Friday, December 27, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 3.3


    धारण अध्यात्म चित्तवृत्ति कर, सब कर्म समर्पित मुझमें करो । 
    आशा ममता का करो त्याग, तुम शोकरहित हो युद्ध करो ॥ 

    अनुसरण मेरे इस मत का, मानव नित्य जो करते हैं ।  
    वे श्रद्धावान असूया रहित, कर्मों से निश्चित तरते हैं ॥ 

    लेकिन जो व्यक्ति असूया वश, मेरे मत को नहीं अपनाते ।
    वे ज्ञान से मूढ़, विवेक रहित, उनके पुरुषार्थ व्यर्थ जाते ॥

    ज्ञानवान भी चेष्टा करते, जैसा हो स्वभाव उनका ।
    संचालित प्रकृति से प्राणी, निग्रह से हो सिद्धि क्या ॥

    अवश्यम्भावी है राग द्वेष, इन्द्रियों का अपने विषयों में ।
    इन दोनों के आधीन न हो, ये बाधा साधक के पथ में ॥

    स्वधर्म का पालन भले, परिपक्वता से हो रहित।
                 परधर्म के भलीभाँति पालन, से परन्तु श्रेष्ठ है ।
    निज धर्म पथ में हो निधन, कल्याणकारी किन्तु वह ।
                 परधर्म के निर्वाह में, भय है बहुत, अति क्लेश है ॥ 

    किससे प्रेरित होकर, माधव, पापकर्म यह पुरुष करे ।
    नहीं चाहते हुए भी बलवश, कौन नियोजित इसे करे ॥

    यह काम एवं क्रोध, अर्जुन, रजोगुण से हो उदय ।
    भक्षक, नहीं अघाने वाला, पापी बड़ा, वैरी है यह ॥

    धुएँ से अग्नि आच्छादित, धूल से दर्पण जैसे ढके ।
    हो आवृत गर्भ जरायु से, उसी तरह यह ज्ञान ढके ॥

    कभी नहीं बुझती जो अग्नि, काम का रूप भी है ऐसा ।
    ज्ञानी का यह नित्य है वैरी, ज्ञान को, अर्जुन, इसने ढका ॥

    आश्रय स्थल कहे जाते हैं, इन्द्रियाँ मन बुद्धि इसके ।
    इनके द्वारा ज्ञान को ढक कर, मोहित यह देही को करे ॥

    इसलिए सबसे पहले अर्जुन, इन्द्रियों को तुम वश में करो ।
    जो नष्ट ज्ञान विज्ञान करे, इस काम को तुम विनष्ट करो ॥ 

    इन्द्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता, इन इन्द्रियों से भी मन है श्रेष्ठ ।
    मन से भी बुद्धि श्रेष्ठतर है,  किन्तु बुद्धि से भी वह श्रेष्ठ ॥

    जान उसे बुद्धि से श्रेष्ठ, तुम बुद्धि से मन को वश में करो ।
    काम, जो नहीं अघाए कभी, उस शत्रु को, अर्जुन, नष्ट करो ॥

    [Source: Geeta Chapter - 3, कर्मयोग, Verse: 30-43]

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