Saturday, January 4, 2014

कृष्णार्जुन संवाद - 6.1

    कर्म के फल की चाह नहीं, जो करने योग्य हो, कर्म करे ।
    संन्यासी और योगी वही, नहीं जो अग्नि और कर्म तजे ॥

    कहते जिसे संन्यास उसी को, योग, हे अर्जुन, तुम जानो ।
    संकल्प त्याग कर सके नहीं जो, योगी उसको मत मानो ॥

    आरम्भ योग में जो करते, उनके लिए कर्म ही साधन है ।
    जो योग में हो जाते प्रवीण, कर्मों का त्याग ही साधन है ॥

    जब रहे नहीं विषयों में रुचि, आसक्ति कर्म में होती क्षीण ।
    संकल्प सभी हों त्याग दिए, कहते तब उसको योग प्रवीण ॥

    मन से अपना उद्धार करे, नहीं इससे अपना करे पतन ।
    यह मन ही मित्र स्वयं का है, स्वयं का ही शत्रु है मन ॥

    जिसने अपना मन जीता है, मन उसके लिए बन्धु जैसा ।
    नहीं वश में किया है जिसने मन, अपकार करे शत्रु जैसा ॥

    सर्दी गर्मी में, सुख दुःख में, सम्मान और अपमान में ।
    मन जिसने जीता, शांत है जो, होता है स्थित परमात्म में ॥

    ज्ञान विज्ञान से तृप्त है मन, कूटस्थ है, इन्द्रियाँ वश में हैं ।
    पाषाण और स्वर्ण में समदर्शी, उस पुरुष को योगी कहते हैं ॥

    सुहृद मित्र में, वैरी में, उदासीन मध्यस्थ में जो ।
    सज्जन में और पापी में, समबुद्धि रखते श्रेष्ठ हैं वो ॥

    एकान्त में रहते हुए योगी, संयत कर ले अपना चित्त ।
    परिग्रह से आशा से रहित हो, करे समाधि में मन को स्थित ॥

    कुशा घास से, वस्त्र आदि से, आसन हो जो बना हुआ ।
    ऊँचा नहीं, नीचा भी नहीं, पवित्र स्थान पर उसे बिछा ॥

    स्थिर आसन पर बैठे स्थिर हो, मन अपना एकाग्र करे ।
    इन्द्रियों की सब रोक क्रियाएँ, योग का दृढ़ अभ्यास करे ॥

    सिर गर्दन और काया सीधी, निश्चल होकर, स्थिर बैठे ।
    नाक के अग्र भाग को देखे, इधर उधर कुछ नहीं देखे ॥

    शांतमना हो, भय से मुक्त हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित ।
    मन संयत कर, मेरे परायण, चित्त को मुझ में करे स्थित ॥

    इस रीति से मन संयत कर, अभ्यास जो योगी करता है ।
    मेरे स्वरूप की, शान्ति की, निर्वाण की प्राप्ति करता है ॥

    योग सिद्ध नहीं होता उसका, भोजन अधिक जो करता है ।
    अथवा भोजन करे बहुत कम, सोता अधिक या जगता है ॥

    उचित करे आहार विहार, कर्मों में भी उचित व्यवहार ।
    यथा योग्य सोए और जागे, योग कराए दुःखों से पार ॥

    चित्त संयमित होता है जब, आत्मा में ही स्थित होता ।
    स्पृहा कामना की नहीं रहती, युक्त तभी योगी होता ॥

    [Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 1-18]

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