tag:blogger.com,1999:blog-39648723193294999032024-03-14T12:40:57.253+05:30कविता संग्रह Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.comBlogger44125tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-86616200502669408172018-11-13T00:31:00.003+05:302018-11-13T00:31:51.821+05:30नदी के पारबह रही है द्रुत गति से, धार निर्मल नीर की |<br />
उस ओर है जाना कठिन, अब है परीक्षा वीर की ||<br />
<br />
जल की तरंगें उछलती, भिड़ती, लगे संग्राम है | <br />
व्यतिकरण लेता रूप नाना, सतत है, अविराम है ||<br />
<br />
[To be continued...]Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-92117078617654152142018-11-08T02:09:00.003+05:302018-11-08T02:09:45.497+05:30पटाखेहवा में धूल ज्यादा है, साँस लेना भी भारी है |<br />
तुम्हारी ही वजह से है, तुम्हारी जिम्मेदारी है ||<br />
<br />
ख़ुशी मिलती बहुत तुमको, फुलझड़ी को घुमाने से |<br />
जो ऊपर दूर तक जाए, राकेट ऐसा चलाने से ||<br />
<br />
जो अंगारों को बरसाए, धूम ऐसी मचाने से |<br />
बदलते सुर, जो मटके में, पटाखे वे चलाने से ||<br />
<br />
सूतली से जो बाँधे हैं, `हरे` वो बम चलाने से |<br />
डाल गोबर में मुर्गा छाप, परखच्चे दूर उड़ाने से ||<br />
<br />
जो वर्षा अग्नि की करते, उन्हें क्रमबद्ध चलाने से |<br />
जो घर्षण से रहित लगते, चक्र ऐसे घुमाने से ||<br />
<br />
जो भीषण गूँज करते हैं, अगरबत्ती लगाने से |<br />
सुबह की नींद खुल जाए, नाद ऐसा बजाने से ||<br />
<br />
क्या हुआ जो, एक दिन ही, वर्ष में तुम चलाते हो |<br />
सहन हम से नहीं होता, शोर इतना मचाते हो ||<br />
<br />
हमारा प्यारा कुत्ता भी, नहीं यह देख पाता है |<br />
क्रूर तुम हो, पशु का ध्यान, तुम्हें किंचित न आता है ||<br />
<br />
प्रदूषण पर असर कितना, नहीं साबित अभी यह है |<br />
परन्तु हम प्रभावित हैं, अतः अब रोक तो तय है ||<br />
<br />
फसल के ठूँठ जलाता जो, न कोई रोक पाता है |<br />
पटाखे को चलाया जो, तो लज्जा में नहाता है ||Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-41307204845634312242018-04-01T16:47:00.013+05:302021-10-04T12:31:08.379+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 9<p>अर्जुन तुम ईर्ष्या से रहित, तुम्हें गूढ़ ज्ञान बतलाता हूँ | <br />जिसे जान कर मुक्ति मिले, मैं वह रहस्य समझाता हूँ ||</p><p>जिसको सुन होते हैं पवित्र , यह विद्या है सबसे उत्तम |<br />जो गोपनीय हैं उनमें भी, इसका स्थान है सर्वप्रथम ||<br /><br />धर्म के अनुसार यह, प्रत्यक्ष अनुभव योग्य है |<br />अनुसरण इसका है सरल, उत्तम है, अव्यय बोध है || <br /><br />इसमें श्रद्धा से जो विहीन, वे मुझको जान न पाते हैं |<br />हे अर्जुन ऐसे पुरुष पुनः, इस मृत्युलोक में आते हैं ||</p><p>जग समस्त में हे अर्जुन, अव्यक्त रूप है व्याप्त मेरा |<br />मुझमें स्थित सब प्राणी पर, उनमें नहीं निवास मेरा ||<br /><br />सर्वत्र चलने वाली वायु, व्योम में रहती यथा |<br />उसी भांति सभी प्राणी, स्थित हैं मुझ में सर्वदा ||<br /><br />कल्प अंत में सब प्राणी , मेरी प्रकृति में होते लीन |<br />नया कल्प आरम्भ हो तब, करता हूँ मैं रचना नवीन || <br /><br />जैसा स्वभाव होता उनका, मैं पुनः उन्हें करता हूँ सृजन |<br />उदासीन, आसक्ति रहित इन , कर्मों से नहीं हो बंधन || <br /></p><p>मेरी अध्यक्षता में प्रकृति, चराचर विश्व करे निर्मित | <br />पुनः पुनः इसी कारण, होता यह जग है परिवर्तित || </p><p>मनुष्य तन आश्रित जो मेरे, परम भाव को जान न पाते | <br />सभी प्राणियों के ईश्वर को, अर्जुन, मूर्ख समझ नहीं पाते || <br /></p><p><br /></p><p><br /></p>Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-29163808069247729912018-03-31T17:13:00.002+05:302018-04-01T12:41:20.111+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 8ब्रह्म है क्या, अध्यात्म है क्या, पुरुषोत्तम कर्म किसे कहते | <br />
अधिभूत होता है क्या, अधिदैव, हे कृष्ण, किसे कहते || <br />
<br />
ब्रह्म वही जो नष्ट न हो, उसका स्वभाव अध्यात्म हुआ | <br />
जिससे उत्पत्ति अभिवृद्धि हो, जीवों की, वह कर्म हुआ || <br />
<br />
जो नश्वर हैं , वे अधिभूत, अधिदैव वही जो सब में निहित | <br />
अधियज्ञ मुझे जानो अर्जुन, मैं सभी प्राणियों में स्थित || <br />
<br />
अंतकाल हो, देह तजें जो, फिर भी मुझमें जिनका चित्त | <br />
मेरे भाव को प्राप्त वे होते, नहीं संशय इसमें किंचित || <br />
<br />
अंतकाल में करके चिंतन, जिस भी विषय का, देह तजें | <br />
रहें उसी विचार में तन्मय, उसी भाव को प्राप्त करें || <br />
<br />
सभी काल में करते स्मरण, मुझको, तुम यह युद्ध करो | <br />
मुझमें अर्पित मन और बुद्धि, निश्चित मुझको प्राप्त करो ||<br />
<br />
सर्वज्ञ सनातन अखिल नियंता, अचिन्त्य सूक्ष्म जो सूर्य सदृश | <br />
अंतकाल में करें स्मरण जो, करें प्राप्त वे, दिव्य पुरुष ||<br />
<br />
एकाग्र चित्त से युक्त हो जो, भृकुटि के मध्य में ध्यान करे | <br />
भक्तियुक्त योग बल से, वो परम पुरुष को प्राप्त करे ||<br />
<br />
ज्ञानी जिसे कहते अविनाशी, वीतराग ही होते प्रविष्ट | <br />
ब्रह्मचर्य करते जो पालन , यह पद उनका भी है इष्ट ||<br />
<br />
इन्द्रियाँ जिसकी रहें संयमित, मन को ह्रदय में करे निरोध | <br />
सिर में प्राणवायु स्थापित, करके धारण करता योग ||<br />
<br />
जो प्रयाण करते हैं देह से, रखते हुए मेरी स्मृति | <br />
ॐ, शब्द उच्चारण करते, वे पाते हैं परम गति ||<br />
<br />
अनन्य भाव से करते चिंतन, मुझे करें जो नित्य स्मरण | <br />
उन हेतु मैं सुलभ हूँ अर्जुन, नित्ययुक्त जो योगीजन ||<br />
<br />
नहीं लेते वे जन्म पुनः, जो नश्वर है, दुखदायी है | <br />
जिसने मुझको प्राप्त किया, सिद्धि जो परम है, पाई है ||<br />
<br />
ब्रह्मलोक तक लोक सभी, हैं पुनर्जन्म से मुक्त नहीं | <br />
मुझे प्राप्त कर लेता जो, हो पुनर्जन्म से मुक्त वही ||<br />
<br />
युग सहस्र होते हैं दिन में, रात भी ब्रह्मा की उतनी | <br />
इसका ज्ञान जिन्हे होता वे, रात दिवस की समझ के धनी ||<br />
<br />
ब्रह्मा दिन आरम्भ हो जब, अव्यक्त से व्यक्त जीव होते | <br />
रात्रि के आरम्भ समय, सब व्यक्त जीव लीन होते ||<br />
<br />
पुनः पुनः जन्म धारण कर, रात्रि में होता है विलुप्त | <br />
ब्रह्मा का दिन जैसे होता, जीव समूह पुनः ले रूप ||<br />
<br />
व्यक्त हुए, अव्यक्त हुए, ज्यों ब्रह्मा का दिन, रात हुई | <br />
एक तत्त्व अव्यक्त है ऐसा, नष्ट नहीं होता है कभी ||<br />
<br />
अक्षर है, वह परम गति, अव्यक्त तत्त्व जो उक्त कहा | <br />
पुनरागमन नहीं होता जो, परम धाम को पा लेता ||<br />
<br />
जीव सभी जिसमें स्थित हैं, जग समग्र जिसमें है व्याप्त |<br />
पुरुष सनातन श्रेष्ठ है सबसे, भक्ति से ही होता प्राप्त ||<br />
<br />
दो ही मार्ग से अर्जुन योगी, देह छोड़कर जाता है | <br />
एक पुनर्जन्म को प्राप्त करे, एक जन्म से मुक्त कराता है ||<br />
<br />
सूर्य उत्तरायण में हो जब, शुक्ल पक्ष, दिन का हो समय | <br />
देह त्याग करते जो ज्ञानी, मुक्ति को पाते निश्चय ||<br />
<br />
सूर्य दक्षिणायन में हो जब, रात्रि कृष्ण पक्ष की हो | <br />
योगी स्वर्ग प्राप्त करते फिर, पुनः देह मिलती उनको ||<br />
<br />
