Tuesday, March 4, 2014

सौगंध मुझे इस माटी की

सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा, मैं देश नहीं झुकने दूँगा ।

यह धरती मुझ से पूछ रही, कब मेरा कर्ज चुकाओगे ।
अम्बर भी प्रश्न करे मुझसे, कब अपना फर्ज निभाओगे ॥
भारत माँ को है वचन मेरा, तेरा शीश नहीं झुकने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

वे लूट रहे हैं सपनों को, मैं चैन से कैसे सो जाऊँ ।
वे बेच रहे हैं भारत को, खामोश मैं कैसे हो जाऊँ ॥
हाँ मैंने कसम उठाई है, मैं देश नहीं बिकने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

वे जितना अँधेरा लाएँगे, मैं उतना उजाला लाऊँगा ।
वे जितनी रात बढ़ाएँगे,  मैं उतने सूर्य उगाऊँगा ॥
इस छल-फरेब की आंधी में, मैं दीप नहीं बुझने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

वे चाहते हैं, जागे न कोई, बस रात का कारोबार चले ।
वे नशा बाँटते रहें सदा, और देश यूँ ही बीमार चले ॥
पर जाग रहा है देश मेरा, निद्रा में नहीं गिरने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

अस्मिता पे माता बहनों की, लगी गिद्धों की कुदृष्टि है ।
पीड़ित शोषित और वंचित की, आशा पर होती वृष्टि है ॥
दुःख पीड़ा को झेला है बहुत, अब दर्दी नहीं उगने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

अब घड़ी फैसले की आई, हमने सौगंध है अब खाई।
अब तक जो समय गँवाया है, करनी उसकी है भरपाई ॥
नहीं भटकेंगे, नहीं अटकेंगे, मैं देश नहीं रुकने दूँगा ।
सौगंध मुझे इस माटी की,  मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥

[ This is a slightly modified version of this poem by Narendra Modi ]

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