Monday, December 23, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.5



    समाधिस्थ उस स्थितप्रज्ञ के, लक्षण कैसे होते हैं । 
    केशव, वे बात किस तरह करते, कैसे रहते, चलते हैं ॥ 

    मन की सभी कामनाओं का, जब वे त्याग कर देते हैं । 
    अपने आत्म में तृप्त हो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब कहते हैं ॥ 

    दुःख में जो उद्विग्न न हों, स्पृहा से रहित सुख में रहते । 
    हो राग नहीं, भय क्रोध न हो, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब हैं कहते ॥ 

    शुभ पाकर होते नहीं हर्षित, अशुभ से द्वेष नहीं करते । 
    अनासक्त सर्वत्र जो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही हैं कहते ॥ 

    अपनी इन्द्रियाँ विषयों से, जो उसी प्रकार हटाते हैं । 
    जैसे कछुआ अंग समेटे, स्थितप्रज्ञ कहलाते हैं ॥ 

    विषयों के हट जाने पर भी, उनके रस में रहती रुचि । 
    परम तत्त्व दर्शन करने पर, उसमें भी होती अरुचि ॥ 

    ये इन्द्रियाँ, किन्तु हे अर्जुन, स्वभाव से उग्र ही होती हैं । 
    विवेकशील व्यक्ति का मन भी, बलपूर्वक हर लेती हैं ॥ 

    इन सबको संयम में लाकर, जो मेरे परायण रहते हैं । 
    ये इन्द्रियाँ जिनके वश में हैं, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥ 

    चिंतन विषयों का करने से, उनमें होती है आसक्ति । 
    आसक्ति से बनती है कामना, उससे क्रोध की उत्पत्ति ॥ 

    सम्मोह क्रोध से होता है, सम्मोह से होता स्मृतिनाश । 
    उससे बुद्धि हो जाती नष्ट, जिससे होता है पूर्ण विनाश ॥ 

    लेकिन जो संयमी होते हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ वश में हैं । 
    विषयों के सेवन से भी वे, प्राप्त प्रसन्नता करते हैं ॥ 

    प्रसाद प्राप्त कर लेने पर, मुक्ति दुःख से मिल जाती है । 
    हो चित्त प्रसन्न, शीघ्र ही उनकी, बुद्धि स्थित हो जाती है ॥ 

    जिसने मन को नहीं जीता है, भला उसको बुद्धि हो प्राप्त कहाँ । 
    नहीं ध्यान करे, न मिले शान्ति, जो अशांत है, उसको सुख है कहाँ ॥ 

    जैसे जल में बहती नाव को, वायु हर ले जाती है । 
    जिस इन्द्रिय में है रमता मन, वह बुद्धि हर ले जाती है ॥ 

    इसलिए विषयों से जो अपनी, इंद्रियों को वश कर लेते हैं । 
    महाबाहो, जिनके वश में मन, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥ 

    जो रात्रि सभी प्राणियों हेतु, उसमें वे संयमी जागते हैं । 
    जिसमें जागते रहते प्राणी, रात्रि उसे वे मानते हैं ॥ 

    परिपूर्ण समुद्र में जैसे नदियाँ, क्षोभ रहित हो करें प्रवेश । 
    करती प्रवेश कामना जिसमें, वह शान्ति पाए, उसे नहीं क्लेश ॥ 

    सभी कामनाओं को त्यागकर, जो स्पृहा से रहित रहते । 
    नहीं ममता और अहंकार हो, शान्ति प्राप्त वो ही करते ॥ 

    हे पार्थ, ये ब्राह्मी स्थिति है, इसको पाकर कभी मोह न हो । 
    अन्तकाल में भी स्थित हो इसमें, निर्वाण प्राप्ति निश्चित हो ॥ 

    [Source: Geeta Chapter - 2, सांख्य योग, Verse: 54-72]

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