Tuesday, December 31, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 5


    संन्यास की भी करते हो प्रशंसा, फिर कहते हो योग अपनाओ ।
    जो हितकर इन दोनों में हो, कृष्ण मुझे वह एक बताओ ॥
 
    संन्यास हो या कर्मयोग हो, दोनों ही मंगलकारी ।
    फिर भी अर्जुन दोनों में से, कर्मयोग है हितकारी ॥

    जो नहीं द्वेष किसी से करते, रहते जो इच्छा से विमुक्त ।
    उनको संन्यासी समझो तुम, वे बंधन से हो जाते मुक्त ॥

    सांख्य और योग में भेद देखते, सत्य का उनको नहीं पता ।
    किसी भी एक का आश्रय लें तो, दोनों का ही फल मिलता ॥

    प्राप्त जो लक्ष्य सांख्य से होता, योग से भी है वही मिलता ।
    सांख्य और योग, ये दोनों एक हैं, यह जो जानते उनको पता ॥

    जिस संन्यास में योग नहीं है, हे अर्जुन, वह दुःख देता ।
    जो मुनि होता योग से युक्त, शीघ्र ही ब्रह्म को पा लेता ॥

    योग युक्त जो, निर्मल मति के, इन्द्रियाँ मन वश में होते ।
    सबको प्रिय वे, उनको प्रिय सब, कर्म में लिप्त नहीं होते ॥

    कर्मयोगी जो तत्त्व जानते, करते वे भी क्रियाएँ सभी ।
    निज विषयों में लीन इन्द्रियाँ, नहीं करता हूँ मैं कुछ भी ॥

    ब्रह्म में कर्म समर्पित कर, आसक्ति से रहित कर्म करता ।
    पाप में लिप्त नहीं होता है, जल में कमल सा है रहता ॥

    काया से, मन से, बुद्धि से, अथवा केवल इन्द्रियों से ।
    योगी आत्म शुद्धि के लिए, आसक्ति से रहित कर्म करते ॥

    योगी कर्म के फल को त्याग, निरंतर शान्ति पाते हैं ।
    फल की इच्छा से करते कर्म, वे बंधन में फँस जाते हैं ॥

    जिसकी इन्द्रियाँ संयत, जिसने, मन से त्याग दिए हैं कर्म ।
    पुर में स्थित, नौ द्वारों वाले, न तो करते, न कराते कर्म ॥

    लोगों के कर्म नहीं रचता, कर्तृत्व भी नहीं है उपजाता ।
    न ही ईश्वर कर्म का फल देता, यह सब प्रकृति से हो जाता ॥

    करता नहीं किसी के पाप ग्रहण, स्वीकार न ईश्वर पुण्य करे ।
    अज्ञान से ज्ञान है ढका हुआ, उस से ही जीव मोहित होते ॥

    आत्म तत्त्व के ज्ञान से जिनका, अज्ञान हुआ अवसादित है ।
    वह ज्ञान ही, सूर्य की भाँति करता, परम तत्त्व को प्रकाशित है ॥

    मनबुद्धि लीन हैं, परम तत्त्व में, निष्ठा, शरण उसी की है ।
    ज्ञान से दूर हैं कल्मष, उनको, होती मोक्ष की प्राप्ति है ॥

    विद्या विनय से युक्त पुरुष में, गौ आदि सब प्राणियों में ।
    ज्ञान जिन्होंने प्राप्त किया है, सम दृष्टि रखते सब में ॥

    संसार उन्होंने जीता, जिनके, मन समता में स्थापित हैं ।
    ब्रह्म है दोषरहित, सम, इससे, वे सब ब्रह्म में स्थित हैं ।

    होते नहीं हर्षित प्रिय पाकर, उद्विग्न अप्रिय से नहीं होते ।
    स्थिरबुद्धि, जो मोह रहित हैं, ज्ञानी ब्रह्म में स्थित होते ॥

    अनासक्त जो विषय के सुख में, आत्म सुख करता है प्राप्त ।
    ब्रह्मयोग से युक्त पुरुष को, अक्षय सुख होता है प्राप्त ॥

    जो भी विषय से प्राप्त भोग हैं, दुःखों का कारण वे बनते ।
    आदि अन्त होने वाले हैं, ज्ञानी नहीं उनमें रमते ॥

    देह नष्ट होने से पूर्व ही, सह सकने में समर्थ हैं जो ।
    काम क्रोध जनित वेगों को, वो योगी हैं, सुखी हैं वो ॥

    आत्म सुख को, आत्म तृप्ति को, आत्म ज्योति जो पाते हैं ।
    योगी ब्रह्म में स्थित होते वे, ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥

    पाप क्षीण हो जाते जिनके, संशय भी मिट जाते हैं ।
    प्राणियों के हित में रत वे, ऋषि निर्वाण को पाते हैं ॥

    काम-क्रोध से मुक्त हैं जो, मन को वश में कर पाते हैं ।
    आत्म तत्त्व का ज्ञान जिन्हें, वे ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥

    विषयों का करता है त्याग, नेत्र भृकुटि में स्थित करता ।
    नासिका में विचरण करते, प्राण अपान को सम करता ॥

    हैं इन्द्रियाँ मनबुद्धि संयत, मोक्ष परायण जो मुनि है ।
    जिसको इच्छा भय क्रोध नहीं, उसकी सदा ही मुक्ति है ॥

    भोक्ता सब यज्ञ तपस्या का, लोकों का ईश्वर जाने मुझे ।
    सभी प्राणियों का सुहृद जानता, परम शान्ति मिलती है उसे ॥

    [Source: Geeta Chapter - 5, कर्म संन्यास योग, Verse: 1-29]

Monday, December 30, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 4.3


    यज्ञ द्रव्यमय की तुलना में, ज्ञान यज्ञ अति उत्तम है ।
    सभी भाँति के कर्मों का हो, ज्ञान में, पार्थ, समापन है ॥

    ज्ञानी पुरुष के समीप जाकर, श्रद्धा पूर्वक नमन करो ।
    भली भाँति करो उनकी सेवा,  नम्रता पूर्वक प्रश्न करो ॥

    तत्त्व को सम्यक जानने वाले, ज्ञान का अक्षय स्रोत हैं जो ।
    उपदेश करेंगे ज्ञान का वे, हे पार्थ, ज्ञान उनसे सीखो ॥

    इस ज्ञान को पाकर, हे अर्जुन, नहीं मोह को प्राप्त करोगे कभी ।
    सब प्राणी देखोगे स्वयं में, फिर मुझ में देखोगे सभी ॥

    सभी पापियों से भी अधिक, यदि पापकर्म हैं तुमने किए ।
    पाप समुद्र से तर जाओगे, ज्ञान की नाव का आश्रय ले ॥

    जैसे तीव्र प्रज्वलित अग्नि, ईंधन को करती है भस्म ।
    वैसे ज्ञान की अग्नि, अर्जुन, सब कर्मों को करती भस्म ॥

    ज्ञान के जैसा पवित्र कुछ भी, विद्यमान इस जग में नहीं ।
    योग में सिद्ध, प्राप्त करते हैं, इसे समय से, स्वयं में ही ॥

    जो तत्पर, जिसकी इन्द्रियाँ वश, उस श्रद्धावान को ज्ञान मिले ।
    ज्ञान प्राप्त करने पर उसको, परम शांति शीघ्र मिले ॥

