कृष्णार्जुन संवाद


    [अध्याय 1]  
                                        1
                                     
    हनुमान थे ध्वज पर चिन्हित, हाथ धनुष गांडीव सबल। 
    देवदत्त की पांचजन्य की, शंख ध्वनि थी बड़ी प्रबल ॥  

    मधुसूदन रथ आगे बढ़ाओ, मुझे करना अवलोकन है । 
    मेरे पक्ष में कौन खड़े हैं, करना किस से मुझे रण है ॥ 

    समर क्षेत्र के बीच पहुँच, अर्जुन करते हैं अवलोकन । 
    पिता समान कई योद्धा हैं, कई हैं मित्र और कई स्वजन ॥

    सूख रहा मेरा मुख केशव,  काँप रहा मेरा तन है । 
    धनुष हाथ से छूट रहा,  जल रही त्वचा,  विचलित मन है॥ 

    नहीं दिखता कोई हित मुझको, स्वजनों के संहार में । 
    रुचि नहीं कोई विजय पाने में, सुख में ना साम्राज्य में॥ 

    तुच्छ है सत्ता, तुच्छ भोग है, तुच्छ है जीवन का विस्तार।  
    इन सबकी जिन हेतु कामना, युद्ध भूमि पर है परिवार ॥

    इनके वध की नहीं है इच्छा, भले करें ये मुझ पर वार ।
    तीन लोक मिल जाने पर भी,  बन्धु हनन नहीं स्वीकार ॥  

    आततायी यद्यपि ये लोग हैं, फिर भी इनका वध है पाप ।
    स्वजनों के संहार के भय से, होता है मन में संताप ॥ 

    लोभ के वश ये नहीं देखते, मित्र द्रोह भारी अपराध ।
    हमें समझ है, हम किस हेतु, निज कुल क्षय में देवें साथ ॥ 

    कैसी विचित्र परिस्थिति माधव, इसमें भूल हमारी है।
    राज्य सुखों की तृष्णा वश, विध्वंस की अब तैयारी है ॥


    [अध्याय 2]

                                           2.1

    सजल नेत्र, विषाद से व्याकुल, मित्र को माधव समझाते ।
    इस विषम समय में, किस हेतु, तुम मोह में स्वयं को उलझाते ॥

    इस नपुंसकता का त्याग करो, यह मोह तुम्हारे यश को हरे ।
    दुर्बलता हृदय की छोड़ो तुम, हे परम वीर हो जाओ खड़े ॥

    पूज्य भीष्म और द्रोण हैं इन पर, किस विधि बाण चलाऊँगा ।
    मधुसूदन बतलाओ तुम ही, मैं कैसे युद्ध कर पाऊँगा ॥

    भिक्षा के अन्न से जीवन के, निर्वाह में ही मेरा हित है ।
    इन महापुरुषों के वध से मिली, संपत्ति रक्त से रंजित है ॥

    पराजय हो या मिले विजय, नहीं दोनों में ही लाभ कोई ।
    नहीं चाहते जिनके बिन जीवन, हैं युद्ध में सम्मुख खड़े वही ॥

    कायरता से अभिभूत हुआ, निज धर्म विषय में मोहित हूँ ।
    जो हितकर हो, वह शिक्षा दो, मैं शिष्य तुम्हारी शरण में हूँ ॥

    निष्कंटक राज्य हो पृथ्वी का, देवों का भी स्वामित्व मिले ।
    ऐसा नहीं कोई उपाय सुलभ, जो प्रबल शोक मेरा हर ले ॥

    'मैं युद्ध नहीं करूँगा' कह, जब अर्जुन चुप हो जाते हैं ।
    शोकातुर मित्र को हँसते हुए, श्रीकृष्ण ये वचन सुनाते हैं ॥

    जो शोक करने के योग्य नहीं, उनका तुम शोक मनाते हो ।
    भाषा पंडित सी कहते हो, व्यवहार नहीं अपनाते हो ॥