एक शुक्ल मार्ग, एक कृष्ण मार्ग, ये शाश्वत हैं, इनसे जाए | <br />
जो शुक्ल, मोक्ष तक पहुँचाए, जो कृष्ण, पुनः जग में लाए ||<br />
<br />
जो इन दोनों से अवगत हो, वह योगी मोह से ग्रस्त न हो | <br />
पार्थ अतः तुम सर्वकाल में, केवल योग का आश्रय लो ||<br />
<br />
वेदपाठ, तप, यज्ञ, दान के, पुण्य से भी ऊपर जाते | <br />
योगी जो तत्त्व समझते हैं, वे परम धाम मेरा पाते || Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-49923924979038579412018-03-22T09:50:00.000+05:302018-03-22T09:57:34.478+05:30धूल पोंछ दोधूल पोंछ दो, पर यह सोचो,<br />
क्या इससे बेहतर नहीं होता, चित्र बनाते, पुस्तक लिखते<br />
व्यंजन की तैयारी करते, पौधों में जल सिंचन करते <br />
इच्छा या आवश्यकता है, मन में इसका चिंतन करते || <br />
<br />
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,<br />
अभी शेष नदियों में तैरना, नभ को छूते पर्वत चढ़ना <br />
मनभावन संगीत को सुनना, पुस्तक कितनीं शेष है पढ़ना <br />
समय अल्प, मित्रता संजोना, जीवन में आगे है बढ़ना || <br />
<br />
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,<br />
सूर्य धूप अपनी बरसाए, चले पवन, बाल लहराए<br />
हिमवर्षा से श्वेत हुआ नभ, जल वृष्टि भूमि महकाए <br />
प्रस्तुत है सम्पूर्ण विश्व पर, बीता समय पुनः नहीं आए || <br />
<br />
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,<br />
वृद्धावस्था इक दिन होगी, होगी सरल सुखद, नहीं निश्चित<br />
जब प्रस्थान जगत से होगा, निःसंदेह, जाना है निश्चित <br />
प्रकृति अपना चक्र चलाए, तुम्हें धूल में होना मिश्रित || <br />
<br />
Inspired from "Dust if you must" by Rose Milligan Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-47626822329612652412016-12-25T18:10:00.000+05:302016-12-25T18:46:18.198+05:30आठ नवम्बरतिथि आठ थी आठ मास था, आठ नवम्बर समय था आठ ।<br />
बुरा काल उन हेतु हुआ जो, काले धन पर करते ठाठ ॥<br />
<br />
एक सहस्र रुपये की मुद्रा, वैधता उसकी हुई समाप्त ।<br />
रुपये पाँच सौ रूप बदलकर, करने होंगे फिर से प्राप्त ॥<br />
<br />
चकित हुई, जनता नहीं समझी, इस निर्णय का अर्थ है क्या?<br />
सारा परिश्रम, सारी कमाई, इन रुपयों की, व्यर्थ है क्या?<br />
<br />
कोई न लेगा रुपये अब ये, बैंक में अपने जाना है ।<br />
जितना धन इस राशि का है, उसको जमा कराना है ॥<br />
<br />
बंद रहेंगे बैंक एक दिन, एटीएम का किसे पता ।<br />
कैसे खरीदें दूध और सब्जी, सभी कौतुहल रहे जता ॥<br />
<br />
धनतेरस थी दस दिन पहले, सोना फिर से चमक उठा ।<br />
घड़ियों से भर गई कलाई, आई-फोन भी गरज उठा ॥<br />
<br />
जिनके घर शादी थी उनके, मुँह पे उदासी छाई थी ।<br />
छोड़ के घर के काम सभी, बैंक में लाइन लगाई थी ॥<br />
<br />
उठो सुबह और चलो एटीएम, रखनी देश की गरिमा है ।<br />
सौ सौ रुपये के नोट मिलेंगे, लेकिन उनकी सीमा है ।<br />
<br />
नहीं मिले तो कोई नहीं पर, योगासन तो हो ही गया ।<br />
मिले पुराने मित्र पंक्ति में, मन आह्लादित हो ही गया ॥<br />
<br />
जो वस्तुएँ नहीं आवश्यक, उनका तो अब प्रश्न नहीं ।<br />
जो रुपये हैं, उन्हें बचा लो, करना कोई जश्न नहीं ॥<br />
<br />
बाल बढ़े थे, काँच में देखा, सोचा इन्हें कटाना है ।<br />
मन पर संयम, धीरज बाँधा, पहले रुपये बचाना है ॥ <br />
<div>
<br /></div>
Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-72421602432514169112015-04-26T14:09:00.000+05:302015-04-26T14:09:50.213+05:30क्रोधित क्यों तुमअसमय वर्षा, ओला वृष्टि, प्रकृति माँ क्रोधित क्यों तुम । <br />
भूमि कम्प स्वभाव न तेरा, सुना सहिष्णु, उदार हो तुम ॥<br />
<br />
क्यों ये पर्वत, हिम से सज्जित, अपनी जटाएँ हिलाते हैं । <br />
किस कारण वश मेघ तेरे माँ, रौद्र रूप दिखलाते हैं ॥ <br />
<br />
सूर्य देव भी नहीं हैं हर्षित, ताप से हमें जलाते हैं । <br />
अर्घ्य इन्हें अब तृप्त न करते, जल सम्पूर्ण सुखाते हैं ॥ <br />
<br />
सागर भी, जो सब सहकर भी, परिधि न अपनी पार करे । <br />
तट बंधन को मान्य न करता, जल से भरा प्रहार करे ॥ <br />
<br />
वायु को भी करे प्रभावित, चक्रवात निर्माण करे । <br />
चक्षु जिसके दृष्टि कुटिल कर, थल की ओर प्रयाण करे ॥ <br />
<br />
नदियाँ, जीवन दायिनी, वे भी, क्षोभ से जब भर जाती हैं । <br />
निज पथ का तब भान भूलकर, गाँव और नगर बहाती हैं ॥ <br />
<br />
निश्चय ही संदेश है कुछ, नहीं बिन कारण है क्रोध तेरा । <br />
भूल नहीं होगी अब हमसे, हो प्रसन्न, अनुरोध मेरा ॥ Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-44013158411452011482014-10-02T23:36:00.000+05:302014-10-02T23:36:31.601+05:30स्वच्छ हो भारत<br />
भोजन नहीं किया था कब से, पानी पीकर काम चले ।<br />
यात्रा से कल रात ही लौटे, मोदी कहाँ विश्राम करे ॥<br />
<br />
हाथ में अपने झाड़ू लेकर, मोदी जी श्रमदान करें ।<br />
कहने से सुनता नहीं कोई, लोग, जो देखें, काम करें ॥<br />
<br />
श्रेष्ठ पुरुष के आचरण को, अन्य लोग अपनाते हैं ।<br />
वह जो प्रमाण कर देता है, वे उसको लक्ष्य बनाते हैं ॥<br />
<br />
गीता का यह मन्त्र सरल है, कई लोग दोहराते हैं ।<br />
दुर्लभ वे जो निज जीवन में, करके इसे दिखाते हैं ॥<br />
<br />
है जीवन ही संदेश मेरा, गांधी के वाक्य सुने हमने ।<br />
राष्ट्रपिता के जन्म दिवस पर, पूर्ण करें उनके सपने ॥<br />
<br />
थूंके नहीं सड़क पर बिलकुल, नाक न अपनी साफ़ करें ।<br />
तम्बाकू की, पान की, पीकें, आदत का उपचार करें ॥<br />
<br />
गड्ढे भरें, न जल का संचय, ना मच्छर उत्पात करें ।<br />
कूड़ेदान में कूड़ा डालें, आज से यह शुरुआत करें ॥<br />
<br />
जो वस्तुएँ, नहीं उपयोगी, ढेर न उनका घर में लगाएं ।<br />
धूल ढकी, कीटों की जनक ये, मुक्ति इनसे शीघ्र ही पाएं ॥<br />
<br />
स्वच्छ वस्त्र पहने हम, अपना, वातावरण भी स्वच्छ रखें ।<br />
स्वच्छ जलाशय, स्वच्छ हो मंदिर, घर, कार्यालय स्वच्छ रखें ॥<br />
<br />
गांधी के इन वचनों को हम, करें स्मरण, आचार में लाएं ।<br />
अधिकारों की भीड़ हो गई, कुछ कर्त्तव्य भी क्यों न निभाएं ॥<br />
<br />
स्वच्छता हम गांधी से सीखें, थोड़ा सा तो प्रयास करें ।<br />
स्वच्छ हो भारत, स्वस्थ हो भारत, आज नई शुरुआत करें ॥<br />
<br />Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-46775922680935472812014-09-14T20:46:00.001+05:302014-09-17T08:18:46.207+05:30नासदीय सूक्त<br />
नहीं विद्यमान तब था कुछ भी,<br />
उसका अभाव भी नहीं था तब ।<br />
वायु भी नहीं, था व्योम नहीं,<br />
उसे किसने ढका था, कहाँ था सब ॥<br />
<br />
वह ब्राह्मिक द्रव, सर्वत्र व्याप्त, कितना गहरा था, किसके पास ॥<br />
<br />
अमरत्व नहीं, तब मृत्यु नहीं थी,<br />
नहीं प्रकाश, दिन रात न था ।<br />
लेता था श्वास, वायु के बिन,<br />
वह स्वयं पूर्ण था, शेष न था ॥<br />
<br />
था केवल वह ही विद्यमान, उसके अतिरिक्त न कोई था ॥<br />
<br />
था अन्धकार से ओत प्रोत,<br />
केवल घनघोर तिमिर फैला ।<br />
सब कुछ तब था द्रव के सदृश,<br />
नहीं था प्रकाश किंचित कैसा ॥<br />
<br />
वह एक जो आवृत्त शून्य से था, अग्नि के गर्भ से प्रकट हुआ ॥<br />
<br />
मन से उत्पन्न कामना ने,<br />
आरम्भ से व्याप लिया था उसे ।<br />
