Monday, July 28, 2014
जीर्ण धनुष
शिव के धनुष को तोड़ दिया, सुन, परशुराम सभा में आए ।
सिर पर जटा, भृकुटि है तिरछी, हाथ में फरसा, क्रोध दिखाए ॥
देख भयानक वेश को राजा, भय से त्रस्त, आसन से उठते ।
पिता सहित नाम निज लेते, दंडवत मुनि चरणोँ में करते ॥
सीता ने भी किया प्रणाम, जनक ने सारी कथा सुनाई ।
परशुराम ने फिरकर देखा, धनुष के टुकड़े दिए दिखाई ॥
मुनि तब क्रोध में भरकर बोले, मूर्ख जनक, इसे किसने तोड़ा ।
जनक मौन, उत्तर नहीं देते, सबके मन में भय है थोड़ा ॥
लोग सभी भयभीत देखकर, राम उठे, नहीं हर्ष न त्रास ।
नाथ, धनुष को जिसने तोड़ा, निश्चय होगा आपका दास ॥
परशुराम तब राम से बोले, सेवक वही जो करता सेवा ।
शिव के धनुष को तोड़ने वाला, दुष्टकर्मी है शत्रु मेरा ॥
जिसने ऐसा काम किया है, सभा छोड़ पृथक हो जाए ।
अन्यथा कोप हमारा लेगा, प्राण सभी के, जो भी आए ॥
मुनि को सुन, लक्ष्मण मुस्काए, परशुराम को वचन सुनाए ।
ऐसे धनुष बहुत से तोड़े, क्रोध में पहले आप न आए ॥
क्योँ इस धनुष में इतनी ममता, अन्य में कोई मोह नहीं ।
शिव का धनुष प्रसिद्ध है जग में, रे बालक तुझे होश नहीं ॥
लक्ष्मण हँसे, कहा हे भगवन, सभी धनुष हैं एक समान ।
जीर्ण धनुष टूटा, क्या हानि, राघव लिए थे नूतन मान ॥
यह तो टूट गया छूते ही, राम का इसमें दोष नहीं ।
मुनिवर इतनी छोटी बात पर, उचित आपका रोष नहीं ॥
अरे दुष्ट, तू मुझे न जाने, समझे मुझको निरा मुनि ।
क्षत्रिय कुल का शत्रु हूँ मैं, मेरा क्रोध महा अग्नि ॥
पृथ्वी भूप रहित कर डाली, मेरे हाथ से जब बरसा ।
काटी भुजाएँ सहस्रबाहु की, अति भयानक यह फरसा ॥
लक्ष्मण हँसते, मुनि तुम निज को, योद्धा मानते बहुत बड़े ।
मुझे दिखाते अपनी कुल्हाड़ी, फूँक से पर्वत नहीं उड़े ॥
कुम्हड़े की बतिया नहीं कोई, तर्जनी देखते जो मर जाए ।
मुनि पर शस्त्र उठाते न कुल में, आपकी बात पे रोष न आए ॥
विश्वामित्र, कुटिल यह बालक, कुल पर अपने कलंक लगाए ।
मेरी महिमा इसे बता दो, काल का ग्रास न यह बन जाए ॥
आपका यश और महिमा मुनिवर, आपसे श्रेष्ठतर कौन बताए ।
अपनी करनी पहले बताई, फिर कहिये यदि मन न अघाए ॥
क्रोध रोककर क्योँ दुःख पाते, गाली न आपकी शोभा बढ़ाए ।
युद्ध में डींग हाँकते कायर, शूरवीर करनी कर जाए ॥
लक्ष्मण की कटु वाणी सुनकर, फरसे को मुनि हाथ में लाए ।
दोष मुझे नहीं देना कोई, यह निज मृत्यु स्वयं बुलाए ॥
बालक का अपराध न देखें, क्षमा करें लक्ष्मण को आप ।
विश्वामित्र, तुम्हारे प्रेम से, अनदेखा करता हूँ पाप ॥
आपके शील को कौन न जाने, लक्ष्मण फिरसे लगे उकसाने ।
फरसा मुझको आप दिखाते, मैं लगा आपके प्राण बचाने ॥
वीर बली नहीं मिले आपको, ब्राह्मण तुम घर में ही सयाने ।
'अनुचित अनुचित' उठी पुकारें, राम ने रोका, लक्ष्मण माने ॥
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