    अज्ञानी, श्रद्धा से रहित, संशय से युक्त, होते हैं नष्ट ।
    यह लोक नहीं, परलोक नहीं, संशय से युक्त, पाते हैं कष्ट ॥

    आसक्ति कर्म के फल में नहीं, संशय हैं ज्ञान से जिसके मिटे ।
    जिसने आत्म को प्राप्त किया है, कर्म बाँधते नहीं उसे ॥

    अज्ञान जनित इस संशय को, तुम ज्ञान के द्वारा नष्ट करो ।
    योग का आश्रय लो अर्जुन, हो जाओ खड़े, अब युद्ध करो ॥

    [Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 33-42]

Saturday, December 28, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 4.2


    क्या कर्म है, है अकर्म क्या, इस विषय में मोहित सब व्यक्ति ।
    वह कर्म का तत्त्व कहूँगा तुम्हें, जिसे समझ अशुभ से मिले मुक्ति ॥

    आवश्यक है ज्ञान कर्म का, समझ आवश्यक विकर्म की ।
    अकर्म का बोध भी होना चाहिए , गहन गति है कर्मों की ॥

    अकर्म देखता कर्म में जो, कर्म अकर्म में देखता है ।
    वह बुद्धिमान मनुष्यों में, कर्मों का सम्यक कर्त्ता है ॥

    सभी कर्म जिस व्यक्ति के हों, कामना और संकल्प रहित।
    कर्म ज्ञान से दग्ध हैं जिसके, ज्ञानी उसे कहते पंडित ॥

    आसक्ति कर्म के फल की त्याग, जो नित्य तृप्त, नहीं चाहते कुछ ।
    कर्म प्रवृत्त भलीभांति होते हुए, कर्म नहीं करते वे कुछ ॥

    आशा नहीं कोई, मन संयत, त्याग सभी भोगों का करे ।
    कर्म देह निर्वाह निमित्त हों, पाप ग्रस्त नहीं होते वे ॥

    जो स्वतः मिले, उसमें संतुष्ट, निर्द्वन्द्व हैं, ईर्ष्या जिन्हें नहीं ।
    समता है सिद्धि असिद्धि में, करते हैं कर्म पर बंधते नहीं ॥

    आसक्ति रहित हैं, मुक्त हैं जो, चित्त है जिनका ज्ञान में लीन ।
    यज्ञ हेतु करते हैं आचरण, हों उनके सब कर्म विलीन ॥

    ब्रह्म ही है सामग्री यहाँ, ब्रह्म को ही यह अर्पित है ।
    ब्रह्म अग्नि है यज्ञ की जिसमें, ब्रह्म ही करे समर्पित है ॥

    आहुति की क्रिया ब्रह्म है,  इसमें समाहित होता मन।
    चित्त समाहित ब्रह्म में जब हो, ब्रह्म से ही होता है मिलन॥

    देवताओं के लिए यज्ञ की, करें उपासना कुछ योगी ।
    ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ को, देते हैं आहुति कुछ योगी ॥

    इन्द्रियों की देते हैं आहुति, संयम रूप अग्नि में कोई ।
    विषयों की देते हैं आहुति, इन्द्रिय रूप अग्नि में कोई ॥

    आत्म संयम रूप अग्नि में, ज्ञान से जो प्रज्वलित हुई ।
    इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाएँ, इनकी आहुति देते कोई ॥

    कोई करते यज्ञ द्रव्यरूपी, करते तपरूपी यज्ञ कोई ।
    कोई यज्ञ योगरूपी करते, स्वाध्याय और ज्ञान का यज्ञ कोई ॥

    अपान में आहुति प्राण की देते, अपान की प्राण में देते तथा ।
    प्राण अपान की गति रोकते, प्राणायाम में जिनकी निष्ठा ॥

    आहार नियत अपनाते कोई, प्राणों में प्राण की आहुति दें ।
    प्रयत्नशाली व्यक्ति सभी ये, पालन तीक्ष्ण व्रतों का करें ॥  

    ये सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं, जो यज्ञ से पाप क्षीण कर के ।
    सनातन ब्रह्म को करें प्राप्त, अवशेष यज्ञ का पाकर के ॥

    अनेक भाँति के यज्ञ इस तरह,  वर्णन वेद में जिनका मिले ।
    जानो इनको कर्म जनित, इस ज्ञान को पाकर मोक्ष मिले ॥

    [Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 16-32]

कृष्णार्जुन संवाद - 4.1


    इस अविनाशी योग को मैंने, सूर्य को सबसे पहले कहा । 
    सूर्य ने इसको कहा मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा ॥ 

    परम्परा से प्राप्त योग यह, राजर्षियों को ज्ञात हुआ । 
    बहुत समय हो जाने से यह, लगभग यहाँ समाप्त हुआ ॥ 

    वही पुरातन योग आज यह, मैंने तुमको बतलाया । 
    भक्त हो मेरे, मित्र हो तुम, उत्तम रहस्य को समझाया ॥ 

    आपका जन्म तो अभी हुआ है, सूर्य तो बहुत पुराना है । 
    किस प्रकार मैं जानूँ सूर्य ने, योग को आपसे जाना है ॥ 

    बहुत से मेरे जन्म हो चुके, हुए हैं जन्म तुम्हारे भी । 
    मुझको सब है ज्ञात, पार्थ तुम, नहीं जानते हो कुछ भी ॥ 

    अजन्मा हूँ अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ प्राणियों सबका । 
    अवलम्बन प्रकृति का ले, अपनी माया से प्रकट होता ॥ 

    जब जब भी है धर्म की हानि, होती, भारत, इस जग में। 
    वृद्धि अधर्म की होती है, लेता तब तब अवतार हूँ मैं ॥ 

    सज्जनों की रक्षा के लिए, नष्ट दुर्जनों को करने । 
    धर्म की स्थापना हेतु, होता हूँ प्रकट मैं हर युग में ॥ 

    जन्म और कर्म हैं दिव्य मेरे, इसको जो तत्व से जानता है । 
    पुनर्जन्म उसका नहीं होता, प्राप्त मुझे वह करता है ॥ 

    क्रोध राग और भय से रहित जो, मेरी शरण में आते हैं । 
    हो ज्ञान रूप तप से पवित्र, मेरी भक्ति को पाते हैं ॥ 

    जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं उनको वैसे भजता । 
    हे पार्थ सभी व्यक्ति करते हैं, अनुसरण मेरे पथ का ॥ 

    कर्म के फल को चाहने वाले, पूजन करते देवों का । 
    मनुष्य लोक में शीघ्र है मिलता, कर्म किये जो, फल उनका ॥ 

    गुण और कर्मों के विभाग से, चार वर्ण हैं मैंने रचे । 
    उनका कर्त्ता होते हुए भी, अकर्त्ता अव्यय समझो मुझे ॥ 

    कर्म लिप्त नहीं करते मुझे, नहीं मेरी उनके फल में स्पृहा ।
    जो इस प्रकार जानता मुझको, कर्मों से वह नहीं बंधता ॥ 

    यह जानकर करते थे कर्म, मुमुक्षु पूर्वकाल में भी । 
    किये थे कर्म उन्होंने जैसे, अर्जुन, कर्म करो तुम भी ॥ 

    [Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 1-15] 

