Wednesday, September 11, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 2.1



        सजल नेत्र, विषाद से व्याकुल, मित्र को माधव समझाते ।
        इस विषम समय में, किस हेतु, तुम मोह में स्वयं को उलझाते ॥

        इस नपुंसकता का त्याग करो, यह मोह तुम्हारे यश को हरे ।
        दुर्बलता हृदय की छोड़ो तुम, हे परम वीर हो जाओ खड़े ॥

        पूज्य भीष्म और द्रोण हैं इन पर, किस विधि बाण चलाऊँगा ।
        मधुसूदन बतलाओ तुम ही, मैं कैसे युद्ध कर पाऊँगा ॥

        भिक्षा के अन्न से जीवन के, निर्वाह में ही मेरा हित है ।
        इन महापुरुषों के वध से मिली, संपत्ति रक्त से रंजित है ॥

        पराजय हो या मिले विजय, नहीं दोनों में ही लाभ कोई ।
        नहीं चाहते जिनके बिन जीवन, हैं युद्ध में सम्मुख खड़े वही ॥

        कायरता से अभिभूत हुआ, निज धर्म विषय में मोहित हूँ ।
        जो हितकर हो, वह शिक्षा दो, मैं शिष्य तुम्हारी शरण में हूँ ॥

        निष्कंटक राज्य हो पृथ्वी का, देवों का भी स्वामित्व मिले ।
        ऐसा नहीं कोई उपाय सुलभ, जो प्रबल शोक मेरा हर ले ॥

        'मैं युद्ध नहीं करूँगा' कह, जब अर्जुन चुप हो जाते हैं ।
        शोकातुर मित्र को हँसते हुए, श्रीकृष्ण ये वचन सुनाते हैं ॥

        जो शोक करने के योग्य नहीं, उनका तुम शोक मनाते हो ।
        भाषा पंडित सी कहते हो, व्यवहार नहीं अपनाते हो ॥

        करते नहीं पंडित शोक कोई, उनके लिए जिनमें प्राण नहीं ।
        जो प्राणवान हैं, उनके लिए भी, शोक का कोई विधान नहीं ॥






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