Saturday, December 28, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 4.1


    इस अविनाशी योग को मैंने, सूर्य को सबसे पहले कहा । 
    सूर्य ने इसको कहा मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा ॥ 

    परम्परा से प्राप्त योग यह, राजर्षियों को ज्ञात हुआ । 
    बहुत समय हो जाने से यह, लगभग यहाँ समाप्त हुआ ॥ 

    वही पुरातन योग आज यह, मैंने तुमको बतलाया । 
    भक्त हो मेरे, मित्र हो तुम, उत्तम रहस्य को समझाया ॥ 

    आपका जन्म तो अभी हुआ है, सूर्य तो बहुत पुराना है । 
    किस प्रकार मैं जानूँ सूर्य ने, योग को आपसे जाना है ॥ 

    बहुत से मेरे जन्म हो चुके, हुए हैं जन्म तुम्हारे भी । 
    मुझको सब है ज्ञात, पार्थ तुम, नहीं जानते हो कुछ भी ॥ 

    अजन्मा हूँ अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ प्राणियों सबका । 
    अवलम्बन प्रकृति का ले, अपनी माया से प्रकट होता ॥ 

    जब जब भी है धर्म की हानि, होती, भारत, इस जग में। 
    वृद्धि अधर्म की होती है, लेता तब तब अवतार हूँ मैं ॥ 

    सज्जनों की रक्षा के लिए, नष्ट दुर्जनों को करने । 
    धर्म की स्थापना हेतु, होता हूँ प्रकट मैं हर युग में ॥ 

    जन्म और कर्म हैं दिव्य मेरे, इसको जो तत्व से जानता है । 
    पुनर्जन्म उसका नहीं होता, प्राप्त मुझे वह करता है ॥ 

    क्रोध राग और भय से रहित जो, मेरी शरण में आते हैं । 
    हो ज्ञान रूप तप से पवित्र, मेरी भक्ति को पाते हैं ॥ 

    जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं उनको वैसे भजता । 
    हे पार्थ सभी व्यक्ति करते हैं, अनुसरण मेरे पथ का ॥ 

    कर्म के फल को चाहने वाले, पूजन करते देवों का । 
    मनुष्य लोक में शीघ्र है मिलता, कर्म किये जो, फल उनका ॥ 

    गुण और कर्मों के विभाग से, चार वर्ण हैं मैंने रचे । 
    उनका कर्त्ता होते हुए भी, अकर्त्ता अव्यय समझो मुझे ॥ 

    कर्म लिप्त नहीं करते मुझे, नहीं मेरी उनके फल में स्पृहा ।
    जो इस प्रकार जानता मुझको, कर्मों से वह नहीं बंधता ॥ 

    यह जानकर करते थे कर्म, मुमुक्षु पूर्वकाल में भी । 
    किये थे कर्म उन्होंने जैसे, अर्जुन, कर्म करो तुम भी ॥ 

    [Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 1-15] 

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