Wednesday, April 30, 2014

अणु की कहानी

ब्रह्माण्ड के विस्तार में, अणु की कहानी खो गई ।
कितने अणु हैं मिट गए, गुम उनकी वाणी हो गई ॥

पर ये अणु आये कहाँ से, गुम किधर ये हो गए ।
क्यूँ ये अचानक जाग कर के, फिर अचानक सो गए ॥

कुछ अणु मिलकर बड़े, रोशन सितारे हो गए ।
कुछ सितारे टूट कर, अणु ढेर सारे हो गए ॥

जिस खोज में ये भटकते, वह लक्ष्य इनका है कहाँ ।
आरम्भ जिसका है नहीं, हो अंत उसका फिर कहाँ ॥

क्या जानते हैं ये अणु, और जान कर के मस्त हैं ।
अथवा नहीं हैं जानते, और भय से ये भी त्रस्त हैं ॥

सीख ली है नृत्य की, अणु ने कहाँ से क्या पता ।
ब्रह्माण्ड में है राज कितने, कौन है सकता बता ॥

Tuesday, April 29, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 7

मेरे आश्रय हो योग करे, मुझमें आसक्त हो जैसे मन ।
जिससे मुझे पूर्णतः जाने, हे अर्जुन, अब उसको सुन ॥ 

पूर्ण रूप से कहूँगा तुमसे, ज्ञान मैं यह, विज्ञान सहित । 
जिसे जानकर, फिर नहीं रहता, शेष जानने को किंचित ॥ 

सहस्रों में कहीं कोई एक, सिद्धि के लिए यत्न करता ।
जो मुझको तत्त्व से जाने, ऐसा तो है कोई विरला  ॥ 

आकाश, अग्नि, भूमि, वायु, जल, अहंकार, मन और बुद्धि । 
इन आठ भिन्न रूपों वाली, हे भरतश्रेष्ठ, मेरी प्रकृति ॥ 

इस अपरा प्रकृति से अलग, जानो तुम मेरी परा प्रकृति । 
सब जीव उसी में, उसी में है, जग धारण करने की शक्ति ॥ 

सभी प्राणियों की उत्पत्ति, इन दोनों से हुई समझ ।
मैं सृष्टा हूँ, जग समग्र का, प्रलय का कर्त्ता मुझे समझ ॥

विद्यमान कुछ नहीं है ऐसा, मुझसे अधिक श्रेष्ठ जो हो ।
मुझमें सबकुछ ऐसे पिरोया, धागे में मणियाँ ज्यों हों ॥

जल में रस मैं हूँ, हे अर्जुन, सूर्य चन्द्र में ज्योति हूँ ।
शब्द हूँ नभ में, प्रणव वेद में, पुरुषों में पौरुष मैं हूँ ॥

मैं हूँ पुण्य गंध पृथ्वी में, और अग्नि में तेज हूँ मैं ।
जीवन सभी प्राणियों में हूँ, तपस्वियों में तप हूँ मैं ॥

निश्चित जानो अर्जुन तुम, भूतों का सनातन बीज हूँ मैं ।
बुद्धि हूँ बुद्धिमानों में और, तेजस्वियों में तेज हूँ मैं ॥

आसक्ति और कामना रहित, बलवानों में बल भी हूँ मैं ।
हे पार्थ जो धर्मविरुद्ध न हो, वह काम प्राणियों में हूँ मैं ॥

सात्त्विक भाव राजसिक एवं, भाव तामसिक जितने हैं ।
वे मुझसे हैं, ऐसा जानो, मैं उनमें नहीं, न वे मुझमें हैं ॥

इन तीन गुणों के भावों से, यह जग है पूरा ही मोहित ।
इस कारण जान नहीं पाते, मुझको अव्यय और गुणातीत ॥

तीन गुणों से युक्त ये मेरी, दैवी माया है दुस्तर ।
जो मेरा ही आश्रय लेते, वे इससे जाते हैं तर ॥

युक्त आसुरी भाव से जो, माया ने जिनका ज्ञान हरा ।
दुष्कर्म करें जो, मूढ़ नराधम, नहीं लेते आश्रय मेरा ॥

सुकृत करते, मुझको भजते, अर्जुन चार तरह के लोग ।
ज्ञानी अथवा जिज्ञासु, हो पीड़ित अथवा अर्थ का लोभ ॥

इन सबमें, हे अर्जुन मुझको, ज्ञानी बहुत ही प्यारा है ।
वह मुझमें स्थित है, उसको, केवल मेरा सहारा है ॥

कई जन्मों के अन्त में ज्ञानी, मुझे पूर्णतः पाते हैं ।
सब कुछ रूप है वासुदेव का,  नहीं सहज मिल पाते हैं ॥

कामना ज्ञान हरे जिनका,  वे अन्य देवता ध्याते हैं ।
प्रकृति उनकी होती जैसी, वैसे नियम अपनाते हैं ॥