    करते नहीं पंडित शोक कोई, उनके लिए जिनमें प्राण नहीं ।
    जो प्राणवान हैं, उनके लिए भी, शोक का कोई विधान नहीं ॥

                                        2.2
                                     
    नहीं काल हुआ था ऐसा कभी, मैं जिसमें नहीं था, तुम थे नहीं ।
    आगे भी ऐसा होगा नहीं, जिस काल में हम सब होंगे नहीं ॥

    इस देह में जैसे मिलती है, बालक यौवन वृद्धावस्था ।
    देह अन्य उसी भांति प्राप्त हो, मोह न करते धीरव्रता ॥

    इन्द्रियों और विषयों के मेल से, शीत उष्ण सुख दुःख का सृजन ।
    आने जाने वाले ये, अनित्य हैं, इनको कर लो सहन ॥

    सुख दुःख को एक समान समझ, विचलित नहीं इनसे होता है ।
    हे पुरुषोत्तम, वह धीर पुरुष ही, योग्य मोक्ष के होता है ॥

    नहीं असत् वस्तु की है सत्ता, सत् वस्तु का है अभाव नहीं ।
    जो तत्व समझने वाले हैं, उन सबका है निष्कर्ष यही ॥

    जिससे यह सबकुछ व्याप्त हुआ, उसको तुम जानो अविनाशी ।
    विनाश करे उस अव्यय का, नहीं किसी में इतनी बलराशि ॥

    ये देह नष्ट हो जाते हैं, नहीं वो जो इन्हें धारण करता ।
    इसलिये हे भारत युद्ध करो, वो असीमित है, वो नहीं मरता ॥

    कोई मारने वाला समझे इसे, कोई मरने वाला मानता है ।
    दोनों इसको नहीं जानते हैं, न ये मरता है न ही मारता है ॥

    यह अति पुरातन, नित्य शाश्वत,  जन्मता मरता नहीं ।
    फिर फिर से है नहीं उपजता, देह नाश से मिटता नहीं ॥

    इस अज अविनाशी अव्यय को, हे पार्थ, जो पुरुष समझता है ।
    कैसे वह किसी का वध करता,  कैसे वध करवा सकता है ॥

    जैसे नर जर्जर वस्त्र त्याग, नूतन वस्त्रों को करे धारण ।
    वैसे ही जर्जर देह त्याग,  देही नव देह करे धारण ॥  

    नहीं छेद सकते शस्त्र इसको, अग्नि से नहीं यह जले ।
    वायु सुखा सकता नहीं, गीला नहीं जल कर सके ॥

                                 2.3

    अविभाज्य सनातन नित्य अचल, अव्यक्त है यह सर्वत्र स्थित ।
    अचिन्त्य अविकारी, इसे जानकर, शोक तुम्हारे लिए अनुचित ॥

    यदि नित्य इसको जन्मता, और नित्य मरता मानते  ।
    इसके लिए किसी शोक का, तब भी नहीं कारण तुम्हें ॥

    जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित, मृत का है निश्चित जन्म ।
    अपरिहार्य इस सम्बन्ध में,  फिर शोक क्यों करते हो तुम ॥

    होते सभी अव्यक्त आदि में, मध्य में रूप करे धारण ।
    अव्यक्त निधन हो जाने पर, नहीं शोक का है कोई कारण ॥

    कोई देखे आश्चर्य से इसको, कोई आश्चर्य से इसे कहे ।
    कोई आश्चर्य से सुनता है, कोई सुनने पर भी नहीं समझे ॥

    सभी शरीरों में यह देही, नित्य अवध्य अवस्थित है ।
    इसलिए सभी जीवों के लिए, यह शोक सर्वथा अनुचित है ॥

    अपने धर्म का भी यदि सोचो, युद्ध से हटना उचित नहीं ।
    धर्मयुद्ध से श्रेष्ठ जगत में, क्षत्रिय के लिए कुछ भी नहीं ॥

