Thursday, December 26, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 3.2


    आत्म में जिनकी प्रीति है, आत्म में तृप्ति है जिनको । 
    संतुष्ट आत्म में जो व्यक्ति, कर्त्तव्य कर्म नहीं उनको ॥ 

    ऐसा नहीं कुछ, जो उन्हें करना, जो नहीं करना, ऐसा भी नहीं । 
    सभी प्राणियों में उनको,  किसी हेतु भी आश्रय लेना नहीं ॥

    इसलिए त्याग आसक्ति को, भली भाँति निरन्तर कर्म करो । 
    आसक्ति रहित कर्मों से पुरुष को, परम लक्ष्य की प्राप्ति हो ॥

    जनक आदि को, कर्मों से ही, परम सिद्धि उपलब्ध हुई । 
    लोककल्याण की दृष्टि से भी, कर्म तुम्हारे लिए सही ॥ 

    श्रेष्ठ पुरुष करता जो आचरण, अन्य लोग अपनाते हैं । 
    वह जो प्रमाण कर देता है, वे उसको लक्ष्य बनाते हैं ॥ 

    हे पार्थ, कोई कर्त्तव्य नहीं, जो करना मुझे त्रिलोकी में । 
    कुछ पाना नहीं, नहीं करना त्याग, प्रवृत्त कर्म में फिर भी मैं ॥

    यदि सावधानी पूर्वक मैं, कर्म में प्रवृत्त न होऊँ कभी । 
    मेरे पथ का तब निश्चय ही, अनुकरण करेंगे लोग सभी ॥

    यदि कर्म का मैं परित्याग करूँ, हो जाएँगे सब लोग भ्रष्ट । 
    मुझ पर उसका सब होगा दोष, मुझ से होगी यह प्रजा नष्ट ॥ 

    आसक्त होकर कर्म में, संलग्न जैसे अज्ञानी । 
    लोकहित के भाव से, निष्काम कर्म करें ज्ञानी ॥

    कर्मों में आसक्त हैं जो, उनकी बुद्धि में भ्रम न करे । 
    भली भाँति कर्म करे ज्ञानी, नियुक्त कर्म में उन्हें करे ॥

    प्रकृति के गुणों के द्वारा, किए जाते हैं कर्म सभी । 
    अहंकार से मोहित जो, 'मैं कर्ता हूँ' माने फिर भी ॥ 

    गुणों व कर्मों के विभाग को, पार्थ, तत्त्व से जानते जो । 
    इन्द्रियाँ विषयों में रत हैं, पृथक स्वयं को मानते वो ॥

    प्राकृत गुणों से मूढ हुए जो, प्रीति गुणों कर्मों में करें ।
    जो मंदमति और ज्ञानशून्य, उन्हें ज्ञानवान विचलित न करें ॥

    [Source: Geeta Chapter-3, कर्मयोग, Verse: 17-29]

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