Monday, December 30, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 4.3
यज्ञ द्रव्यमय की तुलना में, ज्ञान यज्ञ अति उत्तम है ।
सभी भाँति के कर्मों का हो, ज्ञान में, पार्थ, समापन है ॥
ज्ञानी पुरुष के समीप जाकर, श्रद्धा पूर्वक नमन करो ।
भली भाँति करो उनकी सेवा, नम्रता पूर्वक प्रश्न करो ॥
तत्त्व को सम्यक जानने वाले, ज्ञान का अक्षय स्रोत हैं जो ।
उपदेश करेंगे ज्ञान का वे, हे पार्थ, ज्ञान उनसे सीखो ॥
इस ज्ञान को पाकर, हे अर्जुन, नहीं मोह को प्राप्त करोगे कभी ।
सब प्राणी देखोगे स्वयं में, फिर मुझ में देखोगे सभी ॥
सभी पापियों से भी अधिक, यदि पापकर्म हैं तुमने किए ।
पाप समुद्र से तर जाओगे, ज्ञान की नाव का आश्रय ले ॥
जैसे तीव्र प्रज्वलित अग्नि, ईंधन को करती है भस्म ।
वैसे ज्ञान की अग्नि, अर्जुन, सब कर्मों को करती भस्म ॥
ज्ञान के जैसा पवित्र कुछ भी, विद्यमान इस जग में नहीं ।
योग में सिद्ध, प्राप्त करते हैं, इसे समय से, स्वयं में ही ॥
जो तत्पर, जिसकी इन्द्रियाँ वश, उस श्रद्धावान को ज्ञान मिले ।
ज्ञान प्राप्त करने पर उसको, परम शांति शीघ्र मिले ॥
अज्ञानी, श्रद्धा से रहित, संशय से युक्त, होते हैं नष्ट ।
यह लोक नहीं, परलोक नहीं, संशय से युक्त, पाते हैं कष्ट ॥
आसक्ति कर्म के फल में नहीं, संशय हैं ज्ञान से जिसके मिटे ।
जिसने आत्म को प्राप्त किया है, कर्म बाँधते नहीं उसे ॥
अज्ञान जनित इस संशय को, तुम ज्ञान के द्वारा नष्ट करो ।
योग का आश्रय लो अर्जुन, हो जाओ खड़े, अब युद्ध करो ॥
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 33-42]
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