Saturday, December 28, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 4.2
क्या कर्म है, है अकर्म क्या, इस विषय में मोहित सब व्यक्ति ।
वह कर्म का तत्त्व कहूँगा तुम्हें, जिसे समझ अशुभ से मिले मुक्ति ॥
आवश्यक है ज्ञान कर्म का, समझ आवश्यक विकर्म की ।
अकर्म का बोध भी होना चाहिए , गहन गति है कर्मों की ॥
अकर्म देखता कर्म में जो, कर्म अकर्म में देखता है ।
वह बुद्धिमान मनुष्यों में, कर्मों का सम्यक कर्त्ता है ॥
सभी कर्म जिस व्यक्ति के हों, कामना और संकल्प रहित।
कर्म ज्ञान से दग्ध हैं जिसके, ज्ञानी उसे कहते पंडित ॥
आसक्ति कर्म के फल की त्याग, जो नित्य तृप्त, नहीं चाहते कुछ ।
कर्म प्रवृत्त भलीभांति होते हुए, कर्म नहीं करते वे कुछ ॥
आशा नहीं कोई, मन संयत, त्याग सभी भोगों का करे ।
कर्म देह निर्वाह निमित्त हों, पाप ग्रस्त नहीं होते वे ॥
जो स्वतः मिले, उसमें संतुष्ट, निर्द्वन्द्व हैं, ईर्ष्या जिन्हें नहीं ।
समता है सिद्धि असिद्धि में, करते हैं कर्म पर बंधते नहीं ॥
आसक्ति रहित हैं, मुक्त हैं जो, चित्त है जिनका ज्ञान में लीन ।
यज्ञ हेतु करते हैं आचरण, हों उनके सब कर्म विलीन ॥
ब्रह्म ही है सामग्री यहाँ, ब्रह्म को ही यह अर्पित है ।
ब्रह्म अग्नि है यज्ञ की जिसमें, ब्रह्म ही करे समर्पित है ॥
आहुति की क्रिया ब्रह्म है, इसमें समाहित होता मन।
चित्त समाहित ब्रह्म में जब हो, ब्रह्म से ही होता है मिलन॥
देवताओं के लिए यज्ञ की, करें उपासना कुछ योगी ।
ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ को, देते हैं आहुति कुछ योगी ॥
इन्द्रियों की देते हैं आहुति, संयम रूप अग्नि में कोई ।
विषयों की देते हैं आहुति, इन्द्रिय रूप अग्नि में कोई ॥
आत्म संयम रूप अग्नि में, ज्ञान से जो प्रज्वलित हुई ।
इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाएँ, इनकी आहुति देते कोई ॥
कोई करते यज्ञ द्रव्यरूपी, करते तपरूपी यज्ञ कोई ।
कोई यज्ञ योगरूपी करते, स्वाध्याय और ज्ञान का यज्ञ कोई ॥
अपान में आहुति प्राण की देते, अपान की प्राण में देते तथा ।
प्राण अपान की गति रोकते, प्राणायाम में जिनकी निष्ठा ॥
आहार नियत अपनाते कोई, प्राणों में प्राण की आहुति दें ।
प्रयत्नशाली व्यक्ति सभी ये, पालन तीक्ष्ण व्रतों का करें ॥
ये सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं, जो यज्ञ से पाप क्षीण कर के ।
सनातन ब्रह्म को करें प्राप्त, अवशेष यज्ञ का पाकर के ॥
अनेक भाँति के यज्ञ इस तरह, वर्णन वेद में जिनका मिले ।
जानो इनको कर्म जनित, इस ज्ञान को पाकर मोक्ष मिले ॥
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 16-32]
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