    धर्मयुद्ध यदि नहीं करोगे, अपकीर्ति होना तय है ।
    सज्जन को मृत्यु से ज्यादा, अपयश का होता भय है ॥

    भय के कारण युद्ध से भागा, महारथी समझेंगे तुम्हें ।
    सम्मानित जिन बीच हुए हो, वही तुच्छ समझेंगे तुम्हें ॥

    नहीं कहने से वचन सुनाते,  शत्रुओं को सुनना होगा ।
    निंदा तेरे सामर्थ्य की होगी, उससे अधिक दुःख क्या होगा ॥

    मर गए तो स्वर्ग को पाओगे, जीते तो धरा का राज्य मिले ।
    इसलिए युद्ध का निश्चय कर, हे कुन्तीपुत्र, हो जाओ खड़े ॥

    विजय पराजय, लाभ हानि को, एक समान समझ कर के ।
    करने को युद्ध तत्पर होगे तो,  पाप न कोई लगेगा तुम्हें ॥

                                  2.4

    सांख्य तुम्हें अब तक बतलाया, बुद्धियोग अब करो श्रवण ।
    इस ज्ञान को, पार्थ, समझने से, मिट जाएँ सकल कर्म बंधन ॥

    होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
    इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥

    निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
    अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥

    स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
    ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥

    इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
    निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥

    तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
    निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥

    जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
    जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥

    कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
    आसक्त न हो उनके फल में, ना ही उनको नहीं करने में ॥

    आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
    समता रहे सिद्धि असिद्धि  में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥

    बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं । 
    बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥ 

    बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को । 
    योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥ 

    बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग । 
    निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥ 

    मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे । 
    सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥ 

    सुनने से विरक्त हो बुद्धि,  निश्चल जब हो जाएगी । 
    अचल समाधि में हो स्थापित, योग को प्राप्त कराएगी ॥ 

                                2.5

    समाधिस्थ उस स्थितप्रज्ञ के, लक्षण कैसे होते हैं । 
    केशव, वे बात किस तरह करते, कैसे रहते, चलते हैं ॥ 

    मन की सभी कामनाओं का, जब वे त्याग कर देते हैं । 
    अपने आत्म में तृप्त हो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब कहते हैं ॥ 

    दुःख में जो उद्विग्न न हों, स्पृहा से रहित सुख में रहते । 
    हो राग नहीं, भय क्रोध न हो, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब हैं कहते ॥ 

    शुभ पाकर होते नहीं हर्षित, अशुभ से द्वेष नहीं करते । 
    अनासक्त सर्वत्र जो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही हैं कहते ॥ 

    अपनी इन्द्रियाँ विषयों से, जो उसी प्रकार हटाते हैं । 
    जैसे कछुआ अंग समेटे, स्थितप्रज्ञ कहलाते हैं ॥ 

    विषयों के हट जाने पर भी, उनके रस में रहती रुचि । 
    परम तत्त्व दर्शन करने पर, उसमें भी होती अरुचि ॥ 

    ये इन्द्रियाँ, किन्तु हे अर्जुन, स्वभाव से उग्र ही होती हैं । 
    विवेकशील व्यक्ति का मन भी, बलपूर्वक हर लेती हैं ॥ 

    इन सबको संयम में लाकर, जो मेरे परायण रहते हैं । 
    ये इन्द्रियाँ जिनके वश में हैं, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥ 

    चिंतन विषयों का करने से, उनमें होती है आसक्ति । 
    आसक्ति से बनती है कामना, उससे क्रोध की उत्पत्ति ॥ 

    सम्मोह क्रोध से होता है, सम्मोह से होता स्मृतिनाश । 
    उससे बुद्धि हो जाती नष्ट, जिससे होता है पूर्ण विनाश ॥ 

    लेकिन जो संयमी होते हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ वश में हैं । 
    विषयों के सेवन से भी वे, प्राप्त प्रसन्नता करते हैं ॥ 