करें खोज ह्रदय में मुनि उसकी,<br />
संबंधित 'है', 'जो नहीं' उससे ॥<br />
<br />
सम्बन्ध जटिल है यह इसमें,<br />
बीज सभी हैं, शक्ति सभी ।<br />
सूक्ष्म शक्तियाँ उसके भीतर,<br />
वृहद शक्तियाँ बाहर भी ॥<br />
<br />
पर, कौन उसे जानता है,<br />
और कौन बता सकता है यहाँ ।<br />
आरम्भ हुआ इसका था कब,<br />
और कहाँ आदि है, अंत कहाँ ॥<br />
<br />
पश्चात सृजन के देव हुए,<br />
तब किसे पता यह, कब था बना ।<br />
गर्भ से जिसके सृजन हुआ,<br />
यह उसने किया, या उसके बिना॥<br />
<br />
सृष्टि यह कैसे बनी थी,<br />
कब हुआ आरम्भ था ।<br />
यह व्योम का अध्यक्ष जाने,<br />
या उसे भी नहीं पता ॥<br />
<div>
<br /></div>
<div>
[ऋग्वेद के नासदीय सूक्त पर आधारित]</div>
<div>
[Based on 'Nasadiya Sukta' (Hymn of Creation) from RigVeda.]</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-48945113088783295592014-07-28T14:26:00.002+05:302014-07-29T16:57:13.701+05:30जीर्ण धनुष<br />
शिव के धनुष को तोड़ दिया, सुन, परशुराम सभा में आए ।<br />
सिर पर जटा, भृकुटि है तिरछी, हाथ में फरसा, क्रोध दिखाए ॥<br />
<br />
देख भयानक वेश को राजा, भय से त्रस्त, आसन से उठते ।<br />
पिता सहित नाम निज लेते, दंडवत मुनि चरणोँ में करते ॥<br />
<br />
सीता ने भी किया प्रणाम, जनक ने सारी कथा सुनाई । <br />
परशुराम ने फिरकर देखा, धनुष के टुकड़े दिए दिखाई ॥<br />
<br />
मुनि तब क्रोध में भरकर बोले, मूर्ख जनक, इसे किसने तोड़ा ।<br />
जनक मौन, उत्तर नहीं देते, सबके मन में भय है थोड़ा ॥<br />
<br />
लोग सभी भयभीत देखकर, राम उठे, नहीं हर्ष न त्रास ।<br />
नाथ, धनुष को जिसने तोड़ा, निश्चय होगा आपका दास ॥<br />
<br />
परशुराम तब राम से बोले, सेवक वही जो करता सेवा ।<br />
शिव के धनुष को तोड़ने वाला, दुष्टकर्मी है शत्रु मेरा ॥<br />
<br />
जिसने ऐसा काम किया है, सभा छोड़ पृथक हो जाए ।<br />
अन्यथा कोप हमारा लेगा, प्राण सभी के, जो भी आए ॥<br />
<br />
मुनि को सुन, लक्ष्मण मुस्काए, परशुराम को वचन सुनाए ।<br />
ऐसे धनुष बहुत से तोड़े, क्रोध में पहले आप न आए ॥<br />
<br />
क्योँ इस धनुष में इतनी ममता, अन्य में कोई मोह नहीं ।<br />
शिव का धनुष प्रसिद्ध है जग में, रे बालक तुझे होश नहीं ॥<br />
<br />
लक्ष्मण हँसे, कहा हे भगवन, सभी धनुष हैं एक समान ।<br />
जीर्ण धनुष टूटा, क्या हानि, राघव लिए थे नूतन मान ॥<br />
<br />
यह तो टूट गया छूते ही, राम का इसमें दोष नहीं ।<br />
मुनिवर इतनी छोटी बात पर, उचित आपका रोष नहीं ॥<br />
<br />
अरे दुष्ट, तू मुझे न जाने, समझे मुझको निरा मुनि ।<br />
क्षत्रिय कुल का शत्रु हूँ मैं, मेरा क्रोध महा अग्नि ॥<br />
<br />
पृथ्वी भूप रहित कर डाली, मेरे हाथ से जब बरसा ।<br />
काटी भुजाएँ सहस्रबाहु की, अति भयानक यह फरसा ॥<br />
<br />
लक्ष्मण हँसते, मुनि तुम निज को, योद्धा मानते बहुत बड़े ।<br />
मुझे दिखाते अपनी कुल्हाड़ी, फूँक से पर्वत नहीं उड़े ॥<br />
<br />
कुम्हड़े की बतिया नहीं कोई, तर्जनी देखते जो मर जाए ।<br />
मुनि पर शस्त्र उठाते न कुल में, आपकी बात पे रोष न आए ॥<br />
<br />
विश्वामित्र, कुटिल यह बालक, कुल पर अपने कलंक लगाए ।<br />
मेरी महिमा इसे बता दो, काल का ग्रास न यह बन जाए ॥<br />
<br />
आपका यश और महिमा मुनिवर, आपसे श्रेष्ठतर कौन बताए ।<br />
अपनी करनी पहले बताई, फिर कहिये यदि मन न अघाए ॥ <br />
<br />
क्रोध रोककर क्योँ दुःख पाते, गाली न आपकी शोभा बढ़ाए ।<br />
युद्ध में डींग हाँकते कायर, शूरवीर करनी कर जाए ॥<br />
<br />
लक्ष्मण की कटु वाणी सुनकर, फरसे को मुनि हाथ में लाए । <br />
दोष मुझे नहीं देना कोई, यह निज मृत्यु स्वयं बुलाए ॥<br />
<br />
बालक का अपराध न देखें, क्षमा करें लक्ष्मण को आप ।<br />
विश्वामित्र, तुम्हारे प्रेम से, अनदेखा करता हूँ पाप ॥<br />
<br />
आपके शील को कौन न जाने, लक्ष्मण फिरसे लगे उकसाने ।<br />
फरसा मुझको आप दिखाते, मैं लगा आपके प्राण बचाने ॥<br />
<br />
वीर बली नहीं मिले आपको, ब्राह्मण तुम घर में ही सयाने ।<br />
'अनुचित अनुचित' उठी पुकारें, राम ने रोका, लक्ष्मण माने ॥<br />
<br />
<br />Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-61530088112290385932014-04-30T00:32:00.002+05:302014-04-30T00:38:56.233+05:30अणु की कहानीब्रह्माण्ड के विस्तार में, अणु की कहानी खो गई ।<br />
कितने अणु हैं मिट गए, गुम उनकी वाणी हो गई ॥<br />
<br />
पर ये अणु आये कहाँ से, गुम किधर ये हो गए ।<br />
क्यूँ ये अचानक जाग कर के, फिर अचानक सो गए ॥<br />
<br />
कुछ अणु मिलकर बड़े, रोशन सितारे हो गए ।<br />
कुछ सितारे टूट कर, अणु ढेर सारे हो गए ॥<br />
<br />
जिस खोज में ये भटकते, वह लक्ष्य इनका है कहाँ ।<br />
आरम्भ जिसका है नहीं, हो अंत उसका फिर कहाँ ॥<br />
<br />
क्या जानते हैं ये अणु, और जान कर के मस्त हैं ।<br />
अथवा नहीं हैं जानते, और भय से ये भी त्रस्त हैं ॥<br />
<br />
सीख ली है नृत्य की, अणु ने कहाँ से क्या पता ।<br />
ब्रह्माण्ड में है राज कितने, कौन है सकता बता ॥Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-35123832341633277952014-04-29T20:21:00.000+05:302015-08-18T18:04:23.842+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 7मेरे आश्रय हो योग करे, मुझमें आसक्त हो जैसे मन ।<br />
<div>
जिससे मुझे पूर्णतः जाने, हे अर्जुन, अब उसको सुन ॥ </div>
<div>
<br /></div>
<div>
पूर्ण रूप से कहूँगा तुमसे, ज्ञान मैं यह, विज्ञान सहित । </div>
<div>
जिसे जानकर, फिर नहीं रहता, शेष जानने को किंचित ॥ </div>
<div>
<br /></div>
<div>
सहस्रों में कहीं कोई एक, सिद्धि के लिए यत्न करता ।<br />
जो मुझको तत्त्व से जाने, ऐसा तो है कोई विरला ॥ </div>
<div>
<br /></div>
<div>
आकाश, अग्नि, भूमि, वायु, जल, अहंकार, मन और बुद्धि । </div>
<div>
इन आठ भिन्न रूपों वाली, हे भरतश्रेष्ठ, मेरी प्रकृति ॥ </div>
<div>
<br /></div>
<div>
इस अपरा प्रकृति से अलग, जानो तुम मेरी परा प्रकृति । </div>
<div>
सब जीव उसी में, उसी में है, जग धारण करने की शक्ति ॥ </div>
<div>
<br />
सभी प्राणियों की उत्पत्ति, इन दोनों से हुई समझ ।<br />
मैं सृष्टा हूँ, जग समग्र का, प्रलय का कर्त्ता मुझे समझ ॥<br />
<br />
विद्यमान कुछ नहीं है ऐसा, मुझसे अधिक श्रेष्ठ जो हो ।<br />
मुझमें सबकुछ ऐसे पिरोया, धागे में मणियाँ ज्यों हों ॥<br />
<br />
जल में रस मैं हूँ, हे अर्जुन, सूर्य चन्द्र में ज्योति हूँ ।<br />
शब्द हूँ नभ में, प्रणव वेद में, पुरुषों में पौरुष मैं हूँ ॥<br />
<br />
मैं हूँ पुण्य गंध पृथ्वी में, और अग्नि में तेज हूँ मैं ।<br />
जीवन सभी प्राणियों में हूँ, तपस्वियों में तप हूँ मैं ॥<br />
<br />
निश्चित जानो अर्जुन तुम, भूतों का सनातन बीज हूँ मैं ।<br />
बुद्धि हूँ बुद्धिमानों में और, तेजस्वियों में तेज हूँ मैं ॥<br />
<br />
आसक्ति और कामना रहित, बलवानों में बल भी हूँ मैं ।<br />
हे पार्थ जो धर्मविरुद्ध न हो, वह काम प्राणियों में हूँ मैं ॥<br />
<br />
सात्त्विक भाव राजसिक एवं, भाव तामसिक जितने हैं ।<br />
वे मुझसे हैं, ऐसा जानो, मैं उनमें नहीं, न वे मुझमें हैं ॥<br />
<br />
इन तीन गुणों के भावों से, यह जग है पूरा ही मोहित ।<br />
इस कारण जान नहीं पाते, मुझको अव्यय और गुणातीत ॥<br />
<br />
