आस्तिक पर्व
13
किस कारण से जन्मेजय ने, नाग दाह आरम्भ किया ।
आस्तिक मुनि ने क्यों उस भीषण, सर्प यज्ञ का अंत किया ॥
सौति से बोले शौनक, यह गाथा हमें बताओ तुम ।
किसके पुत्र थे, ये दोनों, यह सुन्दर कथा सुनाओ तुम ॥
नैमिषारण्य के लोगों को, यह व्यास मुनि ने सुनाई थी ।
उनके शिष्य और मेरे पिता, लोमहर्षण ने भी गाई थी ॥
ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनि आस्तिक की, कथा पूर्ण बतलाता हूँ ।
जैसी मैंने सुनी पिता से, वैसी तुमको सुनाता हूँ ॥
प्रजापति सा तेज था उनमें, घोर तपस्या करते थे ।
जरत्करु वे ब्रह्मचारी, अपने निश्चय में पक्के थे ॥
यात्रा पर थे, मार्ग में देखा, पूर्वज उनके गुफा में थे ।
ऊपर पैर थे, सिर नीचे था, लटके ऐसी दशा में थे ॥
कौन हैं आप जो इस भांति, इस गुफा में उलटे लटके हैं ।
चूहों द्वारा कुतरी हुई, इस घास की रस्सी से जकड़े हैं ॥
हम ऋषिवर हैं नियम निष्ठ, यायावर नाम हमारा है ।
गिर रहे हैं भूमि पर क्योंकि, कोई वंशज नहीं हमारा है ॥
हे ब्राह्मण, केवल एक ही वंशज, नाम जरत्करु है जिसका ।
वह भी तप में संलग्न हुआ, दुर्भाग्य हमारा और उसका ॥
वह मूर्ख नहीं करता विवाह, नहीं पुत्र की उसको चाह कोई ।
हम लटके यहाँ, इसी कारण, मुक्ति का नहीं उपाय कोई ॥
मैं ही जरत्करु पुत्र आपका, कहिए मुझे क्या करना है ।
हम सबका है निर्देश यही, तुम्हें वंश की वृद्धि करना है ॥
यद्यपि प्रतिज्ञा मेरी है, विवाह करूँगा नहीं कभी ।
फिर भी आपके हित के लिए, यदि यही चाहिए तो यही सही ॥
लेकिन मेरी दो शर्ते हैं, मेरा ही नाम हो उसका भी ।
स्वेच्छा से परिजन यदि देवें, स्वीकार करूँगा उसे तब ही ॥
इक दिन वन में ब्राह्मण की, वह आर्त ध्वनि वासुकि ने सुनी ।
अपनी भगिनी के लिए उसने, प्रस्ताव किया, मुनि बोले, "नहीं" ॥
संभव नहीं मेरा नाम हो उसका, मुनि ने तर्क किया मन में ।
फिर बोले, हे वासुकि सुनो, क्या नाम है उसका, कहो सच में ॥
जरत्करु है नाम भगिनी का, उसे आप स्वीकार करें ।
अब तक मैंने रक्षा की है, आगे से यह आप करें ॥
पूर्वकाल में सर्पों को, उनकी माँ ने था श्राप दिया ।
जन्मेजय की यज्ञाग्नि में, होंगे भस्म, अभिशाप दिया ॥
इस भीषण विपदा से बचने, वासुकि ने यह कदम लिया ।
महामना जरत्करु के घर, आस्तिक मुनि ने जन्म लिया ॥
कई वर्षों के बीत जाने पर, पांडव कुल के राजा ने ।
जब सर्प यज्ञ आरम्भ किया, आस्तिक पहुंचे रक्षा करने ॥
बड़े समय के बाद जरत्करु, के घर पुत्र का जन्म हुआ ।
श्रेय मार्ग से जीवन जीकर, आस्तिक स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥
14
देवताओं का समय था वह, इतने वर्षों पहले की बात ।
प्रजापति की दो कन्याएँ, दोनों ही सुन्दर थीं अमाप ॥
कद्रू विनता बहनें थीं, कश्यप से उनका हुआ विवाह ।
पति ने उन्हें, मुदित होकर, वरदान दिया, पूरी हो चाह ॥
कद्रू ने कहा, हों एक सहस्र, मुझे नाग पुत्र शक्तिशाली ।
दो पुत्र मेरे, विनता बोली, कद्रू पुत्रों से बलशाली ॥
'ऐसा ही हो' कश्यप के वचन, दोनों बहनों के पुलकित मन ।
इनका पालन अच्छा करना, कह मुनि ने किया वन हेतु गमन ॥
पाँच सौ वर्षों बाद कद्रू के, पुत्रों का जब जन्म हुआ ।
विनता अधीर व्याकुल लज्जित, मन में उसके अति क्षोभ हुआ ॥
अंडे को विनता ने तोड़ा, विकृत शरीर, क्रोधित, बोला ।
