Sunday, September 29, 2013

मंत्री की व्यथा



        युवराज के तीखे वचन सुने, मंत्रीवर उलझन में झूले ।
        ले रूप देहाती औरत का, अपने पद की गरिमा भूले ॥

        घर में कहते हैं चोर मुझे, सम्मान मगर बाहर पाता ।
        वह भी मुझसे है छीन लिया, हैं रूठे मुझसे विधाता ॥

        लेकिन मैं कुछ नहीं बोलूँगा, यह मुँह अपना नहीं खोलूँगा ।
        अब आदत सी हो गई मुझे,  इसको भी हँस कर सह लूँगा ॥

        सब दिन नहीं एक से होते हैं, जो आज हँसे कल रोते हैं ।
        दुःख पाकर नींद को भूले जो, सुख पाकर चैन से सोते हैं ॥

        ऐसे भी दिन हैं याद मुझे, बिन मांगे मोती जब थे मिले ।
        वह पाया जो नहीं सोचा कभी, था मन प्रसन्न, थे होंठ खिले ॥

        पूरे भारत का अधिपति बन, जब जय जयकार करे जन जन ।
        उस काल का जब करता हूँ स्मरण,  उत्साह मिले, प्रमुदित हो मन ॥

        विद्वान मुझे सब कहते थे, सब मुझ से प्रभावित रहते थे ।
        निष्कपट है यह सीधा साधा, ये वचन हवा में बहते थे ॥

        संगत की महिमा है भारी, इसलिए मित्र चुनो सुविचारी ।
        हतोत्साहित शल्य से हुए कर्ण,  अब संभव है मेरी बारी ॥




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