Friday, December 27, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 3.3


    धारण अध्यात्म चित्तवृत्ति कर, सब कर्म समर्पित मुझमें करो । 
    आशा ममता का करो त्याग, तुम शोकरहित हो युद्ध करो ॥ 

    अनुसरण मेरे इस मत का, मानव नित्य जो करते हैं ।  
    वे श्रद्धावान असूया रहित, कर्मों से निश्चित तरते हैं ॥ 

    लेकिन जो व्यक्ति असूया वश, मेरे मत को नहीं अपनाते ।
    वे ज्ञान से मूढ़, विवेक रहित, उनके पुरुषार्थ व्यर्थ जाते ॥

    ज्ञानवान भी चेष्टा करते, जैसा हो स्वभाव उनका ।
    संचालित प्रकृति से प्राणी, निग्रह से हो सिद्धि क्या ॥

    अवश्यम्भावी है राग द्वेष, इन्द्रियों का अपने विषयों में ।
    इन दोनों के आधीन न हो, ये बाधा साधक के पथ में ॥

    स्वधर्म का पालन भले, परिपक्वता से हो रहित।
                 परधर्म के भलीभाँति पालन, से परन्तु श्रेष्ठ है ।
    निज धर्म पथ में हो निधन, कल्याणकारी किन्तु वह ।
                 परधर्म के निर्वाह में, भय है बहुत, अति क्लेश है ॥ 

    किससे प्रेरित होकर, माधव, पापकर्म यह पुरुष करे ।
    नहीं चाहते हुए भी बलवश, कौन नियोजित इसे करे ॥

    यह काम एवं क्रोध, अर्जुन, रजोगुण से हो उदय ।
    भक्षक, नहीं अघाने वाला, पापी बड़ा, वैरी है यह ॥

    धुएँ से अग्नि आच्छादित, धूल से दर्पण जैसे ढके ।
    हो आवृत गर्भ जरायु से, उसी तरह यह ज्ञान ढके ॥

    कभी नहीं बुझती जो अग्नि, काम का रूप भी है ऐसा ।
    ज्ञानी का यह नित्य है वैरी, ज्ञान को, अर्जुन, इसने ढका ॥

    आश्रय स्थल कहे जाते हैं, इन्द्रियाँ मन बुद्धि इसके ।
    इनके द्वारा ज्ञान को ढक कर, मोहित यह देही को करे ॥

    इसलिए सबसे पहले अर्जुन, इन्द्रियों को तुम वश में करो ।
    जो नष्ट ज्ञान विज्ञान करे, इस काम को तुम विनष्ट करो ॥ 

    इन्द्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता, इन इन्द्रियों से भी मन है श्रेष्ठ ।
    मन से भी बुद्धि श्रेष्ठतर है,  किन्तु बुद्धि से भी वह श्रेष्ठ ॥

    जान उसे बुद्धि से श्रेष्ठ, तुम बुद्धि से मन को वश में करो ।
    काम, जो नहीं अघाए कभी, उस शत्रु को, अर्जुन, नष्ट करो ॥

    [Source: Geeta Chapter - 3, कर्मयोग, Verse: 30-43]

Thursday, December 26, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 3.2


    आत्म में जिनकी प्रीति है, आत्म में तृप्ति है जिनको । 
    संतुष्ट आत्म में जो व्यक्ति, कर्त्तव्य कर्म नहीं उनको ॥ 

    ऐसा नहीं कुछ, जो उन्हें करना, जो नहीं करना, ऐसा भी नहीं । 
    सभी प्राणियों में उनको,  किसी हेतु भी आश्रय लेना नहीं ॥

    इसलिए त्याग आसक्ति को, भली भाँति निरन्तर कर्म करो । 
    आसक्ति रहित कर्मों से पुरुष को, परम लक्ष्य की प्राप्ति हो ॥

    जनक आदि को, कर्मों से ही, परम सिद्धि उपलब्ध हुई । 
    लोककल्याण की दृष्टि से भी, कर्म तुम्हारे लिए सही ॥ 

    श्रेष्ठ पुरुष करता जो आचरण, अन्य लोग अपनाते हैं । 
    वह जो प्रमाण कर देता है, वे उसको लक्ष्य बनाते हैं ॥ 

    हे पार्थ, कोई कर्त्तव्य नहीं, जो करना मुझे त्रिलोकी में । 
    कुछ पाना नहीं, नहीं करना त्याग, प्रवृत्त कर्म में फिर भी मैं ॥

    यदि सावधानी पूर्वक मैं, कर्म में प्रवृत्त न होऊँ कभी । 
    मेरे पथ का तब निश्चय ही, अनुकरण करेंगे लोग सभी ॥

    यदि कर्म का मैं परित्याग करूँ, हो जाएँगे सब लोग भ्रष्ट । 
    मुझ पर उसका सब होगा दोष, मुझ से होगी यह प्रजा नष्ट ॥ 

    आसक्त होकर कर्म में, संलग्न जैसे अज्ञानी । 
    लोकहित के भाव से, निष्काम कर्म करें ज्ञानी ॥

    कर्मों में आसक्त हैं जो, उनकी बुद्धि में भ्रम न करे । 
    भली भाँति कर्म करे ज्ञानी, नियुक्त कर्म में उन्हें करे ॥

    प्रकृति के गुणों के द्वारा, किए जाते हैं कर्म सभी । 
    अहंकार से मोहित जो, 'मैं कर्ता हूँ' माने फिर भी ॥ 

    गुणों व कर्मों के विभाग को, पार्थ, तत्त्व से जानते जो । 
    इन्द्रियाँ विषयों में रत हैं, पृथक स्वयं को मानते वो ॥

    प्राकृत गुणों से मूढ हुए जो, प्रीति गुणों कर्मों में करें ।
    जो मंदमति और ज्ञानशून्य, उन्हें ज्ञानवान विचलित न करें ॥

    [Source: Geeta Chapter-3, कर्मयोग, Verse: 17-29]

Tuesday, December 24, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 3.1


    बुद्धि श्रेष्ठ यदि कर्म से, केशव, घोर कर्म क्यों मुझसे कराते । 
    जो हितकर हो, एक बताओ, आपके वचन समझ नहीं आते ॥ 

    इस लोक में निष्ठा, दो भाँति की, मेरे वचन जैसे दर्शाते । 
    ज्ञानयोग को सांख्य उपासक, योगी कर्मयोग अपनाते ॥ 

    आरम्भ रोककर कर्मों का, नैष्कर्म्य अवस्था मिलती नहीं ।
    कर्मों के परित्याग मात्र से, सिद्धि प्राप्त हो सकती नहीं ॥ 

    किसी काल में, कोई न रहता, कर्म किये बिन, क्षण भर भी । 
    वश हो, स्वभाव से प्राप्त गुणों के, प्रवृत्त कर्म में होते सभी ॥

    कर्मेन्द्रियों को वश में रखकर, संयम अपना दिखलाता । 
    मन से करे विषयों का स्मरण, वह मिथ्याचारी कहलाता ॥ 

    इन्द्रियों को मन से वश में कर, जो प्रवृत्त कर्म में होता है ।
    फल में आसक्ति नहीं जिसको, वह श्रेष्ठ सभी में होता है ॥ 

    जो शास्त्र विहित वे कर्म करो, अकर्म से कर्म श्रेष्ठतर है । 
    यदि कर्मों का कर दोगे त्याग, तन का निर्वाह भी दुष्कर है ॥ 