    प्रसाद प्राप्त कर लेने पर, मुक्ति दुःख से मिल जाती है । 
    हो चित्त प्रसन्न, शीघ्र ही उनकी, बुद्धि स्थित हो जाती है ॥ 

    जिसने मन को नहीं जीता है, भला उसको बुद्धि हो प्राप्त कहाँ । 
    नहीं ध्यान करे, न मिले शान्ति, जो अशांत है, उसको सुख है कहाँ ॥ 

    जैसे जल में बहती नाव को, वायु हर ले जाती है । 
    जिस इन्द्रिय में है रमता मन, वह बुद्धि हर ले जाती है ॥ 

    इसलिए विषयों से जो अपनी, इंद्रियों को वश कर लेते हैं । 
    महाबाहो, जिनके वश में मन, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥ 

    जो रात्रि सभी प्राणियों हेतु, उसमें वे संयमी जागते हैं । 
    जिसमें जागते रहते प्राणी, रात्रि उसे वे मानते हैं ॥ 

    परिपूर्ण समुद्र में जैसे नदियाँ, क्षोभ रहित हो करें प्रवेश । 
    करती प्रवेश कामना जिसमें, वह शान्ति पाए, उसे नहीं क्लेश ॥ 

    सभी कामनाओं को त्यागकर, जो स्पृहा से रहित रहते । 
    नहीं ममता और अहंकार हो, शान्ति प्राप्त वो ही करते ॥  

    हे पार्थ, ये ब्राह्मी स्थिति है, इसको पाकर कभी मोह न हो । 
   अन्तकाल में भी इसमें स्थित, निर्वाण प्राप्ति निश्चित हो ॥ 

                     
   [अध्याय - 3] 

                                       3.1


    बुद्धि श्रेष्ठ यदि कर्म से, केशव, घोर कर्म क्यों मुझसे कराते । 
    जो हितकर हो, एक बताओ, आपके वचन समझ नहीं आते ॥ 

    इस लोक में निष्ठा, दो भाँति की, मेरे वचन जैसे दर्शाते । 
    ज्ञानयोग को सांख्य उपासक, योगी कर्मयोग अपनाते ॥ 

    आरम्भ रोककर कर्मों का, नैष्कर्म्य अवस्था मिलती नहीं ।
    कर्मों के परित्याग मात्र से, सिद्धि प्राप्त हो सकती नहीं ॥ 

    किसी काल में, कोई न रहता, कर्म किये बिन, क्षण भर भी । 
    स्वभाव से प्राप्त गुणों के वश हो, प्रवृत्त कर्म में होते सभी ॥

    कर्मेन्द्रियों को वश में रखकर, संयम अपना दिखलाता । 
    मन से करे विषयों का स्मरण, वह मिथ्याचारी कहलाता ॥ 

    इंद्रियों को मन से वश में कर, जो प्रवृत्त कर्म में होता है ।
    फल में आसक्ति नहीं जिसको, वह श्रेष्ठ सभी में होता है ॥ 

    जो शास्त्र विहित वे कर्म करो, अकर्म से कर्म श्रेष्ठतर है । 
    यदि कर्मों का कर दोगे त्याग, तन का निर्वाह भी दुष्कर है ॥ 

    बन्धनकारी वे कर्म यहाँ, जो कर्म यज्ञ के हेतु न हो । 
    हे कुन्तीपुत्र, आसक्ति त्याग, यज्ञार्थ कर्म भली भाँति करो ॥ 

    यज्ञ के द्वारा, सृष्टि रचकर, प्रजापति ने वचन कहे । 
    इससे वृद्धि को प्राप्त करो तुम, जो अभीष्ट हो, इससे मिले ॥ 

    देवों को प्रसन्न करो इससे, वे देव प्रसन्नता देंगे तुम्हें । 
    प्रसन्न परस्पर करने से, जो परम श्रेष्ठ, वह मिले तुम्हें ॥