तीन गुणों से युक्त ये मेरी, दैवी माया है दुस्तर ।<br />
जो मेरा ही आश्रय लेते, वे इससे जाते हैं तर ॥<br />
<br />
युक्त आसुरी भाव से जो, माया ने जिनका ज्ञान हरा ।<br />
दुष्कर्म करें जो, मूढ़ नराधम, नहीं लेते आश्रय मेरा ॥<br />
<br />
सुकृत करते, मुझको भजते, अर्जुन चार तरह के लोग ।<br />
ज्ञानी अथवा जिज्ञासु, हो पीड़ित अथवा अर्थ का लोभ ॥<br />
<br />
इन सबमें, हे अर्जुन मुझको, ज्ञानी बहुत ही प्यारा है । <br />
वह मुझमें स्थित है, उसको, केवल मेरा सहारा है ॥ <br />
<br />
कई जन्मों के अन्त में ज्ञानी, मुझे पूर्णतः पाते हैं । <br />
सब कुछ रूप है वासुदेव का, नहीं सहज मिल पाते हैं ॥ <br />
<br />
कामना ज्ञान हरे जिनका, वे अन्य देवता ध्याते हैं ।<br />
प्रकृति उनकी होती जैसी, वैसे नियम अपनाते हैं ॥<br />
<br />
श्रद्धा से परिपूर्ण हो करते, जिस जिस देव की वे भक्ति । <br />
दृढ़ उनकी श्रद्धा करता हूँ , उन्ही देवताओं के प्रति ॥ <br />
<br />
श्रद्धावान भक्त जब विधिवत, देवों का अर्चन करते । <br />
मेरे द्वारा दिए जो फल हैं, प्राप्त उन्हीं को वे करते ॥ <br />
<br />
अल्प समझ है जिनकी, फल भी, उनके अन्त हो जाते हैं ।<br />
देवभक्त पाते देवों को , मेरे भक्त, मुझे पाते हैं ॥ <br />
<br />
अव्यक्त व्यक्ति का रूप लिया , यह मानें जिनमें समझ नहीं । <br />
अव्यय जो, उत्कृष्ट है मेरा, रूप परम का बोध नहीं ॥ <br />
<br />
योगमाया से रहता आवृत्त, सबको विदित नहीं होता । <br />
अज अव्यय मेरे स्वरूप का, मूढ़ को भान नहीं होता ॥ <br />
<br />
जो था अतीत, जो वर्तमान, जो होगा सबका मुझे ज्ञान । <br />
प्राणी समस्त हैं विदित मुझे, नहीं कोई जिसे हो मेरा ज्ञान ॥ <br />
<br />
प्राणी सभी सम्मोहित हैं, हैं आदिकाल से ग्रसित हुए । <br />
इच्छा और द्वेष से जन्मा जो, उस द्वंद्व मोह में लिप्त हुए ॥<br />
<br />
जिनके पापों का अंत हुआ, और जो हैं पुण्य कर्म करते । <br />
मुक्त द्वन्द्व मोह से होते, दृढ़ता से मुझको भजते ॥<br />
<br />
मेरा आश्रय ले यत्न करें, वृद्धत्व मृत्यु से मुक्ति को । <br />
अध्यात्म समझ पाते वे ही, समझ कर्म की हो उनको ॥<br />
<br />
अधिभूत मुझे, अधिदैव मुझे, अधियज्ञ मुझे जानते जो ।<br />
भले उपस्थित अंतकाल हो, मुझे जान लेते हैं वो ॥ <br />
<br />
[ Source: Geeta Chapter - 7 ]</div>
Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-30352074033939518352014-04-28T20:24:00.001+05:302014-04-28T20:42:55.828+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 6.3समता रूप योग, मधुसूदन, आपने जो बतलाया है ।<br />
चित्त की चंचलता विचारकर, संशय मन में आया है ॥<br />
<br />
यह मन स्वभावतः चंचल है, सामर्थ्यवान और सुदृढ़ है ।<br />
इसको वश में करना केशव, वायु विजय सा दुष्कर है ॥<br />
<br />
निःसंदेह मन चंचल अर्जुन, सुगम नहीं निग्रह करना ।<br />
अभ्यास और वैराग्य से किन्तु, सम्भव है वश में करना ॥<br />
<br />
जिसका मन पर नहीं है संयम, योगप्राप्ति कठिन उसे ।<br />
यत्नशील और संयत मन ही, करे उपाय से प्राप्त इसे ॥<br />
<br />
जो श्रद्धायुक्त हो योग करे, हो मन पर संयम नहीं जिसे ।<br />
हे कृष्ण, यदि सिद्धि नहीं मिलती, कैसी गति मिलती है उसे ॥<br />
<br />
योग कर्म दोनों से विचलित, ब्रह्म के पथ से हो विक्षिप्त ।<br />
क्या वह नष्ट नहीं हो जाता, जैसे मिटे मेघ खंडित ॥<br />
<br />
आप ही हो केशव जो मेरा, संशय छेदन कर सकते ।<br />
नहीं कोई भी सिवा आपके, संशय मेरा हर सकते ॥<br />
<br />
शुभ कर्म किये जिसने उसका, इस लोक में होता नाश नहीं ।<br />
परलोक में भी, हे अर्जुन, वह, दुर्गति को करता प्राप्त नहीं ॥<br />
<br />
योगभ्रष्ट उत्तम लोकों में, दीर्घ समय तक वास करें ।<br />
जो सदाचार से युक्त धनी, उनके घर जन्म को प्राप्त करें ॥<br />
<br />
अथवा जन्म ग्रहण करते हैं, ज्ञानवान योगियों के घर ।<br />
निःसंदेह इस लोक में होता, ऐसा जन्म, दुर्लभ अवसर ॥<br />
<br />
पूर्व जन्म की बुद्धि उनको, वहाँ सहज सुलभ होती ।<br />
सिद्धि प्राप्ति हेतु, अर्जुन, फिर प्रयत्न करते योगी ॥<br />
<br />
भले विघ्न हों, पूर्वाभ्यास से, ब्रह्म के पथ में रुचि हो जाती ।<br />
थोड़ी सी जिज्ञासा योग की, कर्ममार्ग से आगे बढ़ाती ॥<br />
<br />
प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करते, पापरहित होते योगी ।<br />
कई जन्मों में सिद्धि प्राप्त कर, पा लेते हैं परम गति ॥<br />
<br />
तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी, ज्ञानीजनों से भी उत्तम ।<br />
कर्मी से भी श्रेष्ठ है योगी, अतः पार्थ तू योगी बन ॥<br />
<br />
श्रद्धा से जो मुझको भजते, आसक्त मुझमें जिनका मन ।<br />
मेरे मत अनुसार, हे अर्जुन, सबसे श्रेष्ठ वे योगीजन ॥<br />
<br />
[<span style="background-color: white; color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18.479999542236328px;">Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 33-47]</span><br />
<span style="background-color: white; color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18.479999542236328px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18.479999542236328px;"><a href="http://kavita-sangraha.blogspot.in/2014/02/62.html" target="_blank">कृष्णार्जुन संवाद - 6.2</a></span><br />
<br />
<br />Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-44699700712863297282014-03-21T17:57:00.003+05:302014-03-21T18:21:39.831+05:30चुनाव के दिनजनता जिसकी करे प्रतीक्षा, नेतागण होते भयभीत ।<br />
समय चुनाव का निकट है मित्रों, सभी सुनाते अपने गीत ॥<br />
<br />
कुर्ता पहने नजर हैं आते, अन्य दिवस जो पहने कोट ।<br />
मैं तो सेवक, दास आपका, दे दो मुझको अपना वोट ॥<br />
<br />
पाँच वर्ष मैं कार्य करूँगा, यह लो पाँच सौ रुपये का नोट ।<br />
लोकतन्त्र का मूल्य चुकाया, मुझे ही देना अपना वोट ॥<br />
<br />
बिजली नहीं है, सड़क पे गड्ढे, नल तो है पर नीर नहीं ।<br />
मुझे जिता दो, मैं कर दूँगा, मुझ जैसा कोई वीर नहीं ॥<br />
<br />
पर्चों से भर गई दिवारें, जिधर भी देखें नजर वो आते ।<br />
नए वर्ष की बहुत बधाई, पोस्टर से नेता मुस्काते ॥<br />
<br />
झंडे फहरे ऊँचे भवन पर, झोंपड़ियों में भी दिख जाते।<br />
नेता दिखते भाषण करते, घर गरीब के रोटी खाते ॥<br />
<br />
मुझको जोब दिला दो कुछ भी, वोट तुम्हें मैं देता हूँ ।<br />
हँसी रोक नहीं पाते नेता, 'तुम्हें आश्वासन देता हूँ' ॥<br />
<br />
पिछली बार वोट को लेकर, अन्तर्धान थे आप हुए ।<br />
आपके दर्शन फिर से पाए, हम बड़भागी, कृतार्थ हुए ॥<br />
<br />
पत्रकारों को भीतर लाओ, इनको 'मेवा मिठाई' खिलाओ ।<br />
हमने जो पर्चे छापे हैं, समाचार में उन्हें दिखाओ ॥<br />
<br />
दूसरे दल से टिकट है पाया, उसके विरुद्ध प्रचार करो ।<br />
लिखो, भ्रष्ट है, अवसरवादी, स्टिंग आदि से वार करो ॥<br />
<br />
ढोल बजाते, चलें समर्थक, नारे लोग लगाते हैं ।<br />
माला पहने, घर घर जाकर, नेता हाथ मिलाते हैं ॥ <br />
<br />
लोकतंत्र की राह कठिन है, दिग्गज भी गिर जाते हैं ।<br />
जिनको जनता मत देती है, महाराज बन जाते हैं ॥<br />
<br />
हम पर है दायित्व बड़ा, हमें नीयत को पढ़ना होगा ।<br />
देश की डोर हमारे हाथ है, सही चुनाव करना होगा ॥<br />
