Tuesday, December 31, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 5


    संन्यास की भी करते हो प्रशंसा, फिर कहते हो योग अपनाओ ।
    जो हितकर इन दोनों में हो, कृष्ण मुझे वह एक बताओ ॥
 
    संन्यास हो या कर्मयोग हो, दोनों ही मंगलकारी ।
    फिर भी अर्जुन दोनों में से, कर्मयोग है हितकारी ॥

    जो नहीं द्वेष किसी से करते, रहते जो इच्छा से विमुक्त ।
    उनको संन्यासी समझो तुम, वे बंधन से हो जाते मुक्त ॥

    सांख्य और योग में भेद देखते, सत्य का उनको नहीं पता ।
    किसी भी एक का आश्रय लें तो, दोनों का ही फल मिलता ॥

    प्राप्त जो लक्ष्य सांख्य से होता, योग से भी है वही मिलता ।
    सांख्य और योग, ये दोनों एक हैं, यह जो जानते उनको पता ॥

    जिस संन्यास में योग नहीं है, हे अर्जुन, वह दुःख देता ।
    जो मुनि होता योग से युक्त, शीघ्र ही ब्रह्म को पा लेता ॥

    योग युक्त जो, निर्मल मति के, इन्द्रियाँ मन वश में होते ।
    सबको प्रिय वे, उनको प्रिय सब, कर्म में लिप्त नहीं होते ॥

    कर्मयोगी जो तत्त्व जानते, करते वे भी क्रियाएँ सभी ।
    निज विषयों में लीन इन्द्रियाँ, नहीं करता हूँ मैं कुछ भी ॥

    ब्रह्म में कर्म समर्पित कर, आसक्ति से रहित कर्म करता ।
    पाप में लिप्त नहीं होता है, जल में कमल सा है रहता ॥

    काया से, मन से, बुद्धि से, अथवा केवल इन्द्रियों से ।
    योगी आत्म शुद्धि के लिए, आसक्ति से रहित कर्म करते ॥

    योगी कर्म के फल को त्याग, निरंतर शान्ति पाते हैं ।
    फल की इच्छा से करते कर्म, वे बंधन में फँस जाते हैं ॥

    जिसकी इन्द्रियाँ संयत, जिसने, मन से त्याग दिए हैं कर्म ।
    पुर में स्थित, नौ द्वारों वाले, न तो करते, न कराते कर्म ॥

    लोगों के कर्म नहीं रचता, कर्तृत्व भी नहीं है उपजाता ।
    न ही ईश्वर कर्म का फल देता, यह सब प्रकृति से हो जाता ॥

    करता नहीं किसी के पाप ग्रहण, स्वीकार न ईश्वर पुण्य करे ।
    अज्ञान से ज्ञान है ढका हुआ, उस से ही जीव मोहित होते ॥

    आत्म तत्त्व के ज्ञान से जिनका, अज्ञान हुआ अवसादित है ।
    वह ज्ञान ही, सूर्य की भाँति करता, परम तत्त्व को प्रकाशित है ॥

    मनबुद्धि लीन हैं, परम तत्त्व में, निष्ठा, शरण उसी की है ।
    ज्ञान से दूर हैं कल्मष, उनको, होती मोक्ष की प्राप्ति है ॥

    विद्या विनय से युक्त पुरुष में, गौ आदि सब प्राणियों में ।
    ज्ञान जिन्होंने प्राप्त किया है, सम दृष्टि रखते सब में ॥

    संसार उन्होंने जीता, जिनके, मन समता में स्थापित हैं ।
    ब्रह्म है दोषरहित, सम, इससे, वे सब ब्रह्म में स्थित हैं ।

    होते नहीं हर्षित प्रिय पाकर, उद्विग्न अप्रिय से नहीं होते ।
    स्थिरबुद्धि, जो मोह रहित हैं, ज्ञानी ब्रह्म में स्थित होते ॥

    अनासक्त जो विषय के सुख में, आत्म सुख करता है प्राप्त ।
    ब्रह्मयोग से युक्त पुरुष को, अक्षय सुख होता है प्राप्त ॥

    जो भी विषय से प्राप्त भोग हैं, दुःखों का कारण वे बनते ।
    आदि अन्त होने वाले हैं, ज्ञानी नहीं उनमें रमते ॥

    देह नष्ट होने से पूर्व ही, सह सकने में समर्थ हैं जो ।
    काम क्रोध जनित वेगों को, वो योगी हैं, सुखी हैं वो ॥

    आत्म सुख को, आत्म तृप्ति को, आत्म ज्योति जो पाते हैं ।
    योगी ब्रह्म में स्थित होते वे, ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥

    पाप क्षीण हो जाते जिनके, संशय भी मिट जाते हैं ।
    प्राणियों के हित में रत वे, ऋषि निर्वाण को पाते हैं ॥

    काम-क्रोध से मुक्त हैं जो, मन को वश में कर पाते हैं ।
    आत्म तत्त्व का ज्ञान जिन्हें, वे ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥

    विषयों का करता है त्याग, नेत्र भृकुटि में स्थित करता ।
    नासिका में विचरण करते, प्राण अपान को सम करता ॥

    हैं इन्द्रियाँ मनबुद्धि संयत, मोक्ष परायण जो मुनि है ।
    जिसको इच्छा भय क्रोध नहीं, उसकी सदा ही मुक्ति है ॥

    भोक्ता सब यज्ञ तपस्या का, लोकों का ईश्वर जाने मुझे ।
    सभी प्राणियों का सुहृद जानता, परम शान्ति मिलती है उसे ॥

    [Source: Geeta Chapter - 5, कर्म संन्यास योग, Verse: 1-29]

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