    यज्ञ से तृप्त देवतागण, देंगे जो तुमको अभीष्ट भोग । 
    वह चोर, प्रदत्त वस्तुओं का, देवों को दिए बिन, करे भोग ॥

    अवशिष्ट यज्ञ का करे ग्रहण, तो सभी पाप मिट जाते हैं । 
    निज हेतु पकाते जो भोजन, वे पापी पाप ही खाते हैं ॥ 

    अन्न से निर्मित प्राणी हों, वर्षा से अन्न का उत्पादन । 
    यज्ञ से होती है वर्षा, कर्मों से यज्ञ का होता सृजन ॥ 

    कर्म का उद्भव ब्रह्म से है, ब्रह्म को अक्षर से जानो । 
    ब्रह्म सर्वव्यापी को तुम, यज्ञ में नित्य स्थित जानो ॥

    इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का, पालन जो नहीं करता है । 
    इन्द्रियासक्त, जो पाप में रत, वह व्यर्थ ही जीवन जीता है ॥ 

                               3.2


    आत्म में जिनकी प्रीति है, आत्म में तृप्ति है जिनको । 
    संतुष्ट आत्म में जो व्यक्ति, कर्त्तव्य कर्म नहीं उनको ॥ 

    ऐसा नहीं कुछ, जो उन्हें करना, जो नहीं करना, ऐसा भी नहीं । 
    सभी प्राणियों में उनको,  किसी हेतु भी आश्रय लेना नहीं ॥

    इसलिए त्याग आसक्ति को, भली भाँति निरन्तर कर्म करो । 
    आसक्ति रहित कर्मों से पुरुष को, परम लक्ष्य की प्राप्ति हो ॥

    जनक आदि को, कर्मों से ही, परम सिद्धि उपलब्ध हुई । 
    लोककल्याण की दृष्टि से भी, कर्म तुम्हारे लिए सही ॥ 

    श्रेष्ठ पुरुष के आचरण को, अन्य लोग अपनाते हैं । 
    वह जो प्रमाण कर देता है, वे उसको लक्ष्य बनाते हैं ॥

    हे पार्थ, कोई कर्त्तव्य नहीं, जो करना मुझे त्रिलोकी में । 
    कुछ पाना नहीं, नहीं करना त्याग, प्रवृत्त कर्म में फिर भी मैं ॥

    यदि सावधानी पूर्वक मैं, कर्म में प्रवृत्त न होऊँ कभी । 
    मेरे पथ का तब निश्चय ही, अनुकरण करेंगे लोग सभी ॥

    यदि कर्म का मैं परित्याग करूँ, हो जाएँगे सब लोग भ्रष्ट । 
    मुझ पर उसका सब होगा दोष, मुझ से होगी यह प्रजा नष्ट ॥ 

    आसक्त होकर कर्म में, संलग्न जैसे अज्ञानी । 
    लोकहित के भाव से, निष्काम कर्म करें ज्ञानी ॥

    कर्मों में आसक्त हैं जो, उनकी बुद्धि में भ्रम न करे । 
    भली भाँति कर्म करे ज्ञानी, नियुक्त कर्म में उन्हें करे ॥

    प्रकृति के गुणों के द्वारा, किए जाते हैं कर्म सभी । 
    अहंकार से मोहित जो, 'मैं कर्ता हूँ' माने फिर भी ॥ 

    गुणों व कर्मों के विभाग को, पार्थ, तत्त्व से जानते जो । 
    इन्द्रियाँ विषयों में रत हैं, पृथक स्वयं को मानते वो ॥

    प्राकृत गुणों से मूढ हुए जो, प्रीति गुणों कर्मों में करें ।
    जो मंदमति और ज्ञानशून्य, उन्हें ज्ञानवान विचलित न करें ॥ 

                                    3.3

    धारण अध्यात्म चित्तवृत्ति कर, सब कर्म समर्पित मुझमें करो । 
    आशा ममता का करो त्याग, तुम शोकरहित हो युद्ध करो ॥ 

