ व्यर्थ जाते ॥
ज्ञानवान भी चेष्टा करते, जैसा हो स्वभाव उनका ।
संचालित प्रकृति से प्राणी, निग्रह से हो सिद्धि क्या ॥
अवश्यम्भावी है राग द्वेष, इन्द्रियों का अपने विषयों में ।
इन दोनों के आधीन न हो, ये बाधा साधक के पथ में ॥
स्वधर्म का पालन भले, परिपक्वता से हो रहित।
परधर्म के भलीभाँति पालन, से परन्तु श्रेष्ठ है ।
निज धर्म पथ में हो निधन, कल्याणकारी किन्तु वह ।
परधर्म के निर्वाह में, भय है बहुत, अति क्लेश है ॥
आशा ममता का करो त्याग, तुम शोकरहित हो युद्ध करो ॥
अनुसरण मेरे इस मत का, मानव नित्य जो करते हैं ।
वे श्रद्धावान असूया रहित, कर्मों से निश्चित तरते हैं ॥
लेकिन जो व्यक्ति असूया वश, मेरे मत को नहीं अपनाते ।
वे ज्ञान से मूढ़, विवेक रहित, उनके पुरुषार्थ व्यर्थ जाते ॥
ज्ञानवान भी चेष्टा करते, जैसा हो स्वभाव उनका ।
संचालित प्रकृति से प्राणी, निग्रह से हो सिद्धि क्या ॥
अवश्यम्भावी है राग द्वेष, इन्द्रियों का अपने विषयों में ।
इन दोनों के आधीन न हो, ये बाधा साधक के पथ में ॥
स्वधर्म का पालन भले, परिपक्वता से हो रहित।
परधर्म के भलीभाँति पालन, से परन्तु श्रेष्ठ है ।
निज धर्म पथ में हो निधन, कल्याणकारी किन्तु वह ।
परधर्म के निर्वाह में, भय है बहुत, अति क्लेश है ॥
किससे प्रेरित होकर, माधव, पापकर्म यह पुरुष करे ।
नहीं चाहते हुए भी बलवश, कौन नियोजित इसे करे ॥
यह काम एवं क्रोध, अर्जुन, रजोगुण से हो उदय ।
भक्षक, नहीं अघाने वाला, पापी बड़ा, वैरी है यह ॥
धुएँ से अग्नि आच्छादित, धूल से दर्पण जैसे ढके ।
हो आवृत गर्भ जरायु से, उसी तरह यह ज्ञान ढके ॥
कभी नहीं बुझती जो अग्नि, काम का रूप भी है ऐसा ।
ज्ञानी का यह नित्य है वैरी, ज्ञान को, अर्जुन, इसने ढका ॥
आश्रय स्थल कहे जाते हैं, इन्द्रियाँ मन बुद्धि इसके ।
इनके द्वारा ज्ञान को ढक कर, मोहित यह देही को करे ॥
इसलिए सबसे पहले अर्जुन, इन्द्रियों को तुम वश में करो ।
जो नष्ट ज्ञान विज्ञान करे, इस काम को तुम विनष्ट करो ॥
इन्द्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता, इन इन्द्रियों से भी मन है श्रेष्ठ ।
मन से भी बुद्धि श्रेष्ठतर है, किन्तु बुद्धि से भी वह श्रेष्ठ ॥
जान उसे बुद्धि से श्रेष्ठ, तुम बुद्धि से मन को वश में करो ।
काम, जो नहीं अघाए कभी, उस शत्रु को, अर्जुन, नष्ट करो ॥
[Source: Geeta Chapter - 3, कर्मयोग, Verse: 30-43]
Thursday, December 26, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 3.2
आत्म में जिनकी प्रीति है, आत्म में तृप्ति है जिनको ।
संतुष्ट आत्म में जो व्यक्ति, कर्त्तव्य कर्म नहीं उनको ॥
ऐसा नहीं कुछ, जो उन्हें करना, जो नहीं करना, ऐसा भी नहीं ।
सभी प्राणियों में उनको, किसी हेतु भी आश्रय लेना नहीं ॥
इसलिए त्याग आसक्ति को, भली भाँति निरन्तर कर्म करो ।
आसक्ति रहित कर्मों से पुरुष को, परम लक्ष्य की प्राप्ति हो ॥
जनक आदि को, कर्मों से ही, परम सिद्धि उपलब्ध हुई ।
लोककल्याण की दृष्टि से भी, कर्म तुम्हारे लिए सही ॥
श्रेष्ठ पुरुष करता जो आचरण, अन्य लोग अपनाते हैं ।
वह जो प्रमाण कर देता है, वे उसको लक्ष्य बनाते हैं ॥
हे पार्थ, कोई कर्त्तव्य नहीं, जो करना मुझे त्रिलोकी में ।
कुछ पाना नहीं, नहीं करना त्याग, प्रवृत्त कर्म में फिर भी मैं ॥
यदि सावधानी पूर्वक मैं, कर्म में प्रवृत्त न होऊँ कभी ।
मेरे पथ का तब निश्चय ही, अनुकरण करेंगे लोग सभी ॥
यदि कर्म का मैं परित्याग करूँ, हो जाएँगे सब लोग भ्रष्ट ।
मुझ पर उसका सब होगा दोष, मुझ से होगी यह प्रजा नष्ट ॥
