Sunday, September 29, 2013

मंत्री की व्यथा



        युवराज के तीखे वचन सुने, मंत्रीवर उलझन में झूले ।
        ले रूप देहाती औरत का, अपने पद की गरिमा भूले ॥

        घर में कहते हैं चोर मुझे, सम्मान मगर बाहर पाता ।
        वह भी मुझसे है छीन लिया, हैं रूठे मुझसे विधाता ॥

        लेकिन मैं कुछ नहीं बोलूँगा, यह मुँह अपना नहीं खोलूँगा ।
        अब आदत सी हो गई मुझे,  इसको भी हँस कर सह लूँगा ॥

        सब दिन नहीं एक से होते हैं, जो आज हँसे कल रोते हैं ।
        दुःख पाकर नींद को भूले जो, सुख पाकर चैन से सोते हैं ॥

        ऐसे भी दिन हैं याद मुझे, बिन मांगे मोती जब थे मिले ।
        वह पाया जो नहीं सोचा कभी, था मन प्रसन्न, थे होंठ खिले ॥

        पूरे भारत का अधिपति बन, जब जय जयकार करे जन जन ।
        उस काल का जब करता हूँ स्मरण,  उत्साह मिले, प्रमुदित हो मन ॥

        विद्वान मुझे सब कहते थे, सब मुझ से प्रभावित रहते थे ।
        निष्कपट है यह सीधा साधा, ये वचन हवा में बहते थे ॥

        संगत की महिमा है भारी, इसलिए मित्र चुनो सुविचारी ।
        हतोत्साहित शल्य से हुए कर्ण,  अब संभव है मेरी बारी ॥




Tuesday, September 24, 2013

जरत्करु और आस्तिक



     
        किस कारण से जन्मेजय ने, नाग दाह आरम्भ किया ।
        आस्तिक मुनि ने क्यों उस भीषण,  सर्प यज्ञ का अंत किया ॥

        सौति से बोले शौनक, यह गाथा हमें बताओ तुम ।
        किसके पुत्र थे, ये दोनों, यह सुन्दर कथा सुनाओ तुम ॥

        नैमिषारण्य के लोगों को, यह व्यास मुनि ने सुनाई थी ।
        उनके शिष्य और मेरे पिता,  लोमहर्षण ने भी गाई थी ॥

        ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनि आस्तिक की, कथा पूर्ण बतलाता हूँ ।
        जैसी मैंने सुनी पिता से,  वैसी तुमको सुनाता हूँ ॥

        प्रजापति सा तेज था उनमें, घोर तपस्या करते थे ।
        जरत्करु वे ब्रह्मचारी, अपने निश्चय में पक्के थे ॥

        यात्रा पर थे, मार्ग में देखा, पूर्वज उनके गुफा में थे ।
        ऊपर पैर थे, सिर नीचे था, लटके ऐसी दशा में थे ॥

        कौन हैं आप जो इस भांति, इस गुफा में उलटे लटके हैं ।
        चूहों द्वारा कुतरी हुई, इस घास की रस्सी से जकड़े हैं ॥

        हम ऋषिवर हैं नियम निष्ठ, यायावर नाम हमारा है ।
        गिर रहे हैं भूमि पर क्योंकि, कोई वंशज नहीं हमारा है ॥

        हे ब्राह्मण, केवल एक ही वंशज, नाम जरत्करु है जिसका ।
        वह भी तप में संलग्न हुआ, दुर्भाग्य हमारा और उसका ॥

        वह मूर्ख नहीं करता विवाह, नहीं पुत्र की उसको चाह कोई ।
        हम लटके यहाँ, इसी कारण, मुक्ति का नहीं उपाय कोई ॥

        मैं ही जरत्करु पुत्र आपका, कहिए मुझे क्या करना है ।
        हम सबका है निर्देश यही,  तुम्हें वंश की वृद्धि करना है ॥

        यद्यपि प्रतिज्ञा मेरी है, विवाह करूँगा नहीं कभी ।
        फिर भी आपके हित के लिए, यदि यही चाहिए तो यही सही ॥

        लेकिन मेरी दो शर्ते हैं, मेरा ही नाम हो उसका भी ।
        स्वेच्छा से परिजन यदि देवें,  स्वीकार करूँगा उसे तब ही ॥

        इक दिन वन में ब्राह्मण की,  वह आर्त ध्वनि वासुकि ने सुनी ।
        अपनी भगिनी के लिए उसने, प्रस्ताव किया, मुनि बोले, "नहीं" ॥

        संभव नहीं मेरा नाम हो उसका, मुनि ने तर्क किया मन में ।
        फिर बोले, हे वासुकि सुनो, क्या नाम है उसका, कहो सच में ॥

        जरत्करु है नाम भगिनी का, उसे आप स्वीकार करें ।
        अब तक मैंने रक्षा की है, आगे से यह आप करें ॥