    अनुसरण मेरे इस मत का, मानव नित्य जो करते हैं । 
    वे श्रद्धावान असूया रहित, कर्मों से निश्चित तरते हैं ॥ 

    लेकिन जो व्यक्ति असूया वश, मेरे मत को नहीं अपनाते ।
    वे ज्ञान से मूढ़, विवेक रहित, उनके पुरुषार्थ व्यर्थ जाते ॥

    ज्ञानवान भी चेष्टा करते, जैसा हो स्वभाव उनका ।
    संचालित प्रकृति से प्राणी, निग्रह से हो सिद्धि क्या ॥

    अवश्यम्भावी है राग द्वेष, इन्द्रियों का अपने विषयों में ।
    इन दोनों के आधीन न हो, ये बाधा साधक के पथ में ॥

    स्वधर्म का पालन भले, परिपक्वता से हो रहित।
                 परधर्म के भलीभाँति पालन, से परन्तु श्रेष्ठ है ।
    निज धर्म पथ में हो निधन, कल्याणकारी किन्तु वह ।
                 परधर्म के निर्वाह में, भय है बहुत, अति क्लेश है ॥ 

    किससे प्रेरित होकर, माधव, पापकर्म यह पुरुष करे ।
    नहीं चाहते हुए भी बलवश, कौन नियोजित इसे करे ॥

    यह काम एवं क्रोध, अर्जुन, रजोगुण से हो उदय ।
    भक्षक, नहीं अघाने वाला, पापी बड़ा, वैरी है यह ॥

    धुएँ से अग्नि आच्छादित, धूल से दर्पण जैसे ढके ।
    हो आवृत गर्भ जरायु से, उसी तरह यह ज्ञान ढके ॥

    कभी नहीं बुझती जो अग्नि, काम का रूप भी है ऐसा ।
    ज्ञानी का यह नित्य है वैरी, ज्ञान को, अर्जुन, इसने ढका ॥

    इन्द्रियाँ मन बुद्धि इसके, आश्रय स्थल जाते हैं कहे ।
    इनके द्वारा ज्ञान को ढक कर, मोहित यह देही को करे ॥

    अतएव सबसे प्रथम, अर्जुन, इन्द्रियों को तुम वश में करो ।
    जो नष्ट ज्ञान विज्ञान करे, इस काम को तुम विनष्ट करो ॥ 

    इन्द्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता, इन इन्द्रियों से भी मन है श्रेष्ठ ।
    मन से भी बुद्धि श्रेष्ठतर है, पर वह है बुद्धि से भी श्रेष्ठ ॥

    जान उसे बुद्धि से श्रेष्ठ, तुम बुद्धि से मन को वश में करो ।
    काम, जो नहीं अघाए कभी, उस शत्रु को, अर्जुन, नष्ट करो ॥

  [अध्याय - 4]

                                  4.1


    इस अविनाशी योग को मैंने, सूर्य को सबसे पहले कहा ।
    सूर्य ने इसको कहा मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा ॥

    परम्परा से प्राप्त योग यह, राजर्षियों को ज्ञात हुआ ।
    बहुत समय हो जाने से यह, लगभग यहाँ समाप्त हुआ ॥

    वही पुरातन योग आज यह, मैंने तुमको बतलाया ।
    भक्त हो मेरे, मित्र हो तुम, उत्तम रहस्य को समझाया ॥

    आपका जन्म तो अभी हुआ है, सूर्य तो बहुत पुराना है ।
    किस प्रकार मैं जानूँ सूर्य ने, योग को आपसे जाना है ॥

    बहुत से मेरे जन्म हो चुके, हुए हैं जन्म तुम्हारे भी ।
    मुझको सब है ज्ञात, पार्थ तुम, नहीं जानते हो कुछ भी ॥

    अजन्मा हूँ अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ प्राणियों सबका ।
    लेकर प्रकृति का अवलम्बन, अपनी माया से प्रकट होता ॥