आसक्त होकर कर्म में, संलग्न जैसे अज्ञानी ।
लोकहित के भाव से, निष्काम कर्म करें ज्ञानी ॥
कर्मों में आसक्त हैं जो, उनकी बुद्धि में भ्रम न करे ।
भली भाँति कर्म करे ज्ञानी, नियुक्त कर्म में उन्हें करे ॥
प्रकृति के गुणों के द्वारा, किए जाते हैं कर्म सभी ।
अहंकार से मोहित जो, 'मैं कर्ता हूँ' माने फिर भी ॥
गुणों व कर्मों के विभाग को, पार्थ, तत्त्व से जानते जो ।
इन्द्रियाँ विषयों में रत हैं, पृथक स्वयं को मानते वो ॥
प्राकृत गुणों से मूढ हुए जो, प्रीति गुणों कर्मों में करें ।
जो मंदमति और ज्ञानशून्य, उन्हें ज्ञानवान विचलित न करें ॥
[Source: Geeta Chapter-3, कर्मयोग, Verse: 17-29]
[Source: Geeta Chapter-3, कर्मयोग, Verse: 17-29]
Tuesday, December 24, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 3.1
बुद्धि श्रेष्ठ यदि कर्म से, केशव, घोर कर्म क्यों मुझसे कराते ।
जो हितकर हो, एक बताओ, आपके वचन समझ नहीं आते ॥
इस लोक में निष्ठा, दो भाँति की, मेरे वचन जैसे दर्शाते ।
ज्ञानयोग को सांख्य उपासक, योगी कर्मयोग अपनाते ॥
आरम्भ रोककर कर्मों का, नैष्कर्म्य अवस्था मिलती नहीं ।
कर्मों के परित्याग मात्र से, सिद्धि प्राप्त हो सकती नहीं ॥
किसी काल में, कोई न रहता, कर्म किये बिन, क्षण भर भी ।
वश हो, स्वभाव से प्राप्त गुणों के, प्रवृत्त कर्म में होते सभी ॥
कर्मेन्द्रियों को वश में रखकर, संयम अपना दिखलाता ।
मन से करे विषयों का स्मरण, वह मिथ्याचारी कहलाता ॥
जो हितकर हो, एक बताओ, आपके वचन समझ नहीं आते ॥
इस लोक में निष्ठा, दो भाँति की, मेरे वचन जैसे दर्शाते ।
ज्ञानयोग को सांख्य उपासक, योगी कर्मयोग अपनाते ॥
आरम्भ रोककर कर्मों का, नैष्कर्म्य अवस्था मिलती नहीं ।
कर्मों के परित्याग मात्र से, सिद्धि प्राप्त हो सकती नहीं ॥
किसी काल में, कोई न रहता, कर्म किये बिन, क्षण भर भी ।
वश हो, स्वभाव से प्राप्त गुणों के, प्रवृत्त कर्म में होते सभी ॥
कर्मेन्द्रियों को वश में रखकर, संयम अपना दिखलाता ।
मन से करे विषयों का स्मरण, वह मिथ्याचारी कहलाता ॥
इन्द्रियों को मन से वश में कर, जो प्रवृत्त कर्म में होता है ।
जो शास्त्र विहित वे कर्म करो, अकर्म से कर्म श्रेष्ठतर है ।
बन्धनकारी वे कर्म यहाँ, जो कर्म यज्ञ के हेतु न हो ।
हे कुन्तीपुत्र, आसक्ति त्याग, यज्ञार्थ कर्म भली भाँति करो ॥
यज्ञ के द्वारा, सृष्टि रचकर, प्रजापति ने वचन कहे ।
इससे वृद्धि को प्राप्त करो तुम, जो अभीष्ट हो, इससे मिले ॥
देवों को प्रसन्न करो इससे, वे देव प्रसन्नता देंगे तुम्हें ।
प्रसन्न परस्पर करने से, जो परम श्रेष्ठ, वह मिले तुम्हें ॥
यज्ञ से तृप्त देवतागण, देंगे जो तुमको अभीष्ट भोग ।
वह चोर, प्रदत्त वस्तुओं का, देवों को दिए बिन, करे भोग ॥
अवशिष्ट यज्ञ का करे ग्रहण, तो सभी पाप मिट जाते हैं ।
निज हेतु पकाते जो भोजन, वे पापी पाप ही खाते हैं ॥
अन्न से निर्मित प्राणी हों, वर्षा से अन्न का उत्पादन ।
यज्ञ से होती है वर्षा, कर्मों से यज्ञ का होता सृजन ॥
कर्म का उद्भव ब्रह्म से है, ब्रह्म को अक्षर से जानो ।
ब्रह्म सर्वव्यापी को तुम, यज्ञ में नित्य स्थित जानो ॥
इस भाँति प्रवर्तित कर्म चक्र का, पालन जो नहीं करता है ।
इन्द्रियासक्त, जो पाप में रत, वह व्यर्थ ही जीवन जीता है ॥
[Source: Geeta Chapter-3, कर्मयोग, Verse: 1-16]
Monday, December 23, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 2.5
समाधिस्थ उस स्थितप्रज्ञ के, लक्षण कैसे होते हैं ।
केशव, वे बात किस तरह करते, कैसे रहते, चलते हैं ॥
