Tuesday, September 24, 2013

जरत्करु और आस्तिक



     
        किस कारण से जन्मेजय ने, नाग दाह आरम्भ किया ।
        आस्तिक मुनि ने क्यों उस भीषण,  सर्प यज्ञ का अंत किया ॥

        सौति से बोले शौनक, यह गाथा हमें बताओ तुम ।
        किसके पुत्र थे, ये दोनों, यह सुन्दर कथा सुनाओ तुम ॥

        नैमिषारण्य के लोगों को, यह व्यास मुनि ने सुनाई थी ।
        उनके शिष्य और मेरे पिता,  लोमहर्षण ने भी गाई थी ॥

        ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनि आस्तिक की, कथा पूर्ण बतलाता हूँ ।
        जैसी मैंने सुनी पिता से,  वैसी तुमको सुनाता हूँ ॥

        प्रजापति सा तेज था उनमें, घोर तपस्या करते थे ।
        जरत्करु वे ब्रह्मचारी, अपने निश्चय में पक्के थे ॥

        यात्रा पर थे, मार्ग में देखा, पूर्वज उनके गुफा में थे ।
        ऊपर पैर थे, सिर नीचे था, लटके ऐसी दशा में थे ॥

        कौन हैं आप जो इस भांति, इस गुफा में उलटे लटके हैं ।
        चूहों द्वारा कुतरी हुई, इस घास की रस्सी से जकड़े हैं ॥

        हम ऋषिवर हैं नियम निष्ठ, यायावर नाम हमारा है ।
        गिर रहे हैं भूमि पर क्योंकि, कोई वंशज नहीं हमारा है ॥

        हे ब्राह्मण, केवल एक ही वंशज, नाम जरत्करु है जिसका ।
        वह भी तप में संलग्न हुआ, दुर्भाग्य हमारा और उसका ॥

        वह मूर्ख नहीं करता विवाह, नहीं पुत्र की उसको चाह कोई ।
        हम लटके यहाँ, इसी कारण, मुक्ति का नहीं उपाय कोई ॥

        मैं ही जरत्करु पुत्र आपका, कहिए मुझे क्या करना है ।
        हम सबका है निर्देश यही,  तुम्हें वंश की वृद्धि करना है ॥

        यद्यपि प्रतिज्ञा मेरी है, विवाह करूँगा नहीं कभी ।
        फिर भी आपके हित के लिए, यदि यही चाहिए तो यही सही ॥

        लेकिन मेरी दो शर्ते हैं, मेरा ही नाम हो उसका भी ।
        स्वेच्छा से परिजन यदि देवें,  स्वीकार करूँगा उसे तब ही ॥

        इक दिन वन में ब्राह्मण की,  वह आर्त ध्वनि वासुकि ने सुनी ।
        अपनी भगिनी के लिए उसने, प्रस्ताव किया, मुनि बोले, "नहीं" ॥

        संभव नहीं मेरा नाम हो उसका, मुनि ने तर्क किया मन में ।
        फिर बोले, हे वासुकि सुनो, क्या नाम है उसका, कहो सच में ॥

        जरत्करु है नाम भगिनी का, उसे आप स्वीकार करें ।
        अब तक मैंने रक्षा की है, आगे से यह आप करें ॥

        पूर्वकाल में सर्पों को, उनकी माँ ने था श्राप दिया ।
        जन्मेजय की यज्ञाग्नि में,  होंगे भस्म, अभिशाप दिया ॥

        इस भीषण विपदा से बचने, वासुकि ने यह कदम लिया ।
        महामना जरत्करु के घर, आस्तिक मुनि ने जन्म लिया ॥

        कई वर्षों के बीत जाने पर, पांडव कुल के राजा ने ।
        जब सर्प यज्ञ आरम्भ किया, आस्तिक पहुंचे रक्षा करने ॥

        बड़े समय के बाद जरत्करु, के घर पुत्र का जन्म हुआ ।
        श्रेय मार्ग से जीवन जीकर, आस्तिक स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥

        [This is based on the story of Jaratkaru and his son Astika
         from Astika Parva in Mahabharata.

         Thanks to Prof. Bibek Debroy for English translation of Mahabharata.
         This story is in 'The Mahabharata' Vol. 1, Section-5, Chapter-13.]



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