<div>
<br /></div>
Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-70982884370367484322014-03-07T19:22:00.001+05:302014-03-10T12:24:36.317+05:30मैं उनसे नहीं मिलतामैं उनसे नहीं मिलता जो, देश अहित की बात करें |<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, नौटंकी दिन रात करें ॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, कहते कुछ और करते कुछ ।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, संविधान को समझे तुच्छ ॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, लोगों में भ्रम पैदा करते ।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, हिंसा और रक्तपात करते ॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, अपमान शहीदों का करते।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, बलिदानी वीरों पर हँसते॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, गणतन्त्र दिवस पर करे सवाल।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, हर पल बदले अपनी चाल॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, हर काम अधूरा ही करते। <br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, बिना बात धरना धरते ॥ <br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, नारी का अपमान करें ।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, वोटबैंक का ध्यान करें ॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, जनता को मूर्ख बनाते हैं ।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, केवल आरोप लगाते हैं ॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, बस टीवी पर दिखना चाहें ।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, कुछ कर न सकें, गीत गाएँ ॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, सत्य को देख नहीं पाते |<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, बिना बुलाए घर आते ॥<br />
<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, अराजकता फैलाते हैं ।<br />
मैं उनसे नहीं मिलता जो, स्वयं को 'आप' बुलाते हैं ॥<br />
<br />
[ Some reasons why Modi might have declined to meet Kejriwal. ]Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-12575926087618995652014-03-04T01:01:00.001+05:302014-03-04T12:03:16.699+05:30सौगंध मुझे इस माटी कीसौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा, मैं देश नहीं झुकने दूँगा ।<br />
<br />
यह धरती मुझ से पूछ रही, कब मेरा कर्ज चुकाओगे ।<br />
अम्बर भी प्रश्न करे मुझसे, कब अपना फर्ज निभाओगे ॥<br />
भारत माँ को है वचन मेरा, तेरा शीश नहीं झुकने दूँगा ।<br />
सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥<br />
<br />
वे लूट रहे हैं सपनों को, मैं चैन से कैसे सो जाऊँ ।<br />
वे बेच रहे हैं भारत को, खामोश मैं कैसे हो जाऊँ ॥<br />
हाँ मैंने कसम उठाई है, मैं देश नहीं बिकने दूँगा ।<br />
सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥<br />
<br />
वे जितना अँधेरा लाएँगे, मैं उतना उजाला लाऊँगा ।<br />
वे जितनी रात बढ़ाएँगे, मैं उतने सूर्य उगाऊँगा ॥<br />
इस छल-फरेब की आंधी में, मैं दीप नहीं बुझने दूँगा ।<br />
सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥<br />
<br />
वे चाहते हैं, जागे न कोई, बस रात का कारोबार चले ।<br />
वे नशा बाँटते रहें सदा, और देश यूँ ही बीमार चले ॥<br />
पर जाग रहा है देश मेरा, निद्रा में नहीं गिरने दूँगा ।<br />
सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥<br />
<br />
अस्मिता पे माता बहनों की, लगी गिद्धों की कुदृष्टि है ।<br />
पीड़ित शोषित और वंचित की, आशा पर होती वृष्टि है ॥<br />
दुःख पीड़ा को झेला है बहुत, अब दर्दी नहीं उगने दूँगा ।<br />
सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥<br />
<br />
अब घड़ी फैसले की आई, हमने सौगंध है अब खाई।<br />
अब तक जो समय गँवाया है, करनी उसकी है भरपाई ॥<br />
नहीं भटकेंगे, नहीं अटकेंगे, मैं देश नहीं रुकने दूँगा ।<br />
सौगंध मुझे इस माटी की, मैं देश नहीं मिटने दूँगा ॥ <br />
<div>
<br />
[ This is a slightly modified version of <a href="https://twitter.com/NDOC2014/status/440486904358645760" target="_blank">this poem by Narendra Modi</a> ]</div>
Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-12485894255602595402014-02-23T15:30:00.002+05:302014-02-23T15:30:59.383+05:30हे मातृभूमिहे मातृभूमि, हे जन्मभूमि, अनुपम तुझसे यह नाता है ।<br />
तेरी रज को अपने शीश लगा, तेरा लाल परम सुख पाता है ॥<br />
<br />
हे देवभूमि, हे पुण्यभूमि, तेरे चरणों में वंदन है ।<br />
तेरी सुगंध है जीवन में, तुझे कोटि कोटि अभिनन्दन है ॥<br />
<br />
हे दिव्यभूमि, हे कर्मभूमि, तुझसे ही जीवन में रस है ।<br />
तू अक्षय स्रोत प्रेरणा का, तेरी प्रसन्नता में यश है ॥<br />
<br />
हे कृपामूर्ति, हे दयामूर्ति, उपकार हैं माँ अगणित मुझ पर ।<br />
तेरी सेवा ध्येय है जीवन का, तेरा ऋण न चुका सकता अणु भर ॥Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-51567418165419576162014-02-08T13:54:00.000+05:302014-02-08T14:42:34.194+05:30राहुल अर्णब संवादसंसद के भीतर राहुल को जब, बीत गया था एक दशक ।<br />
क्या है समर्थ कुछ करने में वह, लोगों के मन में था शक ॥<br />
<br />
राहुल से हाथ मिला कर अर्णब, मन ही मन में मुस्काए ।<br />
इतने दिन तक कहाँ थे बन्धु, याद अचानक हम आए ॥<br />
<br />
प्रेस से मैं पहले भी मिला हूँ, टीवी पर है पहली बार ।<br />
दल के भीतर कार्य हूँ करता, ध्यान उसी में लगा था यार ॥<br />
<br />
कठिन विषय से तुम बचते हो, कहीं यह बात तो सत्य नहीं ।<br />
कठिन विषय मुझको पसंद हैं, आपकी बात में तथ्य नहीं ॥<br />
<br />
राहुल पहला प्रश्न तो यह है, पी एम पद से क्यों घबराते ।<br />
सिस्टम तो एम पी चुनता है, एम पी चुनकर पी एम बनाते ॥<br />
<br />
अपना पी एम घोषित करना, संसद राय को जाने बिना ।<br />
नहीं लिखा यह संविधान में, इसीलिए नहीं हमने चुना ॥<br />
<br />
लेकिन पिछली बार तो राहुल, घोषित तुमने किया ही था ।<br />
तब तो पी एम पहले से था, परिवर्तन का प्रश्न न था ॥<br />
<br />
कांग्रेसगण तो तुम्हें चुनेंगे, संशय किंचित इसमें नहीं ।<br />
जो रीति है लोकतंत्र की, वही किया है जो है सही ॥<br />
<br />
लेते निर्णय कई लोग जब, तब ही लोकतंत्र बढ़ता ।<br />
संविधान में स्पष्ट लिखा है, उसी का मैं आदर करता ॥<br />
<br />
लोगों का कहना है राहुल, मोदी से डरते हो तुम ।<br />
हार के भय से व्याकुल होकर, करते नहीं सामना तुम ॥<br />
<br />
मोदी से भिड़ना नहीं चाहते, कहीं पराजय ना हो जाय ।<br />
कांग्रेस के दिन ठीक नहीं हैं, लोगों की है ऐसी राय ॥<br />
<br />
इसका उत्तर समझने हेतु, समझना होगा राहुल को ।<br />
राहुल के दिन कैसे कटे हैं, भय किस बात का है उसको ॥<br />
<br />
जब छोटे बच्चे थे, अर्नब, तब सोचा होगा तुमने ।<br />
'मैं भी कुछ करना चाहता हूँ', पत्रकार पर तुम क्यों बने ॥<br />
<br />
मुझसे ही तुम प्रश्न हो करते, पत्रकारिता मुझे प्रिय है ।<br />
उत्तर मेरे प्रश्न का दो तुम, मोदी से लगता भय है ?<br />
<br />
प्रश्न का उत्तर अवश्य दूँगा, पर पूछा है कुछ मैंने ।<br />