मन की सभी कामनाओं का, जब वे त्याग कर देते हैं ।
अपने आत्म में तृप्त हो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब कहते हैं ॥
दुःख में जो उद्विग्न न हों, स्पृहा से रहित सुख में रहते ।
हो राग नहीं, भय क्रोध न हो, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब हैं कहते ॥
शुभ पाकर होते नहीं हर्षित, अशुभ से द्वेष नहीं करते ।
अनासक्त सर्वत्र जो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही हैं कहते ॥
अपनी इन्द्रियाँ विषयों से, जो उसी प्रकार हटाते हैं ।
जैसे कछुआ अंग समेटे, स्थितप्रज्ञ कहलाते हैं ॥
विषयों के हट जाने पर भी, उनके रस में रहती रुचि ।
परम तत्त्व दर्शन करने पर, उसमें भी होती अरुचि ॥
ये इन्द्रियाँ, किन्तु हे अर्जुन, स्वभाव से उग्र ही होती हैं ।
विवेकशील व्यक्ति का मन भी, बलपूर्वक हर लेती हैं ॥
इन सबको संयम में लाकर, जो मेरे परायण रहते हैं ।
ये इन्द्रियाँ जिनके वश में हैं, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥
चिंतन विषयों का करने से, उनमें होती है आसक्ति ।
आसक्ति से बनती है कामना, उससे क्रोध की उत्पत्ति ॥
सम्मोह क्रोध से होता है, सम्मोह से होता स्मृतिनाश ।
उससे बुद्धि हो जाती नष्ट, जिससे होता है पूर्ण विनाश ॥
लेकिन जो संयमी होते हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ वश में हैं ।
विषयों के सेवन से भी वे, प्राप्त प्रसन्नता करते हैं ॥
प्रसाद प्राप्त कर लेने पर, मुक्ति दुःख से मिल जाती है ।
हो चित्त प्रसन्न, शीघ्र ही उनकी, बुद्धि स्थित हो जाती है ॥
जिसने मन को नहीं जीता है, भला उसको बुद्धि हो प्राप्त कहाँ ।
नहीं ध्यान करे, न मिले शान्ति, जो अशांत है, उसको सुख है कहाँ ॥
जैसे जल में बहती नाव को, वायु हर ले जाती है ।
जिस इन्द्रिय में है रमता मन, वह बुद्धि हर ले जाती है ॥
इसलिए विषयों से जो अपनी, इंद्रियों को वश कर लेते हैं ।
महाबाहो, जिनके वश में मन, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥
जो रात्रि सभी प्राणियों हेतु, उसमें वे संयमी जागते हैं ।
जिसमें जागते रहते प्राणी, रात्रि उसे वे मानते हैं ॥
परिपूर्ण समुद्र में जैसे नदियाँ, क्षोभ रहित हो करें प्रवेश ।
करती प्रवेश कामना जिसमें, वह शान्ति पाए, उसे नहीं क्लेश ॥
सभी कामनाओं को त्यागकर, जो स्पृहा से रहित रहते ।
नहीं ममता और अहंकार हो, शान्ति प्राप्त वो ही करते ॥
हे पार्थ, ये ब्राह्मी स्थिति है, इसको पाकर कभी मोह न हो ।
अन्तकाल में भी स्थित हो इसमें, निर्वाण प्राप्ति निश्चित हो ॥
[Source: Geeta Chapter - 2, सांख्य योग, Verse: 54-72]
Sunday, December 22, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 2.4
सांख्य तुम्हें अब तक बतलाया, बुद्धियोग अब करो श्रवण ।
इस ज्ञान को, पार्थ, समझने से, मिट जाएँ सकल कर्म बंधन ॥
होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥
निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥
स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥
इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥
तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥
जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥
कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
आसक्त न हो उनके फल में, अथवा उनको नहीं करने में ॥
आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
समता रहे सिद्धि असिद्धि में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥
बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं ।
बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥
बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को ।
योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥
बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग ।
निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥
मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे ।
सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥
होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥
निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥
स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥
इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥
तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥
जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥
कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
आसक्त न हो उनके फल में, अथवा उनको नहीं करने में ॥
आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
समता रहे सिद्धि असिद्धि में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥
बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं ।
बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥
बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को ।
योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥
बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग ।
निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥
मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे ।
सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥
सुनने से विरक्त हो बुद्धि, निश्चल जब हो जाएगी ।
[Source: Geeta Chapter-2, सांख्ययोग, Verse: 39-53]
कृष्णार्जुन संवाद - 2.3
अविभाज्य सनातन नित्य अचल, अव्यक्त है यह सर्वत्र स्थित ।
अचिन्त्य अविकारी, इसे जानकर, शोक तुम्हारे लिए अनुचित ॥
यदि नित्य इसको जन्मता, और नित्य मरता मानते ।
इसके लिए किसी शोक का, तब भी नहीं कारण तुम्हें ॥
जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित, मृत का है निश्चित जन्म ।
अपरिहार्य इस सम्बन्ध में, शोकातुर क्यों होते तुम॥
होते सभी अव्यक्त आदि में, मध्य में रूप करें धारण ।
अव्यक्त निधन हो जाने पर, नहीं शोक का है कोई कारण ॥
कोई देखे आश्चर्य से इसको, कोई आश्चर्य से इसे कहे ।
कोई आश्चर्य से सुनता है, कोई सुनने पर भी नहीं समझे ॥
सभी शरीरों में यह देही, नित्य अवध्य अवस्थित है ।
इसलिए सभी जीवों हेतु, यह शोक सर्वथा अनुचित है ॥
अपने धर्म का भी यदि सोचो, युद्ध से हटना उचित नहीं ।
धर्मयुद्ध से श्रेष्ठ जगत में, क्षत्रिय के लिए कुछ भी नहीं ॥
धर्मयुद्ध यदि नहीं करोगे, अपकीर्ति होना तय है ।
सज्जन को मृत्यु से ज्यादा, अपयश का होता भय है ॥
भय के कारण युद्ध से भागा, महारथी समझेंगे तुम्हें ।
सम्मानित जिन बीच हुए हो, वही तुच्छ समझेंगे तुम्हें ॥
नहीं कहने से वचन सुनाते, शत्रुओं को सुनना होगा ।
निंदा तेरे सामर्थ्य की होगी, उससे अधिक दुःख क्या होगा ॥
मर गए तो स्वर्ग को पाओगे, जीते तो धरा का राज्य मिले ।
इसलिए युद्ध का निश्चय कर, हे कुन्तीपुत्र, हो जाओ खड़े ॥
विजय पराजय, लाभ हानि को, एक समान समझ कर के ।
करने को युद्ध तत्पर होगे तो, पाप न कोई लगेगा तुम्हें ॥
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