Friday, September 13, 2013
कृष्णार्जुन संवाद - 2.2
नहीं काल हुआ था ऐसा कभी, मैं जिसमें नहीं था, तुम थे नहीं ।
आगे भी ऐसा होगा नहीं, जिस काल में हम सब होंगे नहीं ॥
इस देह में जैसे मिलती है, बालक यौवन वृद्धावस्था ।
देह अन्य उसी भांति प्राप्त हो, मोह न करते धीरव्रता ॥
इन्द्रियों और विषयों के मेल से, शीत उष्ण सुख दुःख का सृजन ।
आने जाने वाले ये, अनित्य हैं, इनको कर लो सहन ॥
सुख दुःख को एक समान समझ, विचलित नहीं इनसे होता है ।
हे पुरुषोत्तम, वह धीर पुरुष ही, योग्य मोक्ष के होता है ॥
नहीं असत् वस्तु की है सत्ता, सत् वस्तु का है अभाव नहीं ।
जो तत्व समझने वाले हैं, उन सबका है निष्कर्ष यही ॥
जिससे यह सबकुछ व्याप्त हुआ, उसको तुम जानो अविनाशी ।
विनाश करे उस अव्यय का, नहीं किसी में इतनी बलराशि ॥
ये देह नष्ट हो जाते हैं, नहीं वो जो इन्हें धारण करता ।
इसलिये हे भारत युद्ध करो, वो असीमित है, वो नहीं मरता ॥
कोई मारने वाला समझे इसे, कोई मरने वाला मानता है ।
दोनों इसको नहीं जानते हैं, न ये मरता है न ही मारता है ॥
यह अति पुरातन, नित्य शाश्वत, जन्मता मरता नहीं ।
फिर फिर से है नहीं उपजता, देह नाश से मिटता नहीं ॥
इस अज अविनाशी अव्यय को, हे पार्थ, जो पुरुष समझता है ।
कैसे वह किसी का वध करता, कैसे वध करवा सकता है ॥
जैसे नर जर्जर वस्त्र त्याग, नूतन वस्त्रों को करे धारण ।
वैसे ही जर्जर देह त्याग, देही नव देह करे धारण ॥
नहीं छेद सकते शस्त्र इसको, अग्नि से नहीं यह जले ।
वायु सुखा सकता नहीं, गीला नहीं जल कर सके ॥
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bahut bahut khoob
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