Tuesday, December 24, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 3.1


    बुद्धि श्रेष्ठ यदि कर्म से, केशव, घोर कर्म क्यों मुझसे कराते । 
    जो हितकर हो, एक बताओ, आपके वचन समझ नहीं आते ॥ 

    इस लोक में निष्ठा, दो भाँति की, मेरे वचन जैसे दर्शाते । 
    ज्ञानयोग को सांख्य उपासक, योगी कर्मयोग अपनाते ॥ 

    आरम्भ रोककर कर्मों का, नैष्कर्म्य अवस्था मिलती नहीं ।
    कर्मों के परित्याग मात्र से, सिद्धि प्राप्त हो सकती नहीं ॥ 

    किसी काल में, कोई न रहता, कर्म किये बिन, क्षण भर भी । 
    वश हो, स्वभाव से प्राप्त गुणों के, प्रवृत्त कर्म में होते सभी ॥

    कर्मेन्द्रियों को वश में रखकर, संयम अपना दिखलाता । 
    मन से करे विषयों का स्मरण, वह मिथ्याचारी कहलाता ॥ 

    इन्द्रियों को मन से वश में कर, जो प्रवृत्त कर्म में होता है ।
    फल में आसक्ति नहीं जिसको, वह श्रेष्ठ सभी में होता है ॥ 

    जो शास्त्र विहित वे कर्म करो, अकर्म से कर्म श्रेष्ठतर है । 
    यदि कर्मों का कर दोगे त्याग, तन का निर्वाह भी दुष्कर है ॥ 

    बन्धनकारी वे कर्म यहाँ, जो कर्म यज्ञ के हेतु न हो । 
    हे कुन्तीपुत्र, आसक्ति त्याग, यज्ञार्थ कर्म भली भाँति करो ॥ 

    यज्ञ के द्वारा, सृष्टि रचकर, प्रजापति ने वचन कहे । 
    इससे वृद्धि को प्राप्त करो तुम, जो अभीष्ट हो, इससे मिले ॥ 

    देवों को प्रसन्न करो इससे, वे देव प्रसन्नता देंगे तुम्हें । 
    प्रसन्न परस्पर करने से, जो परम श्रेष्ठ, वह मिले तुम्हें ॥

    यज्ञ से तृप्त देवतागण, देंगे जो तुमको अभीष्ट भोग । 
    वह चोर, प्रदत्त वस्तुओं का, देवों को दिए बिन, करे भोग ॥

    अवशिष्ट यज्ञ का करे ग्रहण, तो सभी पाप मिट जाते हैं । 
    निज हेतु पकाते जो भोजन, वे पापी पाप ही खाते हैं ॥ 

    अन्न से निर्मित प्राणी हों, वर्षा से अन्न का उत्पादन । 
    यज्ञ से होती है वर्षा, कर्मों से यज्ञ का होता सृजन ॥ 

    कर्म का उद्भव ब्रह्म से है, ब्रह्म को अक्षर से जानो । 
    ब्रह्म सर्वव्यापी को तुम, यज्ञ में नित्य स्थित जानो ॥

    इस भाँति प्रवर्तित कर्म चक्र का, पालन जो नहीं करता है । 
    इन्द्रियासक्त, जो पाप में रत, वह व्यर्थ ही जीवन जीता है ॥

    [Source: Geeta Chapter-3, कर्मयोग, Verse: 1-16]


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