    बन्धनकारी वे कर्म यहाँ, जो कर्म यज्ञ के हेतु न हो । 
    हे कुन्तीपुत्र, आसक्ति त्याग, यज्ञार्थ कर्म भली भाँति करो ॥ 

    यज्ञ के द्वारा, सृष्टि रचकर, प्रजापति ने वचन कहे । 
    इससे वृद्धि को प्राप्त करो तुम, जो अभीष्ट हो, इससे मिले ॥ 

    देवों को प्रसन्न करो इससे, वे देव प्रसन्नता देंगे तुम्हें । 
    प्रसन्न परस्पर करने से, जो परम श्रेष्ठ, वह मिले तुम्हें ॥

    यज्ञ से तृप्त देवतागण, देंगे जो तुमको अभीष्ट भोग । 
    वह चोर, प्रदत्त वस्तुओं का, देवों को दिए बिन, करे भोग ॥

    अवशिष्ट यज्ञ का करे ग्रहण, तो सभी पाप मिट जाते हैं । 
    निज हेतु पकाते जो भोजन, वे पापी पाप ही खाते हैं ॥ 

    अन्न से निर्मित प्राणी हों, वर्षा से अन्न का उत्पादन । 
    यज्ञ से होती है वर्षा, कर्मों से यज्ञ का होता सृजन ॥ 

    कर्म का उद्भव ब्रह्म से है, ब्रह्म को अक्षर से जानो । 
    ब्रह्म सर्वव्यापी को तुम, यज्ञ में नित्य स्थित जानो ॥

    इस भाँति प्रवर्तित कर्म चक्र का, पालन जो नहीं करता है । 
    इन्द्रियासक्त, जो पाप में रत, वह व्यर्थ ही जीवन जीता है ॥

    [Source: Geeta Chapter-3, कर्मयोग, Verse: 1-16]


Monday, December 23, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.5



    समाधिस्थ उस स्थितप्रज्ञ के, लक्षण कैसे होते हैं । 
    केशव, वे बात किस तरह करते, कैसे रहते, चलते हैं ॥ 

    मन की सभी कामनाओं का, जब वे त्याग कर देते हैं । 
    अपने आत्म में तृप्त हो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब कहते हैं ॥ 

    दुःख में जो उद्विग्न न हों, स्पृहा से रहित सुख में रहते । 
    हो राग नहीं, भय क्रोध न हो, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब हैं कहते ॥ 

    शुभ पाकर होते नहीं हर्षित, अशुभ से द्वेष नहीं करते । 
    अनासक्त सर्वत्र जो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही हैं कहते ॥ 

    अपनी इन्द्रियाँ विषयों से, जो उसी प्रकार हटाते हैं । 
    जैसे कछुआ अंग समेटे, स्थितप्रज्ञ कहलाते हैं ॥ 

    विषयों के हट जाने पर भी, उनके रस में रहती रुचि । 
    परम तत्त्व दर्शन करने पर, उसमें भी होती अरुचि ॥ 

    ये इन्द्रियाँ, किन्तु हे अर्जुन, स्वभाव से उग्र ही होती हैं । 
    विवेकशील व्यक्ति का मन भी, बलपूर्वक हर लेती हैं ॥ 

    इन सबको संयम में लाकर, जो मेरे परायण रहते हैं । 
    ये इन्द्रियाँ जिनके वश में हैं, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥ 

    चिंतन विषयों का करने से, उनमें होती है आसक्ति । 
    आसक्ति से बनती है कामना, उससे क्रोध की उत्पत्ति ॥ 

    सम्मोह क्रोध से होता है, सम्मोह से होता स्मृतिनाश । 
    उससे बुद्धि हो जाती नष्ट, जिससे होता है पूर्ण विनाश ॥ 

    लेकिन जो संयमी होते हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ वश में हैं । 
    विषयों के सेवन से भी वे, प्राप्त प्रसन्नता करते हैं ॥ 

    प्रसाद प्राप्त कर लेने पर, मुक्ति दुःख से मिल जाती है । 
    हो चित्त प्रसन्न, शीघ्र ही उनकी, बुद्धि स्थित हो जाती है ॥ 

    जिसने मन को नहीं जीता है, भला उसको बुद्धि हो प्राप्त कहाँ । 
    नहीं ध्यान करे, न मिले शान्ति, जो अशांत है, उसको सुख है कहाँ ॥ 

    जैसे जल में बहती नाव को, वायु हर ले जाती है । 
    जिस इन्द्रिय में है रमता मन, वह बुद्धि हर ले जाती है ॥ 

    इसलिए विषयों से जो अपनी, इंद्रियों को वश कर लेते हैं । 
    महाबाहो, जिनके वश में मन, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥ 

    जो रात्रि सभी प्राणियों हेतु, उसमें वे संयमी जागते हैं । 
    जिसमें जागते रहते प्राणी, रात्रि उसे वे मानते हैं ॥ 

    परिपूर्ण समुद्र में जैसे नदियाँ, क्षोभ रहित हो करें प्रवेश । 
    करती प्रवेश कामना जिसमें, वह शान्ति पाए, उसे नहीं क्लेश ॥ 

    सभी कामनाओं को त्यागकर, जो स्पृहा से रहित रहते । 
    नहीं ममता और अहंकार हो, शान्ति प्राप्त वो ही करते ॥ 

    हे पार्थ, ये ब्राह्मी स्थिति है, इसको पाकर कभी मोह न हो । 
    अन्तकाल में भी स्थित हो इसमें, निर्वाण प्राप्ति निश्चित हो ॥ 

    [Source: Geeta Chapter - 2, सांख्य योग, Verse: 54-72]

Sunday, December 22, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.4


    सांख्य तुम्हें अब तक बतलाया, बुद्धियोग अब करो श्रवण ।
    इस ज्ञान को, पार्थ, समझने से, मिट जाएँ सकल कर्म बंधन ॥

    होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
    इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥

    निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
    अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥

    स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
    ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥

    इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
    निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥

    तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
    निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥

    जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
    जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥

    कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
    आसक्त न हो उनके फल में, अथवा उनको नहीं करने में ॥

    आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
    समता रहे सिद्धि असिद्धि  में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥

    बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं । 
    बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥ 

    बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को । 
    योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥ 

    बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग । 
    निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥ 

    मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे । 
    सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥ 

    सुनने से विरक्त हो बुद्धि,  निश्चल जब हो जाएगी । 
    समाधि में अचल स्थापित, योग को प्राप्त कराएगी ॥ 

    [Source: Geeta Chapter-2, सांख्ययोग, Verse: 39-53]

कृष्णार्जुन संवाद - 2.3




    अविभाज्य सनातन नित्य अचल, अव्यक्त है यह सर्वत्र स्थित ।
    अचिन्त्य अविकारी, इसे जानकर, शोक तुम्हारे लिए अनुचित ॥

    यदि नित्य इसको जन्मता, और नित्य मरता मानते  ।
    इसके लिए किसी शोक का, तब भी नहीं कारण तुम्हें ॥

    जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित, मृत का है निश्चित जन्म ।
    अपरिहार्य इस सम्बन्ध में,  शोकातुर क्यों होते तुम॥