बनो कद्रूदासी, यह श्राप मेरा, क्यों समय से पूर्व इसे खोला ॥
यदि श्राप मुक्त होना है तो, मत करना ऐसी भूल पुनः ।
तेरा पुत्र दूसरा, बलशाली, जन्मेगा समय के बाद स्वतः ॥
ऐसा कह अरुण, गगन को चले, जब हुआ समय, गरुड़ जन्मे ।
अपनी माता का आँचल छोड़, वे पक्षीराज भी नभ में उड़े ॥
18 - 20
उच्चैःश्रवा अश्व अति सुन्दर, मंथन से उत्पन्न हुआ ।
कौन सा वर्ण है विनता उसका, कद्रू बोली, शीघ्र बता ॥
श्वेत वर्ण है अश्वराज का, कद्रू तेरा अनुमान है क्या ।
काली पूँछ है, उस घोड़े की, विनता इस पर शर्त लगा ॥
जिसकी बात असत्य हुई, वह अपनी बहन की हो दासी ।
कल इसका पता लगाएँगे, घर लौटीं, जीत की अभिलाषी ॥
हे पुत्रों मेरे, कद्रू ने कहा, तुम केश का रूप करो धारण ।
उस अश्व की पूँछ को ढक दो तुम, काजल सा वर्ण करो धारण ॥
पुत्रों ने मना कर दिया उसे, हुई कद्रू दुःखी, उन्हें श्राप दिया ।
जन्मेजय की यज्ञाग्नि में तुम, होंगे भस्म, अभिशाप दिया ॥
ये क्रूर वचन कद्रू के सुने, ब्रह्मा ने नियति को पहचाना ।
है सर्पों का बाहुल्य बहुत, सृष्टि के लिए भी उचित माना ॥
विषधर ये शक्तिशाली थे, डसने को सदा रहते आतुर ।
कश्यप को ज्ञान दिया ऐसा, विष इनका होता जिससे दूर ॥
जब रात गई और सुबह हुई, नभ में जब सूर्य चमकने लगा ।
कद्रू विनता दोनों अधीर, चल पड़ीं, वह अश्व निकट ही था ॥
वे तेज गति से चलती हुईं, सागर को पार तुरंत किया ।
वह अश्व देख, थी काली पूँछ, दासी विनता को क्षोभ हुआ ॥
जब समय हुआ, तब गरुड़ स्वयं, अंडे से बाहर प्रकट हुए ।
उन्हें देख, देव स्तुति में लगे, सुनकर सुपर्ण, तब शांत हुए ॥
सर्वत्र गमन की शक्ति थी, वह पक्षी गया माता के पास ।
शर्त हारकर, दासी बनकर, विनता थी, बड़ी दुःखी उदास ॥
कुछ दिन बीते, पुत्र के सम्मुख, उसने किया कद्रू को नमन ।
विनता मुझे ले चलो वहाँ, नागालय है जहाँ मनभावन ॥
कद्रू को विनता ने उठाया, गरुड़ करें नागों को वहन ।
ऊँची भरी उड़ान, धूप वह, नागों से नहीं हुई सहन ॥
स्तुति करी कद्रू ने इंद्र की, शक्र हुए तब बड़े प्रसन्न ।
बादल गरजे, वर्षा आई, नागों का हुआ पुलकित मन ॥
सुपर्ण उन्हें एक द्वीप में लाए, सभी ओर सागर का जल ।
पक्षी गाते, निर्मल झीलें, भांति भांति के पुष्प और फल ॥
सुगन्धित पुष्पों से लदे वृक्ष, उनमें पक्षी मृदु गान करें ।
सुरम्य द्वीप, गन्धर्वों को प्रिय, मुग्ध नाग, रसपान करें ॥
हे पक्षी, चलें अब ऐसे द्वीप पर, जल की जहाँ अधिकता है ।
रमणीय देश देखे होंगे, उड़ने की तुम में क्षमता है ॥
पक्षी ने विचार किया मन में, फिर अपनी माता से बोला ।
क्यों इनकी बातें मानूँ मैं, तब विनता ने रहस्य खोला ॥
अकुलीन बहन की दासी मैं, सर्पों ने मुझ से छल है किया।
उस शर्त में विजय नहीं पाई, सुनकर सुपर्ण मन व्यथित हुआ ॥
हे सर्पों मुझे बताओ तुम, वह कौनसा कौतुक दिखलाऊँ ।
जिससे हो मुक्ति बंधन से, वह वस्तु कौनसी मैं लाऊँ ॥
पक्षीराज की वाणी सुन, सर्पों ने उसे उपाय कहा ।
अमृत हमको लाकर दे दो, यही मार्ग है बंधन मुक्ति का ॥
[ based on The Mahabharata, Vol.1, Section-5, Chapter 13-23 ]
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श्रेष्ठ कविताओं के लिए बधाई।
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