इस अविनाशी योग को मैंने, सूर्य को सबसे पहले कहा ।
सूर्य ने इसको कहा मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा ॥
परम्परा से प्राप्त योग यह, राजर्षियों को ज्ञात हुआ ।
बहुत समय हो जाने से यह, लगभग यहाँ समाप्त हुआ ॥
वही पुरातन योग आज यह, मैंने तुमको बतलाया ।
भक्त हो मेरे, मित्र हो तुम, उत्तम रहस्य को समझाया ॥
आपका जन्म तो अभी हुआ है, सूर्य तो बहुत पुराना है ।
किस प्रकार मैं जानूँ सूर्य ने, योग को आपसे जाना है ॥
बहुत से मेरे जन्म हो चुके, हुए हैं जन्म तुम्हारे भी ।
मुझको सब है ज्ञात, पार्थ तुम, नहीं जानते हो कुछ भी ॥
अजन्मा हूँ अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ प्राणियों सबका ।
अवलम्बन प्रकृति का ले, अपनी माया से प्रकट होता ॥
जब जब भी है धर्म की हानि, होती, भारत, इस जग में।
वृद्धि अधर्म की होती है, लेता तब तब अवतार हूँ मैं ॥
सज्जनों की रक्षा के लिए, नष्ट दुर्जनों को करने ।
धर्म की स्थापना हेतु, होता हूँ प्रकट मैं हर युग में ॥
जन्म और कर्म हैं दिव्य मेरे, इसको जो तत्व से जानता है ।
पुनर्जन्म उसका नहीं होता, प्राप्त मुझे वह करता है ॥
क्रोध राग और भय से रहित जो, मेरी शरण में आते हैं ।
हो ज्ञान रूप तप से पवित्र, मेरी भक्ति को पाते हैं ॥
जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं उनको वैसे भजता ।
हे पार्थ सभी व्यक्ति करते हैं, अनुसरण मेरे पथ का ॥
कर्म के फल को चाहने वाले, पूजन करते देवों का ।
मनुष्य लोक में शीघ्र है मिलता, कर्म किये जो, फल उनका ॥
गुण और कर्मों के विभाग से, चार वर्ण हैं मैंने रचे ।
उनका कर्त्ता होते हुए भी, अकर्त्ता अव्यय समझो मुझे ॥
कर्म लिप्त नहीं करते मुझे, नहीं मेरी उनके फल में स्पृहा ।
जो इस प्रकार जानता मुझको, कर्मों से वह नहीं बंधता ॥
यह जानकर करते थे कर्म, मुमुक्षु पूर्वकाल में भी ।
किये थे कर्म उन्होंने जैसे, अर्जुन, कर्म करो तुम भी ॥
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 1-15]
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