Sunday, September 14, 2014

नासदीय सूक्त


नहीं विद्यमान तब था कुछ भी,
                    उसका अभाव भी नहीं था तब ।
वायु भी नहीं, था व्योम नहीं,
                    उसे किसने ढका था, कहाँ था सब ॥

वह ब्राह्मिक द्रव, सर्वत्र व्याप्त,  कितना गहरा था,  किसके पास ॥

अमरत्व नहीं, तब मृत्यु नहीं थी,
                    नहीं प्रकाश, दिन रात न था ।
लेता था श्वास, वायु के बिन,
                    वह स्वयं पूर्ण था, शेष न था ॥

था केवल वह ही विद्यमान,  उसके अतिरिक्त न कोई था ॥

था अन्धकार से ओत प्रोत,
                     केवल घनघोर तिमिर फैला ।
सब कुछ तब था द्रव के सदृश,
                     नहीं था प्रकाश किंचित कैसा ॥

वह एक जो आवृत्त शून्य से था,  अग्नि के गर्भ से प्रकट हुआ ॥

मन से उत्पन्न कामना ने,
                     आरम्भ से व्याप लिया था उसे ।
करें खोज ह्रदय में मुनि उसकी,
                     संबंधित 'है', 'जो नहीं' उससे ॥

सम्बन्ध जटिल है यह इसमें,
                     बीज सभी हैं, शक्ति सभी ।
सूक्ष्म शक्तियाँ उसके भीतर,
                     वृहद शक्तियाँ बाहर भी ॥

पर, कौन उसे जानता है,
                     और कौन बता सकता है यहाँ ।
आरम्भ हुआ इसका था कब,
                    और कहाँ आदि है, अंत कहाँ ॥

पश्चात सृजन के देव हुए,
                   तब किसे पता यह, कब था बना ।
गर्भ से जिसके सृजन हुआ,
                  यह उसने किया, या उसके बिना॥

सृष्टि यह कैसे बनी थी,
                    कब हुआ आरम्भ था ।
यह व्योम का अध्यक्ष जाने,
                    या उसे भी नहीं पता ॥

[ऋग्वेद के नासदीय सूक्त पर आधारित]
[Based on 'Nasadiya Sukta' (Hymn of Creation) from RigVeda.]


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