    जब जब भी है धर्म की हानि, होती, भारत, इस जग में।
    वृद्धि अधर्म की होती है, लेता तब तब अवतार हूँ मैं ॥

    सज्जनों की रक्षा के लिए, नष्ट दुर्जनों को करने ।
    धर्म की स्थापना हेतु, होता हूँ प्रकट मैं हर युग में ॥

    जन्म और कर्म हैं दिव्य मेरे, इसको जो तत्व से जानता है ।
    पुनर्जन्म उसका नहीं होता, प्राप्त मुझे वह करता है ॥

    क्रोध राग और भय से रहित जो, मेरी शरण में आते हैं ।
    हो ज्ञान रूप तप से पवित्र, मेरी भक्ति को पाते हैं ॥

    जो मुझको जैसे भजते हैं, वैसे मैं उनको भजता ।
    हे पार्थ सभी व्यक्ति करते हैं, अनुसरण मेरे पथ का ॥

    कर्म के फल को चाहने वाले, पूजन करते देवों का ।
    मनुष्य लोक में शीघ्र है मिलता, कर्म किये जो, फल उनका ॥

    गुण और कर्मों के विभाग से, चार वर्ण हैं मैंने रचे ।
    उनका कर्त्ता होते हुए भी, अकर्त्ता अव्यय समझो मुझे ॥

    कर्म लिप्त नहीं करते मुझे, न ही मेरी उनके फल में स्पृहा ।
    जो इस प्रकार जानता मुझको, वह कर्मों से नहीं बंधता ॥

    यह जानकर करते थे कर्म, मुमुक्षु पूर्वकाल में भी ।
    किये थे कर्म उन्होंने जैसे, अर्जुन, कर्म करो तुम भी ॥

                              4.2


    क्या कर्म है, है अकर्म क्या, इस विषय में मोहित सब व्यक्ति ।
    वह कर्म का तत्त्व कहूँगा तुम्हें, जिसे समझ अशुभ से मिले मुक्ति ॥

    आवश्यक है ज्ञान कर्म का, समझ आवश्यक विकर्म की ।
    बोध अकर्म का प्राप्त करें, बड़ी गहन गति है कर्मों की ॥

    अकर्म देखता कर्म में जो, कर्म अकर्म में देखता है ।
    वह बुद्धिमान मनुष्यों में, कर्मों का सम्यक कर्त्ता है ॥

    सभी कर्म जिस व्यक्ति के हों, कामना और संकल्प रहित।
    कर्म ज्ञान से दग्ध हैं जिसके, ज्ञानी उसे कहते पंडित ॥

    आसक्ति कर्म के फल की त्याग, जो नित्य तृप्त, नहीं चाहते कुछ ।
    कर्म प्रवृत्त भलीभांति होते हुए, कर्म नहीं करते वे कुछ ॥

    आशा नहीं कोई, मन संयत, त्याग सभी भोगों का करे ।
    कर्म देह निर्वाह निमित्त हों, पाप ग्रस्त नहीं होते वे ॥

    जो स्वतः मिले, उसमें संतुष्ट, निर्द्वन्द्व हैं, ईर्ष्या जिन्हें नहीं ।
    समता है सिद्धि असिद्धि में, करते हैं कर्म पर बंधते नहीं ॥

    आसक्ति रहित हैं, मुक्त हैं जो, चित्त है जिनका ज्ञान में लीन ।
    यज्ञ हेतु करते हैं आचरण, हों उनके सब कर्म विलीन ॥

    ब्रह्म ही है सामग्री यहाँ, ब्रह्म को ही यह अर्पित है ।
    ब्रह्म अग्नि है यज्ञ की जिसमें, ब्रह्म ही करे समर्पित है ॥

    आहुति की क्रिया ब्रह्म है,  इसमें समाहित होता मन।
    चित्त समाहित ब्रह्म में जब हो, ब्रह्म से ही होता है मिलन॥

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