Sunday, January 6, 2013

यदि

   यदि तुम रख सकते धीरज, जब हर कोई हुआ अधीर ।
   दोषारोपण तुम पर कर के, कटु शब्दों के मारे तीर ।।
   यदि निज पर रख सकते श्रद्धा, जब तुम पर हो सबकी शंका ।
   ज्ञात नहीं हो तुमको कारण, क्यों सब हैं करते आशंका ।।
   यदि तुम कर सकते प्रतीक्षा, तन मन की थकान बिना ।
   सबकी झूठी बातें सुन भी,  सत्य बोलना तुमने चुना ।।
   यदि नहीं करते घृणा किसी से, यद्यपि घृणा हैं करते लोग ।
   अपनी श्रेष्ठता नहीं दिखाते, मन में होता है संकोच ।।
 
   यदि देख सकते तुम सपने, पर सपनों  के दास नहीं ।
   यदि विचार कर सकते मन में, ध्येय तुम्हारा विचार नहीं ।।
   यदि तुम रख सकते समता, जीत मिले या हार मिले ।
   दोनों एक समान समझते, बादल हों या धूप खिले ।।
   यदि तुममें सुनने की शक्ति, सीधी सच्ची बात तुम्हारी ।
   तोड़ मोड़ के गयी परोसी, उलझन पैदा करती भारी ।।
   यदि देख सकते हो ढहते, जिसे बनाते आयु गुजारी ।
   जीर्ण शीर्ण उपकरण जुटा कर, पुनर्निर्माण की यदि तैयारी ।।

   यदि तुम कर सकते संग्रह, जीवन भर जो कुछ भी कमाया ।
   यदि लगा सकते हो दाव पर, सारी पूँजी जो कुछ पाया ।।
   यदि हार जाने पर सबकुछ, कर सकते शुरुआत नई ।
   ना ही मन में ग्लानि करते, ना ही हार की बात कोई ।।
   यदि कर सकते हृदय को वश में, अंग अंग को नस नस को ।
   कि वे साथ तुम्हारा दें जब, हुए अचेतन वे सब हों ।।
   यदि रोक कर रख सकते हो, जीवन के अंतिम तृण को ।
   इच्छाशक्ति इतनी प्रबल हो, 'रुके रहो तुम' यह प्रण हो ।।

   यदि कर सकते बात हो सबसे, सदगुण अपने खोते नहीं ।
   राजा के संग चलते हुए भी, अपनी सरलता खोते नहीं ।।
   यदि प्रिय मित्र व्यथित नहीं करते, दुःखी नहीं करते शत्रु कोई।
   सबके लिए है सोच तुम्हारी, विशेष नहीं है परन्तु कोई ।।
   यदि भर सकते एक मिनट में, साठ क्षणों में जो दूरी चली ।
   दृढ़ संकल्प डिगा नहीं सकती, कोई परिस्थिति बुरी भली ।।
   यह पूरी वसुधा है तुम्हारी, वह सबकुछ जो इसमें हो ।
   हे पुत्र मेरे इन सबसे बढ़कर, तुम मानव हो, तुम मानव हो ।।

     
यह रुडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध 'IF' कविता का हिंदी में अनुवाद का मेरा प्रयत्न है|
उनकी मूल कृति यहाँ उपलब्ध है|
 
-- श्यामेंद्र सोलंकी

Saturday, January 5, 2013

आभार

      
   
           अदभुत कविता अदभुत रचना 
                लोगों ने कई 'वाह' दिए ।
           पुरस्कार में मफलर पाकर 
                मैंने मूँछ पे ताव दिए ।।

           क्या यह तुमने ही लिखी है 
                मित्र गणों ने किया सवाल ।
           यह भारत भूमि है बन्धु 
                किसी की मेहनत किसी को माल ।।

           दोस्त तेरी कविता की भाषा 
                मुझे समझ नहीं आई ।
           मातृभाषा अपनी पढ़ने में 
                होती है अब कठिनाई ।।

           कोशिश सरल शब्द चुनने की 
                कवि ने की है इस बारी ।
           अभिनन्दन है आप सभी का 
                मैं हूँ आपका आभारी ।।

                    -- श्यामेंद्र सोलंकी 

Thursday, January 3, 2013

बढे चलें हम

     
     सरल नहीं यह कार्य कठिन है 
         हम पर लगी हैं सभी निगाहें ।
     मीलों दूर है मंजिल अपनी 
         नयी बनानी होंगी राहें ।।

     धूमिल नभ है मार्ग है दुस्तर
         बाधाएं होंगी यह तय है ।
     सहनशीलता धैर्य बढ़ा लो 
         विपदाएं आने का भय है ।।

     विगत सभी त्रुटियों से बचकर 
         अहंकार ग्लानि को तजकर ।
     नए वर्ष में नयी उमंगें 
         नव संकल्पशक्ति को भरकर ।।

     साहसयुक्त बुद्धिकौशल से
         अथक परिश्रम पूर्ण लगन से ।
     ध्येय प्राप्ति को बढे चलें हम 
         अविचल निष्ठा पुलकित मन से ।।

                     श्यामेंद्र सोलंकी