Friday, May 31, 2013

कृष्णार्जुन संवाद - 1

    हनुमान थे ध्वज पर चिन्हित, हाथ धनुष गांडीव सबल।
    देवदत्त की पांचजन्य की, शंख ध्वनि थी बड़ी प्रबल ॥

    मधुसूदन रथ आगे बढ़ाओ, मुझे करना अवलोकन है ।
    मेरे पक्ष में कौन खड़े हैं, करना किस से मुझे रण है ॥

    समर क्षेत्र के बीच पहुँच, अर्जुन करते हैं अवलोकन ।
    पिता समान कई योद्धा हैं, कई हैं मित्र और कई स्वजन ॥

    सूख रहा मेरा मुख केशव,  काँप रहा मेरा तन है ।
    धनुष हाथ से छूट रहा,  जल रही त्वचा,  विचलित मन है॥

    नहीं दिखता कोई हित मुझको, स्वजनों के संहार में ।
    रुचि नहीं कोई विजय पाने में, सुख में ना साम्राज्य में॥

    तुच्छ है सत्ता, तुच्छ भोग है, तुच्छ है जीवन का विस्तार।
    इन सबकी जिन हेतु कामना, युद्ध भूमि पर है परिवार ॥

    इनके वध की नहीं है इच्छा, भले करें ये मुझ पर वार ।
    तीन लोक मिल जाने पर भी,  बन्धु हनन नहीं स्वीकार ॥

    आततायी यद्यपि ये लोग हैं, फिर भी इनका वध है पाप ।
    स्वजनों के संहार के भय से, होता है मन में संताप ॥

    लोभ के वश ये नहीं देखते, मित्र द्रोह भारी अपराध ।
    हमें समझ है, हम किस हेतु, निज कुल क्षय में देवें साथ ॥

    कैसी विचित्र परिस्थिति माधव, इसमें भूल हमारी है।
    राज्य सुखों की तृष्णा वश, विध्वंस की अब तैयारी है ॥

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