Friday, February 7, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 6.2

वायुरहित स्थान में जैसे, दीप नहीं विचलित होता ।
संयत मन वाला वह योगी, आत्मयोग में स्थित होता ॥

मन निरुद्ध है योग के द्वारा, विषयों से उपराम हुआ ।
आत्मा से आत्मा का दर्शन, आत्मा में ही तृप्त हुआ ॥

इन्द्रियों से जो ग्राह्य नहीं है, बुद्धिग्राह्य उस सुख में स्थित ।
योगी नहीं होता है विचलित, सदा तत्त्व में रहता स्थित ॥

जिसको पाकर अन्य कोई भी, लाभ मानता अधिक नहीं ।
जिसमें स्थित हो, भारी दुःख भी, विचलित करता उसे नहीं ॥

उस विद्या को कहते योग, दुःख के संयोग को हरती जो ।
धैर्य रखो मन में, निश्चय से, उसका दृढ़ अभ्यास करो ॥

संकल्प से उद्भव होता जिनका, सभी कामनाओं को तजो ।
सभी ओर से, सभी इन्द्रियाँ, मन के द्वारा वश में करो ॥

धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा,  धीरे धीरे शमन करो ।
आत्मा में मन स्थित कर के, कुछ भी चिंतन नहीं करो ॥

अस्थिर चंचल, यह मन जाता, जहाँ जहाँ दौड़ कर के ।
करो उसे आत्मा में स्थापित, वहाँ वहाँ निग्रह कर के ॥

ब्रह्मभाव से युक्त है जो, कल्मष हैं जिसके दूर हुए ।
शांत रजोगुण हुआ है जिसका, उत्तम सुख है मिले उसे ॥

मन शांत हुआ जिस योगी का, रहता है सदा योग में लीन ।
ब्रह्मप्राप्ति सरल है उसको, उत्तम सुख में हो लवलीन ॥

अपने को सभी प्राणियों में, अपने में सभी प्राणियों को ।
सर्वत्र देखते समदर्शी, हैं युक्त योग से होते जो ॥

सबको जो मुझमें है देखता, मुझको देखता है सबमें ।
वह मेरे लिये अदृश्य नहीं, नहीं उसके लिये अदृश्य हूँ मैं ॥

एकत्व का आश्रय लेते जो, सबमें स्थित, मुझको भजते ।
सभी अवस्था में रहकर भी , योगी मुझमें ही रहते ॥

जिनको सब जीवों के सुख दुःख, दिखते हैं अपने ही समान ।
मेरे मत अनुसार, हे अर्जुन, योग में श्रेष्ठ तू उनको जान ॥

[Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 19-32]

कृष्णार्जुन संवाद - 6.1                         कृष्णार्जुन संवाद - 6.3

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