क्यों देखे थे छोटी आयु में, पत्रकारिता के सपने ॥<br />
<br />
सोचा पत्रकार बनना है, आधा अधूरा क्या बनना ।<br />
राहुल तुम हो राजनीति में, आधा नेता क्या बनना ॥<br />
<br />
तुमने उत्तर नहीं दिया है, अर्नब, पर मैं देता हूँ ।<br />
कैसे सोचता राहुल गांधी, परिचय उसका देता हूँ ॥<br />
<br />
बालक था मैं, मेरे पिता को, राजनीति में आना पड़ा ।<br />
इस सिस्टम से लड़ते रहे वे, प्राण भी अपने गँवाना पड़ा ॥<br />
<br />
दादी जेल में जाती देखी, मृत्यु भी देखी उसकी ।<br />
खोया, जिसके खोने का भय, अब मुझको भय तनिक नहीं ॥<br />
<br />
मेरा एक इरादा यही है, मेरे हृदय की पीड़ा है ।<br />
अर्जुन की दृष्टि की भांति, ध्येय यही बस मेरा है ॥<br />
<br />
मुझको केवल यह दिखता है, सिस्टम में परिवर्तन हो ।<br />
मोदी आदि गौण विषय हैं, आवश्यक नहीं कि वर्णन हो ॥<br />
<br />
[This is based on first few minutes of <a href="http://www.youtube.com/watch?v=20WDaOaIZvc&feature=c4-overview-vl&list=PLAQGzpyU01aFoGpczkfm2TjoL4GoPbBFy" target="_blank">Rahul's Interview with Arnab</a>]Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-32656142930356717782014-02-07T19:29:00.002+05:302014-04-28T20:45:38.706+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 6.2वायुरहित स्थान में जैसे, दीप नहीं विचलित होता ।<br />
संयत मन वाला वह योगी, आत्मयोग में स्थित होता ॥<br />
<br />
मन निरुद्ध है योग के द्वारा, विषयों से उपराम हुआ ।<br />
आत्मा से आत्मा का दर्शन, आत्मा में ही तृप्त हुआ ॥<br />
<br />
इन्द्रियों से जो ग्राह्य नहीं है, बुद्धिग्राह्य उस सुख में स्थित ।<br />
योगी नहीं होता है विचलित, सदा तत्त्व में रहता स्थित ॥<br />
<br />
जिसको पाकर अन्य कोई भी, लाभ मानता अधिक नहीं ।<br />
जिसमें स्थित हो, भारी दुःख भी, विचलित करता उसे नहीं ॥<br />
<br />
उस विद्या को कहते योग, दुःख के संयोग को हरती जो ।<br />
धैर्य रखो मन में, निश्चय से, उसका दृढ़ अभ्यास करो ॥<br />
<br />
संकल्प से उद्भव होता जिनका, सभी कामनाओं को तजो ।<br />
सभी ओर से, सभी इन्द्रियाँ, मन के द्वारा वश में करो ॥<br />
<br />
धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा, धीरे धीरे शमन करो ।<br />
आत्मा में मन स्थित कर के, कुछ भी चिंतन नहीं करो ॥<br />
<br />
अस्थिर चंचल, यह मन जाता, जहाँ जहाँ दौड़ कर के ।<br />
करो उसे आत्मा में स्थापित, वहाँ वहाँ निग्रह कर के ॥<br />
<br />
ब्रह्मभाव से युक्त है जो, कल्मष हैं जिसके दूर हुए ।<br />
शांत रजोगुण हुआ है जिसका, उत्तम सुख है मिले उसे ॥ <br />
<br />
मन शांत हुआ जिस योगी का, रहता है सदा योग में लीन ।<br />
ब्रह्मप्राप्ति सरल है उसको, उत्तम सुख में हो लवलीन ॥<br />
<br />
अपने को सभी प्राणियों में, अपने में सभी प्राणियों को ।<br />
सर्वत्र देखते समदर्शी, हैं युक्त योग से होते जो ॥<br />
<br />
सबको जो मुझमें है देखता, मुझको देखता है सबमें ।<br />
वह मेरे लिये अदृश्य नहीं, नहीं उसके लिये अदृश्य हूँ मैं ॥<br />
<br />
एकत्व का आश्रय लेते जो, सबमें स्थित, मुझको भजते ।<br />
सभी अवस्था में रहकर भी , योगी मुझमें ही रहते ॥<br />
<br />
जिनको सब जीवों के सुख दुःख, दिखते हैं अपने ही समान ।<br />
मेरे मत अनुसार, हे अर्जुन, योग में श्रेष्ठ तू उनको जान ॥<br />
<br />
[<span style="background-color: white; color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18.479999542236328px;">Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 19-32]</span><br />
<span style="background-color: white; color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18.479999542236328px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18.479999542236328px;"><a href="http://kavita-sangraha.blogspot.in/2014/01/61.html" target="_blank">कृष्णार्जुन संवाद - 6.1</a> <a href="http://kavita-sangraha.blogspot.in/2014/04/krishnarjun-samvad-63.html" target="_blank">कृष्णार्जुन संवाद - 6.3</a></span><br />
<br />Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-858802187543483062014-01-04T23:31:00.000+05:302014-02-07T18:10:36.962+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 6.1 कर्म के फल की चाह नहीं, जो करने योग्य हो, कर्म करे ।<br />
संन्यासी और योगी वही, नहीं जो अग्नि और कर्म तजे ॥<br />
<br />
कहते जिसे संन्यास उसी को, योग, हे अर्जुन, तुम जानो ।<br />
संकल्प त्याग कर सके नहीं जो, योगी उसको मत मानो ॥<br />
<br />
आरम्भ योग में जो करते, उनके लिए कर्म ही साधन है ।<br />
जो योग में हो जाते प्रवीण, कर्मों का त्याग ही साधन है ॥<br />
<br />
जब रहे नहीं विषयों में रुचि, आसक्ति कर्म में होती क्षीण ।<br />
संकल्प सभी हों त्याग दिए, कहते तब उसको योग प्रवीण ॥<br />
<br />
मन से अपना उद्धार करे, नहीं इससे अपना करे पतन ।<br />
यह मन ही मित्र स्वयं का है, स्वयं का ही शत्रु है मन ॥<br />
<br />
जिसने अपना मन जीता है, मन उसके लिए बन्धु जैसा ।<br />
नहीं वश में किया है जिसने मन, अपकार करे शत्रु जैसा ॥<br />
<br />
सर्दी गर्मी में, सुख दुःख में, सम्मान और अपमान में ।<br />
मन जिसने जीता, शांत है जो, होता है स्थित परमात्म में ॥<br />
<br />
ज्ञान विज्ञान से तृप्त है मन, कूटस्थ है, इन्द्रियाँ वश में हैं ।<br />
पाषाण और स्वर्ण में समदर्शी, उस पुरुष को योगी कहते हैं ॥<br />
<br />
सुहृद मित्र में, वैरी में, उदासीन मध्यस्थ में जो ।<br />
सज्जन में और पापी में, समबुद्धि रखते श्रेष्ठ हैं वो ॥<br />
<br />
एकान्त में रहते हुए योगी, संयत कर ले अपना चित्त ।<br />
परिग्रह से आशा से रहित हो, करे समाधि में मन को स्थित ॥<br />
<br />
कुशा घास से, वस्त्र आदि से, आसन हो जो बना हुआ ।<br />
ऊँचा नहीं, नीचा भी नहीं, पवित्र स्थान पर उसे बिछा ॥<br />
<br />
स्थिर आसन पर बैठे स्थिर हो, मन अपना एकाग्र करे ।<br />
इन्द्रियों की सब रोक क्रियाएँ, योग का दृढ़ अभ्यास करे ॥<br />
<br />
सिर गर्दन और काया सीधी, निश्चल होकर, स्थिर बैठे ।<br />
नाक के अग्र भाग को देखे, इधर उधर कुछ नहीं देखे ॥<br />
<br />
शांतमना हो, भय से मुक्त हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित ।<br />
मन संयत कर, मेरे परायण, चित्त को मुझ में करे स्थित ॥<br />
<br />
इस रीति से मन संयत कर, अभ्यास जो योगी करता है ।<br />
मेरे स्वरूप की, शान्ति की, निर्वाण की प्राप्ति करता है ॥<br />
<br />
योग सिद्ध नहीं होता उसका, भोजन अधिक जो करता है ।<br />
अथवा भोजन करे बहुत कम, सोता अधिक या जगता है ॥<br />
<br />
उचित करे आहार विहार, कर्मों में भी उचित व्यवहार ।<br />
यथा योग्य सोए और जागे, योग कराए दुःखों से पार ॥<br />
<br />
चित्त संयमित होता है जब, आत्मा में ही स्थित होता ।<br />
स्पृहा कामना की नहीं रहती, युक्त तभी योगी होता ॥<br />
<br />
[Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 1-18]Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-71121660393457759432014-01-01T00:05:00.003+05:302014-01-01T11:58:55.787+05:30we start our journey<br />