    होते सभी अव्यक्त आदि में, मध्य में रूप करें धारण ।
    अव्यक्त निधन हो जाने पर, नहीं शोक का है कोई कारण ॥

    कोई देखे आश्चर्य से इसको, कोई आश्चर्य से इसे कहे ।
    कोई आश्चर्य से सुनता है, कोई सुनने पर भी नहीं समझे ॥

    सभी शरीरों में यह देही, नित्य अवध्य अवस्थित है ।
    इसलिए सभी जीवों हेतु, यह शोक सर्वथा अनुचित है ॥

    अपने धर्म का भी यदि सोचो, युद्ध से हटना उचित नहीं ।
    धर्मयुद्ध से श्रेष्ठ जगत में, क्षत्रिय के लिए कुछ भी नहीं ॥

    धर्मयुद्ध यदि नहीं करोगे, अपकीर्ति होना तय है ।
    सज्जन को मृत्यु से ज्यादा, अपयश का होता भय है ॥

    भय के कारण युद्ध से भागा, महारथी समझेंगे तुम्हें ।
    सम्मानित जिन बीच हुए हो, वही तुच्छ समझेंगे तुम्हें ॥

    नहीं कहने से वचन सुनाते,  शत्रुओं को सुनना होगा ।
    निंदा तेरे सामर्थ्य की होगी, उससे अधिक दुःख क्या होगा ॥

    मर गए तो स्वर्ग को पाओगे, जीते तो धरा का राज्य मिले ।
    इसलिए युद्ध का निश्चय कर, हे कुन्तीपुत्र, हो जाओ खड़े ॥

    विजय पराजय, लाभ हानि को, एक समान समझ कर के ।
    करने को युद्ध तत्पर होगे तो,  पाप न कोई लगेगा तुम्हें ॥

Sunday, September 29, 2013

मंत्री की व्यथा



        युवराज के तीखे वचन सुने, मंत्रीवर उलझन में झूले ।
        ले रूप देहाती औरत का, अपने पद की गरिमा भूले ॥

        घर में कहते हैं चोर मुझे, सम्मान मगर बाहर पाता ।
        वह भी मुझसे है छीन लिया, हैं रूठे मुझसे विधाता ॥

        लेकिन मैं कुछ नहीं बोलूँगा, यह मुँह अपना नहीं खोलूँगा ।
        अब आदत सी हो गई मुझे,  इसको भी हँस कर सह लूँगा ॥

        सब दिन नहीं एक से होते हैं, जो आज हँसे कल रोते हैं ।
        दुःख पाकर नींद को भूले जो, सुख पाकर चैन से सोते हैं ॥

        ऐसे भी दिन हैं याद मुझे, बिन मांगे मोती जब थे मिले ।
        वह पाया जो नहीं सोचा कभी, था मन प्रसन्न, थे होंठ खिले ॥

        पूरे भारत का अधिपति बन, जब जय जयकार करे जन जन ।
        उस काल का जब करता हूँ स्मरण,  उत्साह मिले, प्रमुदित हो मन ॥

        विद्वान मुझे सब कहते थे, सब मुझ से प्रभावित रहते थे ।
        निष्कपट है यह सीधा साधा, ये वचन हवा में बहते थे ॥

        संगत की महिमा है भारी, इसलिए मित्र चुनो सुविचारी ।
        हतोत्साहित शल्य से हुए कर्ण,  अब संभव है मेरी बारी ॥




Tuesday, September 24, 2013

जरत्करु और आस्तिक



     
        किस कारण से जन्मेजय ने, नाग दाह आरम्भ किया ।
        आस्तिक मुनि ने क्यों उस भीषण,  सर्प यज्ञ का अंत किया ॥

        सौति से बोले शौनक, यह गाथा हमें बताओ तुम ।
        किसके पुत्र थे, ये दोनों, यह सुन्दर कथा सुनाओ तुम ॥

        नैमिषारण्य के लोगों को, यह व्यास मुनि ने सुनाई थी ।
        उनके शिष्य और मेरे पिता,  लोमहर्षण ने भी गाई थी ॥

        ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनि आस्तिक की, कथा पूर्ण बतलाता हूँ ।
        जैसी मैंने सुनी पिता से,  वैसी तुमको सुनाता हूँ ॥

        प्रजापति सा तेज था उनमें, घोर तपस्या करते थे ।
        जरत्करु वे ब्रह्मचारी, अपने निश्चय में पक्के थे ॥

        यात्रा पर थे, मार्ग में देखा, पूर्वज उनके गुफा में थे ।
        ऊपर पैर थे, सिर नीचे था, लटके ऐसी दशा में थे ॥

        कौन हैं आप जो इस भांति, इस गुफा में उलटे लटके हैं ।
        चूहों द्वारा कुतरी हुई, इस घास की रस्सी से जकड़े हैं ॥

        हम ऋषिवर हैं नियम निष्ठ, यायावर नाम हमारा है ।
        गिर रहे हैं भूमि पर क्योंकि, कोई वंशज नहीं हमारा है ॥

        हे ब्राह्मण, केवल एक ही वंशज, नाम जरत्करु है जिसका ।
        वह भी तप में संलग्न हुआ, दुर्भाग्य हमारा और उसका ॥

        वह मूर्ख नहीं करता विवाह, नहीं पुत्र की उसको चाह कोई ।
        हम लटके यहाँ, इसी कारण, मुक्ति का नहीं उपाय कोई ॥

        मैं ही जरत्करु पुत्र आपका, कहिए मुझे क्या करना है ।
        हम सबका है निर्देश यही,  तुम्हें वंश की वृद्धि करना है ॥

        यद्यपि प्रतिज्ञा मेरी है, विवाह करूँगा नहीं कभी ।
        फिर भी आपके हित के लिए, यदि यही चाहिए तो यही सही ॥

        लेकिन मेरी दो शर्ते हैं, मेरा ही नाम हो उसका भी ।
        स्वेच्छा से परिजन यदि देवें,  स्वीकार करूँगा उसे तब ही ॥

        इक दिन वन में ब्राह्मण की,  वह आर्त ध्वनि वासुकि ने सुनी ।
        अपनी भगिनी के लिए उसने, प्रस्ताव किया, मुनि बोले, "नहीं" ॥

        संभव नहीं मेरा नाम हो उसका, मुनि ने तर्क किया मन में ।
        फिर बोले, हे वासुकि सुनो, क्या नाम है उसका, कहो सच में ॥

        जरत्करु है नाम भगिनी का, उसे आप स्वीकार करें ।
        अब तक मैंने रक्षा की है, आगे से यह आप करें ॥

        पूर्वकाल में सर्पों को, उनकी माँ ने था श्राप दिया ।
        जन्मेजय की यज्ञाग्नि में,  होंगे भस्म, अभिशाप दिया ॥

        इस भीषण विपदा से बचने, वासुकि ने यह कदम लिया ।
        महामना जरत्करु के घर, आस्तिक मुनि ने जन्म लिया ॥

        कई वर्षों के बीत जाने पर, पांडव कुल के राजा ने ।
        जब सर्प यज्ञ आरम्भ किया, आस्तिक पहुंचे रक्षा करने ॥

        बड़े समय के बाद जरत्करु, के घर पुत्र का जन्म हुआ ।
        श्रेय मार्ग से जीवन जीकर, आस्तिक स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥

        [This is based on the story of Jaratkaru and his son Astika
         from Astika Parva in Mahabharata.