        पूर्वकाल में सर्पों को, उनकी माँ ने था श्राप दिया ।
        जन्मेजय की यज्ञाग्नि में,  होंगे भस्म, अभिशाप दिया ॥

        इस भीषण विपदा से बचने, वासुकि ने यह कदम लिया ।
        महामना जरत्करु के घर, आस्तिक मुनि ने जन्म लिया ॥

        कई वर्षों के बीत जाने पर, पांडव कुल के राजा ने ।
        जब सर्प यज्ञ आरम्भ किया, आस्तिक पहुंचे रक्षा करने ॥

        बड़े समय के बाद जरत्करु, के घर पुत्र का जन्म हुआ ।
        श्रेय मार्ग से जीवन जीकर, आस्तिक स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥

        [This is based on the story of Jaratkaru and his son Astika
         from Astika Parva in Mahabharata.

         Thanks to Prof. Bibek Debroy for English translation of Mahabharata.
         This story is in 'The Mahabharata' Vol. 1, Section-5, Chapter-13.]



Friday, September 20, 2013

you made me star



        when the sun wasn't shining, and good days had gone.
        you made sure i didn't stumble, that i wasn't alone.

        i made many errors, i failed many times.
        you made me recover faster, you were my enzymes.

        there aren't enough words, to express gratitude.
        for your extending help, even when i was rude.

        when people pointing fingers, had reasons to believe.
        you stood by my side, when you could take leave.

        you made it look so easy, i want to thank you all.
        for your contributions, both big and small.

        you kept me going, when things went wrong.
        it is in your honour, i compose this song.

        you gave me strength, when the goal seemed far.
        it is all your glory, you made me star.




Friday, September 13, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.2



        नहीं काल हुआ था ऐसा कभी, मैं जिसमें नहीं था, तुम थे नहीं ।
        आगे भी ऐसा होगा नहीं, जिस काल में हम सब होंगे नहीं ॥

        इस देह में जैसे मिलती है, बालक यौवन वृद्धावस्था ।
        देह अन्य उसी भांति प्राप्त हो, मोह न करते धीरव्रता ॥

        इन्द्रियों और विषयों के मेल से, शीत उष्ण सुख दुःख का सृजन ।
        आने जाने वाले ये, अनित्य हैं, इनको कर लो सहन ॥

        सुख दुःख को एक समान समझ, विचलित नहीं इनसे होता है ।
        हे पुरुषोत्तम, वह धीर पुरुष ही, योग्य मोक्ष के होता है ॥

        नहीं असत् वस्तु की है सत्ता, सत् वस्तु का है अभाव नहीं ।
        जो तत्व समझने वाले हैं, उन सबका है निष्कर्ष यही ॥

        जिससे यह सबकुछ व्याप्त हुआ, उसको तुम जानो अविनाशी ।
        विनाश करे उस अव्यय का, नहीं किसी में इतनी बलराशि ॥

        ये देह नष्ट हो जाते हैं, नहीं वो जो इन्हें धारण करता ।
        इसलिये हे भारत युद्ध करो, वो असीमित है, वो नहीं मरता ॥

        कोई मारने वाला समझे इसे, कोई मरने वाला मानता है ।
        दोनों इसको नहीं जानते हैं, न ये मरता है न ही मारता है ॥

        यह अति पुरातन, नित्य शाश्वत,  जन्मता मरता नहीं ।
        फिर फिर से है नहीं उपजता, देह नाश से मिटता नहीं ॥

        इस अज अविनाशी अव्यय को, हे पार्थ, जो पुरुष समझता है ।
        कैसे वह किसी का वध करता,  कैसे वध करवा सकता है ॥

        जैसे नर जर्जर वस्त्र त्याग, नूतन वस्त्रों को करे धारण ।
        वैसे ही जर्जर देह त्याग,  देही नव देह करे धारण ॥  

        नहीं छेद सकते शस्त्र इसको, अग्नि से नहीं यह जले ।
        वायु सुखा सकता नहीं, गीला नहीं जल कर सके ॥

     

Wednesday, September 11, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.1



        सजल नेत्र, विषाद से व्याकुल, मित्र को माधव समझाते ।
        इस विषम समय में, किस हेतु, तुम मोह में स्वयं को उलझाते ॥

        इस नपुंसकता का त्याग करो, यह मोह तुम्हारे यश को हरे ।
        दुर्बलता हृदय की छोड़ो तुम, हे परम वीर हो जाओ खड़े ॥

        पूज्य भीष्म और द्रोण हैं इन पर, किस विधि बाण चलाऊँगा ।
        मधुसूदन बतलाओ तुम ही, मैं कैसे युद्ध कर पाऊँगा ॥

