सांख्य तुम्हें अब तक बतलाया, बुद्धियोग अब करो श्रवण ।
इस ज्ञान को, पार्थ, समझने से, मिट जाएँ सकल कर्म बंधन ॥
होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥
निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥
स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥
इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥
तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥
जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥
कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
आसक्त न हो उनके फल में, अथवा उनको नहीं करने में ॥
आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
समता रहे सिद्धि असिद्धि में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥
बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं ।
बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥
बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को ।
योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥
बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग ।
निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥
मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे ।
सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥
होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥
निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥
स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥
इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥
तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥
जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥
कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
आसक्त न हो उनके फल में, अथवा उनको नहीं करने में ॥
आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
समता रहे सिद्धि असिद्धि में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥
बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं ।
बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥
बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को ।
योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥
बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग ।
निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥
मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे ।
सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥
सुनने से विरक्त हो बुद्धि, निश्चल जब हो जाएगी ।
[Source: Geeta Chapter-2, सांख्ययोग, Verse: 39-53]
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