         Thanks to Prof. Bibek Debroy for English translation of Mahabharata.
         This story is in 'The Mahabharata' Vol. 1, Section-5, Chapter-13.]



Friday, September 20, 2013

you made me star



        when the sun wasn't shining, and good days had gone.
        you made sure i didn't stumble, that i wasn't alone.

        i made many errors, i failed many times.
        you made me recover faster, you were my enzymes.

        there aren't enough words, to express gratitude.
        for your extending help, even when i was rude.

        when people pointing fingers, had reasons to believe.
        you stood by my side, when you could take leave.

        you made it look so easy, i want to thank you all.
        for your contributions, both big and small.

        you kept me going, when things went wrong.
        it is in your honour, i compose this song.

        you gave me strength, when the goal seemed far.
        it is all your glory, you made me star.




Friday, September 13, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.2



        नहीं काल हुआ था ऐसा कभी, मैं जिसमें नहीं था, तुम थे नहीं ।
        आगे भी ऐसा होगा नहीं, जिस काल में हम सब होंगे नहीं ॥

        इस देह में जैसे मिलती है, बालक यौवन वृद्धावस्था ।
        देह अन्य उसी भांति प्राप्त हो, मोह न करते धीरव्रता ॥

        इन्द्रियों और विषयों के मेल से, शीत उष्ण सुख दुःख का सृजन ।
        आने जाने वाले ये, अनित्य हैं, इनको कर लो सहन ॥

        सुख दुःख को एक समान समझ, विचलित नहीं इनसे होता है ।
        हे पुरुषोत्तम, वह धीर पुरुष ही, योग्य मोक्ष के होता है ॥

        नहीं असत् वस्तु की है सत्ता, सत् वस्तु का है अभाव नहीं ।
        जो तत्व समझने वाले हैं, उन सबका है निष्कर्ष यही ॥

        जिससे यह सबकुछ व्याप्त हुआ, उसको तुम जानो अविनाशी ।
        विनाश करे उस अव्यय का, नहीं किसी में इतनी बलराशि ॥

        ये देह नष्ट हो जाते हैं, नहीं वो जो इन्हें धारण करता ।
        इसलिये हे भारत युद्ध करो, वो असीमित है, वो नहीं मरता ॥

        कोई मारने वाला समझे इसे, कोई मरने वाला मानता है ।
        दोनों इसको नहीं जानते हैं, न ये मरता है न ही मारता है ॥

        यह अति पुरातन, नित्य शाश्वत,  जन्मता मरता नहीं ।
        फिर फिर से है नहीं उपजता, देह नाश से मिटता नहीं ॥

        इस अज अविनाशी अव्यय को, हे पार्थ, जो पुरुष समझता है ।
        कैसे वह किसी का वध करता,  कैसे वध करवा सकता है ॥

        जैसे नर जर्जर वस्त्र त्याग, नूतन वस्त्रों को करे धारण ।
        वैसे ही जर्जर देह त्याग,  देही नव देह करे धारण ॥  

        नहीं छेद सकते शस्त्र इसको, अग्नि से नहीं यह जले ।
        वायु सुखा सकता नहीं, गीला नहीं जल कर सके ॥

     

Wednesday, September 11, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.1



        सजल नेत्र, विषाद से व्याकुल, मित्र को माधव समझाते ।
        इस विषम समय में, किस हेतु, तुम मोह में स्वयं को उलझाते ॥

        इस नपुंसकता का त्याग करो, यह मोह तुम्हारे यश को हरे ।
        दुर्बलता हृदय की छोड़ो तुम, हे परम वीर हो जाओ खड़े ॥

        पूज्य भीष्म और द्रोण हैं इन पर, किस विधि बाण चलाऊँगा ।
        मधुसूदन बतलाओ तुम ही, मैं कैसे युद्ध कर पाऊँगा ॥

        भिक्षा के अन्न से जीवन के, निर्वाह में ही मेरा हित है ।
        इन महापुरुषों के वध से मिली, संपत्ति रक्त से रंजित है ॥

        पराजय हो या मिले विजय, नहीं दोनों में ही लाभ कोई ।
        नहीं चाहते जिनके बिन जीवन, हैं युद्ध में सम्मुख खड़े वही ॥

        कायरता से अभिभूत हुआ, निज धर्म विषय में मोहित हूँ ।
        जो हितकर हो, वह शिक्षा दो, मैं शिष्य तुम्हारी शरण में हूँ ॥

        निष्कंटक राज्य हो पृथ्वी का, देवों का भी स्वामित्व मिले ।
        ऐसा नहीं कोई उपाय सुलभ, जो प्रबल शोक मेरा हर ले ॥

        'मैं युद्ध नहीं करूँगा' कह, जब अर्जुन चुप हो जाते हैं ।
        शोकातुर मित्र को हँसते हुए, श्रीकृष्ण ये वचन सुनाते हैं ॥

        जो शोक करने के योग्य नहीं, उनका तुम शोक मनाते हो ।
        भाषा पंडित सी कहते हो, व्यवहार नहीं अपनाते हो ॥

        करते नहीं पंडित शोक कोई, उनके लिए जिनमें प्राण नहीं ।
        जो प्राणवान हैं, उनके लिए भी, शोक का कोई विधान नहीं ॥






Sunday, September 8, 2013

पीछे न हटो

                             

        विपरीत परिस्थिति आई हो, जो कभी कभी आएगी।
        जिस राह पे थकें हो चलते, वो पर्वत पर जायेगी ॥

        जब कोष में सीमित धन हो, लेकिन ऋण छूता गगन हो ।
        स्वर आह का मुख से निकले, जब मुस्काने का मन हो ॥

        कुशल क्षेम की व्याकुलता, करती कदमों को भारी हो ।
        विश्राम करो यदि आवश्यक, निज पथ से तुम पीछे न हटो ॥

                                 

        मार्ग विचित्र है जीवन का, इसमें घुमाव हैं, मोड़ कभी ।
        इसकी अनुभूति हम सबको, होती है स्वतः ही कभी कभी ॥

        कितने ही पथिक मुड़ जाते हैं, निज क्षमता अल्प समझ कर के ।
        मिल सकती शीघ्र थी विजय उन्हें, यदि धैर्य धार बढ़ते रहते ॥

        धीमी गति यद्यपि हो प्रतीत, निज पथ से च्युत मत होना तुम ।
        संभव है केवल एक प्रहार, उपलब्ध करा दे विजय उत्तम ॥

                                 

        प्रायः समीप ही होता है, पर दूर लक्ष्य होता भासित ।
        जब क्षीण शक्ति हो, शिथिल हो तन, उत्साह रहित, मन अवसादित ॥

        कई बार निराश हो तजे प्रयास, संघर्ष किया जिस हेतु विपुल।
        था पारितोषिक मिलना संभव, नक्षत्र भी विजय के थे अनुकूल ॥

        भान हुआ निज भूल का तब, जब परिणामों की घड़ी आई ।
        स्वर्ण मुकुट बस तनिक दूर था, पर योजन लम्बी थी खाई ॥

                                 

        तत्त्वदृष्टि से विजय पराजय, एक वस्तु है, रूप है भिन्न ।
        संशय की मेघाकृतियों में, सीमाओं का रजत है वर्ण ॥

        निर्धारण नहीं कर सकते हो, विजय के कितने समीप हैं आप ।
        निकट सफलता होते हुए भी, लग सकती है दूर अमाप ॥

        करते रहो संघर्ष यद्यपि, भीषण क्षति से आहत हो ।
        भले प्रतिकूल परिस्थिति हो, साहस न तजो, पीछे न हटो ॥





        This is inspired by the following poem. I could not trace its author.
        As there is no authentic link available, here it is verbatim:


                                  Don't you quit

       When things go wrong, as they sometimes will,
       When the road you're trudging seems all uphill,
       When the funds are low and the debts are high,
       And you want to smile, but you have to sigh,
       When care is pressing you down a bit-
       Rest if you must, but don't you quit.