        भिक्षा के अन्न से जीवन के, निर्वाह में ही मेरा हित है ।
        इन महापुरुषों के वध से मिली, संपत्ति रक्त से रंजित है ॥

        पराजय हो या मिले विजय, नहीं दोनों में ही लाभ कोई ।
        नहीं चाहते जिनके बिन जीवन, हैं युद्ध में सम्मुख खड़े वही ॥

        कायरता से अभिभूत हुआ, निज धर्म विषय में मोहित हूँ ।
        जो हितकर हो, वह शिक्षा दो, मैं शिष्य तुम्हारी शरण में हूँ ॥

        निष्कंटक राज्य हो पृथ्वी का, देवों का भी स्वामित्व मिले ।
        ऐसा नहीं कोई उपाय सुलभ, जो प्रबल शोक मेरा हर ले ॥

        'मैं युद्ध नहीं करूँगा' कह, जब अर्जुन चुप हो जाते हैं ।
        शोकातुर मित्र को हँसते हुए, श्रीकृष्ण ये वचन सुनाते हैं ॥

        जो शोक करने के योग्य नहीं, उनका तुम शोक मनाते हो ।
        भाषा पंडित सी कहते हो, व्यवहार नहीं अपनाते हो ॥

        करते नहीं पंडित शोक कोई, उनके लिए जिनमें प्राण नहीं ।
        जो प्राणवान हैं, उनके लिए भी, शोक का कोई विधान नहीं ॥






Sunday, September 8, 2013

पीछे न हटो

                             

        विपरीत परिस्थिति आई हो, जो कभी कभी आएगी।
        जिस राह पे थकें हो चलते, वो पर्वत पर जायेगी ॥

        जब कोष में सीमित धन हो, लेकिन ऋण छूता गगन हो ।
        स्वर आह का मुख से निकले, जब मुस्काने का मन हो ॥

        कुशल क्षेम की व्याकुलता, करती कदमों को भारी हो ।
        विश्राम करो यदि आवश्यक, निज पथ से तुम पीछे न हटो ॥

                                 

        मार्ग विचित्र है जीवन का, इसमें घुमाव हैं, मोड़ कभी ।
        इसकी अनुभूति हम सबको, होती है स्वतः ही कभी कभी ॥

        कितने ही पथिक मुड़ जाते हैं, निज क्षमता अल्प समझ कर के ।
        मिल सकती शीघ्र थी विजय उन्हें, यदि धैर्य धार बढ़ते रहते ॥

        धीमी गति यद्यपि हो प्रतीत, निज पथ से च्युत मत होना तुम ।
        संभव है केवल एक प्रहार, उपलब्ध करा दे विजय उत्तम ॥

                                 

        प्रायः समीप ही होता है, पर दूर लक्ष्य होता भासित ।
        जब क्षीण शक्ति हो, शिथिल हो तन, उत्साह रहित, मन अवसादित ॥

        कई बार निराश हो तजे प्रयास, संघर्ष किया जिस हेतु विपुल।
        था पारितोषिक मिलना संभव, नक्षत्र भी विजय के थे अनुकूल ॥

        भान हुआ निज भूल का तब, जब परिणामों की घड़ी आई ।
        स्वर्ण मुकुट बस तनिक दूर था, पर योजन लम्बी थी खाई ॥

                                 

        तत्त्वदृष्टि से विजय पराजय, एक वस्तु है, रूप है भिन्न ।
        संशय की मेघाकृतियों में, सीमाओं का रजत है वर्ण ॥

        निर्धारण नहीं कर सकते हो, विजय के कितने समीप हैं आप ।
        निकट सफलता होते हुए भी, लग सकती है दूर अमाप ॥

        करते रहो संघर्ष यद्यपि, भीषण क्षति से आहत हो ।
        भले प्रतिकूल परिस्थिति हो, साहस न तजो, पीछे न हटो ॥





        This is inspired by the following poem. I could not trace its author.
        As there is no authentic link available, here it is verbatim:


                                  Don't you quit

       When things go wrong, as they sometimes will,
       When the road you're trudging seems all uphill,
       When the funds are low and the debts are high,
       And you want to smile, but you have to sigh,
       When care is pressing you down a bit-
       Rest if you must, but don't you quit.

       Life is queer with its twists and turns,
       As every one of us sometimes learns,
       And many a fellow turns about
       When he might have won had he stuck it out.
       Don't give up though the pace seems slow -
       You may succeed with another blow.

       Often the goal is nearer than
       It seems to a faint and faltering man;
       Often the struggler has given up
       When he might have captured the victor's cup;
       And he learned too late when the night came down,
       How close he was to the golden crown.

       Success is failure turned inside out -
       The silver tint in the clouds of doubt,
       And you never can tell how close you are,
       It might be near when it seems afar;
       So stick to the fight when you're hardest hit -
       It's when things seem worst that you must not quit.