Monday, April 28, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 6.3

समता रूप योग, मधुसूदन, आपने जो बतलाया है ।
चित्त की चंचलता विचारकर, संशय मन में आया है ॥

यह मन स्वभावतः चंचल है, सामर्थ्यवान और सुदृढ़ है ।
इसको वश में करना केशव, वायु विजय सा दुष्कर है ॥

निःसंदेह मन चंचल अर्जुन, सुगम नहीं निग्रह करना ।
अभ्यास और वैराग्य से किन्तु, सम्भव है वश में करना ॥

जिसका मन पर नहीं है संयम, योगप्राप्ति कठिन उसे ।
यत्नशील और संयत मन ही, करे उपाय से प्राप्त इसे ॥

जो श्रद्धायुक्त हो योग करे, हो मन पर संयम नहीं जिसे ।
हे कृष्ण, यदि सिद्धि नहीं मिलती, कैसी गति मिलती है उसे ॥

योग कर्म दोनों से विचलित, ब्रह्म के पथ से हो विक्षिप्त ।
क्या वह नष्ट नहीं हो जाता, जैसे मिटे मेघ खंडित ॥

आप ही हो केशव जो मेरा, संशय छेदन कर सकते ।
नहीं कोई भी सिवा आपके, संशय मेरा हर सकते ॥

शुभ कर्म किये जिसने उसका, इस लोक में होता नाश नहीं ।
परलोक में भी, हे अर्जुन, वह, दुर्गति को करता प्राप्त नहीं ॥

योगभ्रष्ट उत्तम लोकों में, दीर्घ समय तक वास करें ।
जो सदाचार से युक्त धनी, उनके घर जन्म को प्राप्त करें ॥

अथवा जन्म ग्रहण करते हैं, ज्ञानवान योगियों के घर ।
निःसंदेह इस लोक में होता, ऐसा जन्म, दुर्लभ अवसर ॥

पूर्व जन्म की बुद्धि उनको, वहाँ सहज सुलभ होती ।
सिद्धि प्राप्ति हेतु, अर्जुन, फिर प्रयत्न करते योगी ॥

भले विघ्न हों, पूर्वाभ्यास से, ब्रह्म के पथ में रुचि हो जाती ।
थोड़ी सी जिज्ञासा योग की, कर्ममार्ग से आगे बढ़ाती ॥

प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करते, पापरहित होते योगी ।
कई जन्मों में सिद्धि प्राप्त कर, पा लेते हैं परम गति ॥

तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी, ज्ञानीजनों से भी उत्तम ।
कर्मी से भी श्रेष्ठ है योगी, अतः पार्थ तू योगी बन ॥

श्रद्धा से जो मुझको भजते, आसक्त मुझमें जिनका मन ।
मेरे मत अनुसार, हे अर्जुन, सबसे श्रेष्ठ वे योगीजन ॥

[Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 33-47]

कृष्णार्जुन संवाद - 6.2


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