       Life is queer with its twists and turns,
       As every one of us sometimes learns,
       And many a fellow turns about
       When he might have won had he stuck it out.
       Don't give up though the pace seems slow -
       You may succeed with another blow.

       Often the goal is nearer than
       It seems to a faint and faltering man;
       Often the struggler has given up
       When he might have captured the victor's cup;
       And he learned too late when the night came down,
       How close he was to the golden crown.

       Success is failure turned inside out -
       The silver tint in the clouds of doubt,
       And you never can tell how close you are,
       It might be near when it seems afar;
       So stick to the fight when you're hardest hit -
       It's when things seem worst that you must not quit.





Friday, May 31, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 1

    हनुमान थे ध्वज पर चिन्हित, हाथ धनुष गांडीव सबल।
    देवदत्त की पांचजन्य की, शंख ध्वनि थी बड़ी प्रबल ॥

    मधुसूदन रथ आगे बढ़ाओ, मुझे करना अवलोकन है ।
    मेरे पक्ष में कौन खड़े हैं, करना किस से मुझे रण है ॥

    समर क्षेत्र के बीच पहुँच, अर्जुन करते हैं अवलोकन ।
    पिता समान कई योद्धा हैं, कई हैं मित्र और कई स्वजन ॥

    सूख रहा मेरा मुख केशव,  काँप रहा मेरा तन है ।
    धनुष हाथ से छूट रहा,  जल रही त्वचा,  विचलित मन है॥

    नहीं दिखता कोई हित मुझको, स्वजनों के संहार में ।
    रुचि नहीं कोई विजय पाने में, सुख में ना साम्राज्य में॥

    तुच्छ है सत्ता, तुच्छ भोग है, तुच्छ है जीवन का विस्तार।
    इन सबकी जिन हेतु कामना, युद्ध भूमि पर है परिवार ॥

    इनके वध की नहीं है इच्छा, भले करें ये मुझ पर वार ।
    तीन लोक मिल जाने पर भी,  बन्धु हनन नहीं स्वीकार ॥

    आततायी यद्यपि ये लोग हैं, फिर भी इनका वध है पाप ।
    स्वजनों के संहार के भय से, होता है मन में संताप ॥

    लोभ के वश ये नहीं देखते, मित्र द्रोह भारी अपराध ।
    हमें समझ है, हम किस हेतु, निज कुल क्षय में देवें साथ ॥

    कैसी विचित्र परिस्थिति माधव, इसमें भूल हमारी है।
    राज्य सुखों की तृष्णा वश, विध्वंस की अब तैयारी है ॥

Sunday, May 19, 2013

धूप और कबूतर




                48 डिग्री धूप ने देखो,
                      कैसा कहर बरपाया है।
                तपे हुए पंखों को लेकर,
                      कबूतर घर में आया है ॥ 

                राहत थोड़ी मिली प्राणी को,
                      चैन की सांस उसे आई । 
                घर के अन्दर उसने पाई,
                      मौसम में कुछ ठंडाई ॥ 

                सोचा बाहर धूप है ज्यादा,
                      थोड़ी देर मैं यहीं रहूँ । 
                गर्म हवाएं सहकर आया,
                      ठंडी हवा में सांस भरूँ ॥ 

                शीतल जल थोड़ा मिल जाए,
                      कुछ ऐसा मैं करूँ उपाय । 
                यह अवसर किस्मत से पाया,
                      खाली हाथ न जाने पाय ॥ 

                 देख रसोई, मुंह में पानी,
                       रोज मैं दूर भटकता हूँ । 
                 इतना भोजन हाथ लगा है,
                       आज कुछ तूफानी करता हूँ ॥ 

                 अति लोभ विनाश की जड़ है,
                       ज्ञानी जन देते उपदेश । 
                 अज्ञानी श्रीसांत भी अपने,
                       कर्मों से देते सन्देश ॥

                 प्यास बुझाई, क्षुधा मिटाई,
                       अन्तःकरण भी तृप्त हुआ । 
                 इतना सुख था कभी न पाया,
                       मन प्रसन्नता युक्त हुआ ॥ 

                 चहक उठा, मन महक उठा,
                       स्वर गूंजे, माधुर्य भरे । 
                 मस्ती छाई, चाल भी बदली,
                       धूप से अब काहे को डरे ॥ 


Tuesday, March 5, 2013

क्या कभी दिन ये बदलेंगे

        

                हताशा है निराशा है, क्या कभी दिन ये बदलेंगे ।
                नहीं कोई निशाँ दिखता, जो बिगड़े हैं वे सुधरेंगे ।।
                भले ही लाख अपने को, भुलावा दें दिलासा दें ।
                जो पैरों पे कुल्हाड़ी दे, वो दुःख से कैसे उबरेंगे ।।

                समझ आता नहीं कैसे, ये हालत हो गयी इन की ।
                न कोई दीखता काबिल, कहें जिससे दशा मन की ।।
                भुलाए भूल ना पाते, यही वे लोग हैं प्यारे ।
                जिनके ऊपर भरोसा था, रखेंगे लाज वतन की ।।

                दोष दें भी तो किसको दें, सभी कहने को अपने हैं ।
                शत्रु भी जब इस मेले में, मित्र का वेश पहने हैं ।।
                सही है क्या गलत है क्या, नहीं कुछ फर्क दिखता है ।
                उजाला हो तो मालुम हो, सर्प हैं या फिर गहने हैं ।।

                जब अवसर था नहीं चेते, शर्म से सिर ये झुकता है ।
                जो अपने देश को लूटे, नहीं अब उनसे रिश्ता है ।
                जगाने पर नहीं जागे,  रहे सोये खयालों में ।
                उठो पगलों, धूप छाई, चलना अभी लंबा रस्ता है ।।

Sunday, March 3, 2013

मोदी उवाच

                                     
  मोदी को पहना कंठहार, जब राजनाथ जी गले मिले।
  नेतागणों को एक देख, भाजप वालों के कमल खिले ।।

  मोदी बोले, सुनो 'मित्रों', यह अभिवादन मुझे भाया है ।
  गुजरात की जनता जीती है, हमने इतिहास बनाया है ।।

  क्रिकेट कमेंटरी की तरह, इस सभा का प्रसारण हो रहा है।
  मैं संबोधित करता तुम्हें, पुजारा ऑस्ट्रेलिया को धो रहा है।।

  गरीब के घर चूल्हा न जले,  मंहगाई की उसको मार पड़े ।
  क्या दिल्ली तख़्त पर है कोई, इसका भी किसी को पता न चले ।।

  देश के लिए कुछ करने का, जज्बा कांग्रेस में है ही नहीं ।
  जब चीन कोरिया आगे बढे, इस देश को बढ़ने दिया नहीं ।।