श्रद्धा से परिपूर्ण हो करते, जिस जिस देव की वे भक्ति । 
दृढ़ उनकी श्रद्धा करता हूँ , उन्ही देवताओं के प्रति ॥

श्रद्धावान भक्त जब विधिवत, देवों का अर्चन करते ।
मेरे द्वारा दिए जो फल हैं,  प्राप्त उन्हीं को वे करते ॥

अल्प समझ है जिनकी, फल भी, उनके अन्त हो जाते हैं ।
देवभक्त पाते देवों को ,  मेरे भक्त, मुझे पाते हैं ॥

अव्यक्त व्यक्ति का रूप लिया , यह मानें जिनमें समझ नहीं ।
अव्यय जो, उत्कृष्ट है मेरा,  रूप परम का बोध नहीं ॥

योगमाया से रहता आवृत्त, सबको विदित नहीं होता ।
अज अव्यय मेरे स्वरूप का, मूढ़ को भान नहीं होता ॥ 

जो था अतीत, जो वर्तमान, जो होगा सबका मुझे ज्ञान ।
प्राणी समस्त हैं विदित मुझे, नहीं कोई जिसे हो मेरा ज्ञान ॥

प्राणी सभी सम्मोहित हैं, हैं आदिकाल से ग्रसित हुए ।
इच्छा और द्वेष से जन्मा जो, उस द्वंद्व मोह में लिप्त हुए ॥

जिनके पापों का अंत हुआ, और जो हैं पुण्य कर्म करते ।
मुक्त द्वन्द्व मोह से होते, दृढ़ता से मुझको भजते ॥

मेरा आश्रय ले यत्न करें, वृद्धत्व मृत्यु से मुक्ति को ।
अध्यात्म समझ पाते वे ही, समझ कर्म की हो उनको ॥

अधिभूत मुझे, अधिदैव मुझे, अधियज्ञ मुझे जानते जो ।
भले उपस्थित अंतकाल हो, मुझे जान लेते हैं वो ॥ 

[ Source: Geeta Chapter - 7 ]

Monday, April 28, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 6.3

समता रूप योग, मधुसूदन, आपने जो बतलाया है ।
चित्त की चंचलता विचारकर, संशय मन में आया है ॥

यह मन स्वभावतः चंचल है, सामर्थ्यवान और सुदृढ़ है ।
इसको वश में करना केशव, वायु विजय सा दुष्कर है ॥

निःसंदेह मन चंचल अर्जुन, सुगम नहीं निग्रह करना ।
अभ्यास और वैराग्य से किन्तु, सम्भव है वश में करना ॥

जिसका मन पर नहीं है संयम, योगप्राप्ति कठिन उसे ।
यत्नशील और संयत मन ही, करे उपाय से प्राप्त इसे ॥

जो श्रद्धायुक्त हो योग करे, हो मन पर संयम नहीं जिसे ।
हे कृष्ण, यदि सिद्धि नहीं मिलती, कैसी गति मिलती है उसे ॥

योग कर्म दोनों से विचलित, ब्रह्म के पथ से हो विक्षिप्त ।
क्या वह नष्ट नहीं हो जाता, जैसे मिटे मेघ खंडित ॥

आप ही हो केशव जो मेरा, संशय छेदन कर सकते ।
नहीं कोई भी सिवा आपके, संशय मेरा हर सकते ॥

शुभ कर्म किये जिसने उसका, इस लोक में होता नाश नहीं ।
परलोक में भी, हे अर्जुन, वह, दुर्गति को करता प्राप्त नहीं ॥

योगभ्रष्ट उत्तम लोकों में, दीर्घ समय तक वास करें ।
जो सदाचार से युक्त धनी, उनके घर जन्म को प्राप्त करें ॥

अथवा जन्म ग्रहण करते हैं, ज्ञानवान योगियों के घर ।
निःसंदेह इस लोक में होता, ऐसा जन्म, दुर्लभ अवसर ॥

पूर्व जन्म की बुद्धि उनको, वहाँ सहज सुलभ होती ।
सिद्धि प्राप्ति हेतु, अर्जुन, फिर प्रयत्न करते योगी ॥

भले विघ्न हों, पूर्वाभ्यास से, ब्रह्म के पथ में रुचि हो जाती ।
थोड़ी सी जिज्ञासा योग की, कर्ममार्ग से आगे बढ़ाती ॥

प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करते, पापरहित होते योगी ।
कई जन्मों में सिद्धि प्राप्त कर, पा लेते हैं परम गति ॥

तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी, ज्ञानीजनों से भी उत्तम ।
कर्मी से भी श्रेष्ठ है योगी, अतः पार्थ तू योगी बन ॥

श्रद्धा से जो मुझको भजते, आसक्त मुझमें जिनका मन ।
मेरे मत अनुसार, हे अर्जुन, सबसे श्रेष्ठ वे योगीजन ॥

[Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 33-47]

कृष्णार्जुन संवाद - 6.2