Sunday, April 26, 2015

क्रोधित क्यों तुम

असमय वर्षा, ओला वृष्टि, प्रकृति माँ क्रोधित क्यों तुम  ।
भूमि कम्प स्वभाव न तेरा, सुना सहिष्णु, उदार हो तुम ॥

क्यों ये पर्वत, हिम से सज्जित, अपनी जटाएँ हिलाते हैं ।
किस कारण वश मेघ तेरे माँ, रौद्र रूप दिखलाते हैं ॥

सूर्य देव भी नहीं हैं हर्षित, ताप से हमें जलाते हैं ।
अर्घ्य इन्हें अब तृप्त न करते, जल सम्पूर्ण सुखाते हैं ॥

सागर भी, जो सब सहकर भी, परिधि न अपनी पार करे ।
तट बंधन को मान्य न करता, जल से भरा प्रहार करे ॥

वायु को भी करे प्रभावित, चक्रवात निर्माण करे ।
चक्षु जिसके दृष्टि कुटिल कर, थल की ओर प्रयाण करे ॥

नदियाँ, जीवन दायिनी, वे भी, क्षोभ से जब भर जाती हैं ।
निज पथ का तब भान भूलकर, गाँव और नगर बहाती हैं ॥

निश्चय ही संदेश है कुछ, नहीं बिन कारण है क्रोध तेरा ।
भूल नहीं होगी अब हमसे, हो प्रसन्न, अनुरोध मेरा ॥

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