  देशहितों को बलि चढ़ा, परिवार की पूजा होती है ।
  जब नाईट वाचमेन नेता हों,  तब देश की किस्मत सोती है ।। 

  पांच सितारा एक्टिविस्ट, टोला जब देश चलाता है ।
  परिवार छुपा रहता पीछे, पी एम न कुछ कर पाता है ।।

  परिवार को जिनसे खतरा था, उनका करियर कभी बन न सका ।
  कांग्रेस को छोड़ जो आगे बढा, वही सिंहासन पर बैठ सका ।।

  सार्वजनिक जीवन में कांग्रेस, दीमक बन के छाई है ।
  भाजप कार्यकर्ता का पसीना, इसकी एक दवाई है ।।

  देश की जनता ठान चुकी, कांग्रेस से मुक्ति पाना है ।
  योग्य हाथ में सत्ता पहुंचे,  हमको करके दिखाना है ।।

  हर भारतवासी के मन में, अरमान नए जगाने हैं ।
  सवासौ करोड़ को साथ में लेकर, किस्से नए बनाने हैं ।।

  खजाने को लुटाने भर को, आर्थिक सुधार नहीं कहते ।
  आर्थिक शक्ति बनने के सपने, इस सरकार ने नहीं देखे ।।

  प्रामाणिकता है स्वभाव देश का, इसे मजबूत बना सकते ।
  नीति आधारित व्यवस्था बना कर, भ्रष्टाचार मिटा सकते ।।

  भाजप के व्यवहार को देखो, झलक मिशन की दिखती है ।
  कांग्रेस की कार्यशैली में, कमीशन की झांकी मिलती है।।

  कांग्रेस से देश को मुक्ति दिलाना, राष्ट्र भक्ति का कार्य है ।
  सुराज्य स्थापित करने हेतु, करना यह अनिवार्य है ।।

  विकास समय की मांग है 'मित्रों',  सुशासन ही देता न्याय है 
  समस्याओं के समाधान का, विकास ही एक उपाय है ।।

  निराश देश को करने का, अधिकार हमें है मिला नहीं ।
  घना अँधेरा छाया है पर,  दिया जलाना मना नहीं ।।

  [based on Modi's speech in BJP's National Council Meet 2013]
           
            
            


Sunday, January 6, 2013

यदि

   यदि तुम रख सकते धीरज, जब हर कोई हुआ अधीर ।
   दोषारोपण तुम पर कर के, कटु शब्दों के मारे तीर ।।
   यदि निज पर रख सकते श्रद्धा, जब तुम पर हो सबकी शंका ।
   ज्ञात नहीं हो तुमको कारण, क्यों सब हैं करते आशंका ।।
   यदि तुम कर सकते प्रतीक्षा, तन मन की थकान बिना ।
   सबकी झूठी बातें सुन भी,  सत्य बोलना तुमने चुना ।।
   यदि नहीं करते घृणा किसी से, यद्यपि घृणा हैं करते लोग ।
   अपनी श्रेष्ठता नहीं दिखाते, मन में होता है संकोच ।।
 
   यदि देख सकते तुम सपने, पर सपनों  के दास नहीं ।
   यदि विचार कर सकते मन में, ध्येय तुम्हारा विचार नहीं ।।
   यदि तुम रख सकते समता, जीत मिले या हार मिले ।
   दोनों एक समान समझते, बादल हों या धूप खिले ।।
   यदि तुममें सुनने की शक्ति, सीधी सच्ची बात तुम्हारी ।
   तोड़ मोड़ के गयी परोसी, उलझन पैदा करती भारी ।।
   यदि देख सकते हो ढहते, जिसे बनाते आयु गुजारी ।
   जीर्ण शीर्ण उपकरण जुटा कर, पुनर्निर्माण की यदि तैयारी ।।

   यदि तुम कर सकते संग्रह, जीवन भर जो कुछ भी कमाया ।
   यदि लगा सकते हो दाव पर, सारी पूँजी जो कुछ पाया ।।
   यदि हार जाने पर सबकुछ, कर सकते शुरुआत नई ।
   ना ही मन में ग्लानि करते, ना ही हार की बात कोई ।।
   यदि कर सकते हृदय को वश में, अंग अंग को नस नस को ।
   कि वे साथ तुम्हारा दें जब, हुए अचेतन वे सब हों ।।
   यदि रोक कर रख सकते हो, जीवन के अंतिम तृण को ।
   इच्छाशक्ति इतनी प्रबल हो, 'रुके रहो तुम' यह प्रण हो ।।

   यदि कर सकते बात हो सबसे, सदगुण अपने खोते नहीं ।
   राजा के संग चलते हुए भी, अपनी सरलता खोते नहीं ।।
   यदि प्रिय मित्र व्यथित नहीं करते, दुःखी नहीं करते शत्रु कोई।
   सबके लिए है सोच तुम्हारी, विशेष नहीं है परन्तु कोई ।।
   यदि भर सकते एक मिनट में, साठ क्षणों में जो दूरी चली ।
   दृढ़ संकल्प डिगा नहीं सकती, कोई परिस्थिति बुरी भली ।।
   यह पूरी वसुधा है तुम्हारी, वह सबकुछ जो इसमें हो ।
   हे पुत्र मेरे इन सबसे बढ़कर, तुम मानव हो, तुम मानव हो ।।

     
यह रुडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध 'IF' कविता का हिंदी में अनुवाद का मेरा प्रयत्न है|
उनकी मूल कृति यहाँ उपलब्ध है|
 
-- श्यामेंद्र सोलंकी

Saturday, January 5, 2013

आभार

      
   
           अदभुत कविता अदभुत रचना 
                लोगों ने कई 'वाह' दिए ।
           पुरस्कार में मफलर पाकर 
                मैंने मूँछ पे ताव दिए ।।

           क्या यह तुमने ही लिखी है 
                मित्र गणों ने किया सवाल ।
           यह भारत भूमि है बन्धु 
                किसी की मेहनत किसी को माल ।।

           दोस्त तेरी कविता की भाषा 
                मुझे समझ नहीं आई ।
           मातृभाषा अपनी पढ़ने में 
                होती है अब कठिनाई ।।

           कोशिश सरल शब्द चुनने की 
                कवि ने की है इस बारी ।
           अभिनन्दन है आप सभी का 
                मैं हूँ आपका आभारी ।।

                    -- श्यामेंद्र सोलंकी 

Thursday, January 3, 2013

बढे चलें हम

     
     सरल नहीं यह कार्य कठिन है 
         हम पर लगी हैं सभी निगाहें ।
     मीलों दूर है मंजिल अपनी 
         नयी बनानी होंगी राहें ।।

     धूमिल नभ है मार्ग है दुस्तर
         बाधाएं होंगी यह तय है ।
     सहनशीलता धैर्य बढ़ा लो 
         विपदाएं आने का भय है ।।

     विगत सभी त्रुटियों से बचकर 
         अहंकार ग्लानि को तजकर ।
     नए वर्ष में नयी उमंगें 
         नव संकल्पशक्ति को भरकर ।।

     साहसयुक्त बुद्धिकौशल से
         अथक परिश्रम पूर्ण लगन से ।
     ध्येय प्राप्ति को बढे चलें हम 
         अविचल निष्ठा पुलकित मन से ।।

                     श्यामेंद्र सोलंकी