[ 2014 is the year of change. So this time, translation from <a href="http://kavita-sangraha.blogspot.in/2013/01/blog-post.html" target="_blank">my own poem</a> ]<br />
<br />
The task is hard, not so easy as it may appear,<br />
All eyes are on us.<br />
The destination is miles away, not even visible,<br />
Innovation is a must.<br />
<br />
The sky is cloudy, the road is difficult,<br />
Obstacles will be there for certain.<br />
Our endurance and patience will be tested,<br />
Adversity may appear time and again.<br />
<br />
We need to be cautious and avoid old mistakes,<br />
Put aside our egos, and stupidity. <br />
In the new year, we are full of enthusiasm,<br />
With enhanced will power, and new strategy.<br />
<br />
We need to be brave, and apply our minds in creative ways,<br />
We'll give it all we got, and work with passion.<br />
We start our journey towards our goal,<br />
With unwavering belief, and celebration.Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-80259631927842824952013-12-31T13:22:00.000+05:302014-01-09T07:26:34.869+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 5<br />
संन्यास की भी करते हो प्रशंसा, फिर कहते हो योग अपनाओ ।<br />
जो हितकर इन दोनों में हो, कृष्ण मुझे वह एक बताओ ॥<br />
<br />
संन्यास हो या कर्मयोग हो, दोनों ही मंगलकारी ।<br />
फिर भी अर्जुन दोनों में से, कर्मयोग है हितकारी ॥<br />
<br />
जो नहीं द्वेष किसी से करते, रहते जो इच्छा से विमुक्त ।<br />
उनको संन्यासी समझो तुम, वे बंधन से हो जाते मुक्त ॥<br />
<br />
सांख्य और योग में भेद देखते, सत्य का उनको नहीं पता ।<br />
किसी भी एक का आश्रय लें तो, दोनों का ही फल मिलता ॥<br />
<br />
प्राप्त जो लक्ष्य सांख्य से होता, योग से भी है वही मिलता ।<br />
सांख्य और योग, ये दोनों एक हैं, यह जो जानते उनको पता ॥<br />
<br />
जिस संन्यास में योग नहीं है, हे अर्जुन, वह दुःख देता ।<br />
जो मुनि होता योग से युक्त, शीघ्र ही ब्रह्म को पा लेता ॥<br />
<br />
योग युक्त जो, निर्मल मति के, इन्द्रियाँ मन वश में होते ।<br />
सबको प्रिय वे, उनको प्रिय सब, कर्म में लिप्त नहीं होते ॥<br />
<br />
कर्मयोगी जो तत्त्व जानते, करते वे भी क्रियाएँ सभी ।<br />
निज विषयों में लीन इन्द्रियाँ, नहीं करता हूँ मैं कुछ भी ॥<br />
<br />
ब्रह्म में कर्म समर्पित कर, आसक्ति से रहित कर्म करता ।<br />
पाप में लिप्त नहीं होता है, जल में कमल सा है रहता ॥<br />
<br />
काया से, मन से, बुद्धि से, अथवा केवल इन्द्रियों से ।<br />
योगी आत्म शुद्धि के लिए, आसक्ति से रहित कर्म करते ॥<br />
<br />
योगी कर्म के फल को त्याग, निरंतर शान्ति पाते हैं ।<br />
फल की इच्छा से करते कर्म, वे बंधन में फँस जाते हैं ॥<br />
<br />
जिसकी इन्द्रियाँ संयत, जिसने, मन से त्याग दिए हैं कर्म ।<br />
पुर में स्थित, नौ द्वारों वाले, न तो करते, न कराते कर्म ॥<br />
<br />
लोगों के कर्म नहीं रचता, कर्तृत्व भी नहीं है उपजाता ।<br />
न ही ईश्वर कर्म का फल देता, यह सब प्रकृति से हो जाता ॥<br />
<br />
करता नहीं किसी के पाप ग्रहण, स्वीकार न ईश्वर पुण्य करे । <br />
अज्ञान से ज्ञान है ढका हुआ, उस से ही जीव मोहित होते ॥<br />
<br />
आत्म तत्त्व के ज्ञान से जिनका, अज्ञान हुआ अवसादित है ।<br />
वह ज्ञान ही, सूर्य की भाँति करता, परम तत्त्व को प्रकाशित है ॥<br />
<br />
मनबुद्धि लीन हैं, परम तत्त्व में, निष्ठा, शरण उसी की है ।<br />
ज्ञान से दूर हैं कल्मष, उनको, होती मोक्ष की प्राप्ति है ॥<br />
<br />
विद्या विनय से युक्त पुरुष में, गौ आदि सब प्राणियों में ।<br />
ज्ञान जिन्होंने प्राप्त किया है, सम दृष्टि रखते सब में ॥<br />
<br />
संसार उन्होंने जीता, जिनके, मन समता में स्थापित हैं ।<br />
ब्रह्म है दोषरहित, सम, इससे, वे सब ब्रह्म में स्थित हैं ।<br />
<br />
होते नहीं हर्षित प्रिय पाकर, उद्विग्न अप्रिय से नहीं होते ।<br />
स्थिरबुद्धि, जो मोह रहित हैं, ज्ञानी ब्रह्म में स्थित होते ॥<br />
<br />
अनासक्त जो विषय के सुख में, आत्म सुख करता है प्राप्त ।<br />
ब्रह्मयोग से युक्त पुरुष को, अक्षय सुख होता है प्राप्त ॥<br />
<br />
जो भी विषय से प्राप्त भोग हैं, दुःखों का कारण वे बनते ।<br />
आदि अन्त होने वाले हैं, ज्ञानी नहीं उनमें रमते ॥<br />
<br />
देह नष्ट होने से पूर्व ही, सह सकने में समर्थ हैं जो ।<br />
काम क्रोध जनित वेगों को, वो योगी हैं, सुखी हैं वो ॥<br />
<br />
आत्म सुख को, आत्म तृप्ति को, आत्म ज्योति जो पाते हैं ।<br />
योगी ब्रह्म में स्थित होते वे, ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥<br />
<br />
पाप क्षीण हो जाते जिनके, संशय भी मिट जाते हैं ।<br />
प्राणियों के हित में रत वे, ऋषि निर्वाण को पाते हैं ॥<br />
<br />
काम-क्रोध से मुक्त हैं जो, मन को वश में कर पाते हैं ।<br />
आत्म तत्त्व का ज्ञान जिन्हें, वे ब्रह्मनिर्वाण को पाते हैं ॥<br />
<br />
विषयों का करता है त्याग, नेत्र भृकुटि में स्थित करता ।<br />
नासिका में विचरण करते, प्राण अपान को सम करता ॥<br />
<br />
हैं इन्द्रियाँ मनबुद्धि संयत, मोक्ष परायण जो मुनि है ।<br />
जिसको इच्छा भय क्रोध नहीं, उसकी सदा ही मुक्ति है ॥<br />
<br />
भोक्ता सब यज्ञ तपस्या का, लोकों का ईश्वर जाने मुझे ।<br />
सभी प्राणियों का सुहृद जानता, परम शान्ति मिलती है उसे ॥<br />
<br />
[Source: Geeta Chapter - 5, कर्म संन्यास योग, Verse: 1-29]Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-2383666153727456022013-12-30T17:33:00.002+05:302013-12-31T09:54:40.325+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 4.3<br />
यज्ञ द्रव्यमय की तुलना में, ज्ञान यज्ञ अति उत्तम है ।<br />
सभी भाँति के कर्मों का हो, ज्ञान में, पार्थ, समापन है ॥<br />
<br />
ज्ञानी पुरुष के समीप जाकर, श्रद्धा पूर्वक नमन करो ।<br />
भली भाँति करो उनकी सेवा, नम्रता पूर्वक प्रश्न करो ॥<br />
<br />
तत्त्व को सम्यक जानने वाले, ज्ञान का अक्षय स्रोत हैं जो ।<br />
उपदेश करेंगे ज्ञान का वे, हे पार्थ, ज्ञान उनसे सीखो ॥<br />
<br />
इस ज्ञान को पाकर, हे अर्जुन, नहीं मोह को प्राप्त करोगे कभी ।<br />
सब प्राणी देखोगे स्वयं में, फिर मुझ में देखोगे सभी ॥<br />
<br />
सभी पापियों से भी अधिक, यदि पापकर्म हैं तुमने किए ।<br />
पाप समुद्र से तर जाओगे, ज्ञान की नाव का आश्रय ले ॥<br />
<br />
जैसे तीव्र प्रज्वलित अग्नि, ईंधन को करती है भस्म ।<br />
वैसे ज्ञान की अग्नि, अर्जुन, सब कर्मों को करती भस्म ॥<br />
<br />
ज्ञान के जैसा पवित्र कुछ भी, विद्यमान इस जग में नहीं ।<br />
योग में सिद्ध, प्राप्त करते हैं, इसे समय से, स्वयं में ही ॥<br />
<br />
जो तत्पर, जिसकी इन्द्रियाँ वश, उस श्रद्धावान को ज्ञान मिले ।<br />
ज्ञान प्राप्त करने पर उसको, परम शांति शीघ्र मिले ॥<br />
<br />
अज्ञानी, श्रद्धा से रहित, संशय से युक्त, होते हैं नष्ट ।<br />
यह लोक नहीं, परलोक नहीं, संशय से युक्त, पाते हैं कष्ट ॥<br />
<br />
आसक्ति कर्म के फल में नहीं, संशय हैं ज्ञान से जिसके मिटे ।<br />
जिसने आत्म को प्राप्त किया है, कर्म बाँधते नहीं उसे ॥<br />
<br />
