Sunday, December 22, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.4


    सांख्य तुम्हें अब तक बतलाया, बुद्धियोग अब करो श्रवण ।
    इस ज्ञान को, पार्थ, समझने से, मिट जाएँ सकल कर्म बंधन ॥

    होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
    इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥

    निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
    अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥

    स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
    ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥

    इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
    निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥

    तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
    निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥

    जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
    जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥

    कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
    आसक्त न हो उनके फल में, अथवा उनको नहीं करने में ॥

    आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
    समता रहे सिद्धि असिद्धि  में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥

    बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं । 
    बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥ 

    बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को । 
    योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥ 

    बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग । 
    निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥ 

    मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे । 
    सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥ 

    सुनने से विरक्त हो बुद्धि,  निश्चल जब हो जाएगी । 
    समाधि में अचल स्थापित, योग को प्राप्त कराएगी ॥ 

    [Source: Geeta Chapter-2, सांख्ययोग, Verse: 39-53]

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