अज्ञान जनित इस संशय को, तुम ज्ञान के द्वारा नष्ट करो ।<br />
योग का आश्रय लो अर्जुन, हो जाओ खड़े, अब युद्ध करो ॥<br />
<br />
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 33-42]Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-8175409913923725912013-12-28T22:51:00.002+05:302013-12-30T11:50:41.946+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 4.2<br />
क्या कर्म है, है अकर्म क्या, इस विषय में मोहित सब व्यक्ति ।<br />
वह कर्म का तत्त्व कहूँगा तुम्हें, जिसे समझ अशुभ से मिले मुक्ति ॥<br />
<br />
आवश्यक है ज्ञान कर्म का, समझ आवश्यक विकर्म की ।<br />
अकर्म का बोध भी होना चाहिए , गहन गति है कर्मों की ॥<br />
<br />
अकर्म देखता कर्म में जो, कर्म अकर्म में देखता है ।<br />
वह बुद्धिमान मनुष्यों में, कर्मों का सम्यक कर्त्ता है ॥<br />
<br />
सभी कर्म जिस व्यक्ति के हों, कामना और संकल्प रहित।<br />
कर्म ज्ञान से दग्ध हैं जिसके, ज्ञानी उसे कहते पंडित ॥<br />
<br />
आसक्ति कर्म के फल की त्याग, जो नित्य तृप्त, नहीं चाहते कुछ । <br />
कर्म प्रवृत्त भलीभांति होते हुए, कर्म नहीं करते वे कुछ ॥<br />
<br />
आशा नहीं कोई, मन संयत, त्याग सभी भोगों का करे ।<br />
कर्म देह निर्वाह निमित्त हों, पाप ग्रस्त नहीं होते वे ॥<br />
<br />
जो स्वतः मिले, उसमें संतुष्ट, निर्द्वन्द्व हैं, ईर्ष्या जिन्हें नहीं ।<br />
समता है सिद्धि असिद्धि में, करते हैं कर्म पर बंधते नहीं ॥<br />
<br />
आसक्ति रहित हैं, मुक्त हैं जो, चित्त है जिनका ज्ञान में लीन ।<br />
यज्ञ हेतु करते हैं आचरण, हों उनके सब कर्म विलीन ॥<br />
<br />
ब्रह्म ही है सामग्री यहाँ, ब्रह्म को ही यह अर्पित है ।<br />
ब्रह्म अग्नि है यज्ञ की जिसमें, ब्रह्म ही करे समर्पित है ॥ <br />
<br />
आहुति की क्रिया ब्रह्म है, इसमें समाहित होता मन।<br />
चित्त समाहित ब्रह्म में जब हो, ब्रह्म से ही होता है मिलन॥<br />
<br />
देवताओं के लिए यज्ञ की, करें उपासना कुछ योगी ।<br />
ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ को, देते हैं आहुति कुछ योगी ॥<br />
<br />
इन्द्रियों की देते हैं आहुति, संयम रूप अग्नि में कोई ।<br />
विषयों की देते हैं आहुति, इन्द्रिय रूप अग्नि में कोई ॥<br />
<br />
आत्म संयम रूप अग्नि में, ज्ञान से जो प्रज्वलित हुई ।<br />
इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाएँ, इनकी आहुति देते कोई ॥<br />
<br />
कोई करते यज्ञ द्रव्यरूपी, करते तपरूपी यज्ञ कोई ।<br />
कोई यज्ञ योगरूपी करते, स्वाध्याय और ज्ञान का यज्ञ कोई ॥<br />
<br />
अपान में आहुति प्राण की देते, अपान की प्राण में देते तथा ।<br />
प्राण अपान की गति रोकते, प्राणायाम में जिनकी निष्ठा ॥<br />
<br />
आहार नियत अपनाते कोई, प्राणों में प्राण की आहुति दें ।<br />
प्रयत्नशाली व्यक्ति सभी ये, पालन तीक्ष्ण व्रतों का करें ॥ <br />
<br />
ये सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं, जो यज्ञ से पाप क्षीण कर के ।<br />
सनातन ब्रह्म को करें प्राप्त, अवशेष यज्ञ का पाकर के ॥<br />
<br />
अनेक भाँति के यज्ञ इस तरह, वर्णन वेद में जिनका मिले ।<br />
जानो इनको कर्म जनित, इस ज्ञान को पाकर मोक्ष मिले ॥<br />
<br />
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 16-32]<br />
<br />Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3964872319329499903.post-72976691241063738292013-12-28T10:57:00.002+05:302013-12-28T11:28:02.691+05:30कृष्णार्जुन संवाद - 4.1<br />
<div style="background-color: white;">
इस अविनाशी योग को मैंने, सूर्य को सबसे पहले कहा । </div>
<div style="background-color: white;">
सूर्य ने इसको कहा मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
परम्परा से प्राप्त योग यह, राजर्षियों को ज्ञात हुआ । </div>
<div style="background-color: white;">
बहुत समय हो जाने से यह, लगभग यहाँ समाप्त हुआ ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
वही पुरातन योग आज यह, मैंने तुमको बतलाया । </div>
<div style="background-color: white;">
भक्त हो मेरे, मित्र हो तुम, उत्तम रहस्य को समझाया ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
आपका जन्म तो अभी हुआ है, सूर्य तो बहुत पुराना है । </div>
<div style="background-color: white;">
किस प्रकार मैं जानूँ सूर्य ने, योग को आपसे जाना है ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
बहुत से मेरे जन्म हो चुके, हुए हैं जन्म तुम्हारे भी । </div>
<div style="background-color: white;">
मुझको सब है ज्ञात, पार्थ तुम, नहीं जानते हो कुछ भी ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
अजन्मा हूँ अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ प्राणियों सबका । </div>
<div style="background-color: white;">
अवलम्बन प्रकृति का ले, अपनी माया से प्रकट होता ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
जब जब भी है धर्म की हानि, होती, भारत, इस जग में। </div>
<div style="background-color: white;">
वृद्धि अधर्म की होती है, लेता तब तब अवतार हूँ मैं ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
सज्जनों की रक्षा के लिए, नष्ट दुर्जनों को करने । </div>
<div style="background-color: white;">
धर्म की स्थापना हेतु, होता हूँ प्रकट मैं हर युग में ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
जन्म और कर्म हैं दिव्य मेरे, इसको जो तत्व से जानता है । </div>
<div style="background-color: white;">
पुनर्जन्म उसका नहीं होता, प्राप्त मुझे वह करता है ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
क्रोध राग और भय से रहित जो, मेरी शरण में आते हैं । </div>
<div style="background-color: white;">
हो ज्ञान रूप तप से पवित्र, मेरी भक्ति को पाते हैं ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं उनको वैसे भजता । </div>
<div style="background-color: white;">
हे पार्थ सभी व्यक्ति करते हैं, अनुसरण मेरे पथ का ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
कर्म के फल को चाहने वाले, पूजन करते देवों का । </div>
<div style="background-color: white;">
मनुष्य लोक में शीघ्र है मिलता, कर्म किये जो, फल उनका ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
गुण और कर्मों के विभाग से, चार वर्ण हैं मैंने रचे । </div>
<div style="background-color: white;">
उनका कर्त्ता होते हुए भी, अकर्त्ता अव्यय समझो मुझे ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
कर्म लिप्त नहीं करते मुझे, नहीं मेरी उनके फल में स्पृहा ।</div>
<div style="background-color: white;">
जो इस प्रकार जानता मुझको, कर्मों से वह नहीं बंधता ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
यह जानकर करते थे कर्म, मुमुक्षु पूर्वकाल में भी । </div>
<div style="background-color: white;">
किये थे कर्म उन्होंने जैसे, अर्जुन, कर्म करो तुम भी ॥ </div>
<div style="background-color: white;">
<br /></div>
<div style="background-color: white;">
[Source: Geeta Chapter - 4, ज्ञान योग, Verse: 1-15] </div>
Shyamendra Solankihttp://www.blogger.com/profile/07169751415899726135noreply@blogger.com0