ब्रह्म है क्या, अध्यात्म है क्या, पुरुषोत्तम कर्म किसे कहते |
अधिभूत होता है क्या, अधिदैव, हे कृष्ण, किसे कहते ||
ब्रह्म वही जो नष्ट न हो, उसका स्वभाव अध्यात्म हुआ |
जिससे उत्पत्ति अभिवृद्धि हो, जीवों की, वह कर्म हुआ ||
जो नश्वर हैं , वे अधिभूत, अधिदैव वही जो सब में निहित |
अधियज्ञ मुझे जानो अर्जुन, मैं सभी प्राणियों में स्थित ||
अंतकाल हो, देह तजें जो, फिर भी मुझमें जिनका चित्त |
मेरे भाव को प्राप्त वे होते, नहीं संशय इसमें किंचित ||
अंतकाल में करके चिंतन, जिस भी विषय का, देह तजें |
रहें उसी विचार में तन्मय, उसी भाव को प्राप्त करें ||
सभी काल में करते स्मरण, मुझको, तुम यह युद्ध करो |
मुझमें अर्पित मन और बुद्धि, निश्चित मुझको प्राप्त करो ||
सर्वज्ञ सनातन अखिल नियंता, अचिन्त्य सूक्ष्म जो सूर्य सदृश |
अंतकाल में करें स्मरण जो, करें प्राप्त वे, दिव्य पुरुष ||
एकाग्र चित्त से युक्त हो जो, भृकुटि के मध्य में ध्यान करे |
भक्तियुक्त योग बल से, वो परम पुरुष को प्राप्त करे ||
ज्ञानी जिसे कहते अविनाशी, वीतराग ही होते प्रविष्ट |
ब्रह्मचर्य करते जो पालन , यह पद उनका भी है इष्ट ||
इन्द्रियाँ जिसकी रहें संयमित, मन को ह्रदय में करे निरोध |
सिर में प्राणवायु स्थापित, करके धारण करता योग ||
जो प्रयाण करते हैं देह से, रखते हुए मेरी स्मृति |
ॐ, शब्द उच्चारण करते, वे पाते हैं परम गति ||
अनन्य भाव से करते चिंतन, मुझे करें जो नित्य स्मरण |
उन हेतु मैं सुलभ हूँ अर्जुन, नित्ययुक्त जो योगीजन ||
नहीं लेते वे जन्म पुनः, जो नश्वर है, दुखदायी है |
जिसने मुझको प्राप्त किया, सिद्धि जो परम है, पाई है ||
ब्रह्मलोक तक लोक सभी, हैं पुनर्जन्म से मुक्त नहीं |
मुझे प्राप्त कर लेता जो, हो पुनर्जन्म से मुक्त वही ||
युग सहस्र होते हैं दिन में, रात भी ब्रह्मा की उतनी |
इसका ज्ञान जिन्हे होता वे, रात दिवस की समझ के धनी ||
ब्रह्मा दिन आरम्भ हो जब, अव्यक्त से व्यक्त जीव होते |
रात्रि के आरम्भ समय, सब व्यक्त जीव लीन होते ||
पुनः पुनः जन्म धारण कर, रात्रि में होता है विलुप्त |
ब्रह्मा का दिन जैसे होता, जीव समूह पुनः ले रूप ||
व्यक्त हुए, अव्यक्त हुए, ज्यों ब्रह्मा का दिन, रात हुई |
एक तत्त्व अव्यक्त है ऐसा, नष्ट नहीं होता है कभी ||
अक्षर है, वह परम गति, अव्यक्त तत्त्व जो उक्त कहा |
पुनरागमन नहीं होता जो, परम धाम को पा लेता ||
जीव सभी जिसमें स्थित हैं, जग समग्र जिसमें है व्याप्त |
पुरुष सनातन श्रेष्ठ है सबसे, भक्ति से ही होता प्राप्त ||
दो ही मार्ग से अर्जुन योगी, देह छोड़कर जाता है |
एक पुनर्जन्म को प्राप्त करे, एक जन्म से मुक्त कराता है ||
सूर्य उत्तरायण में हो जब, शुक्ल पक्ष, दिन का हो समय |
देह त्याग करते जो ज्ञानी, मुक्ति को पाते निश्चय ||
सूर्य दक्षिणायन में हो जब, रात्रि कृष्ण पक्ष की हो |
योगी स्वर्ग प्राप्त करते फिर, पुनः देह मिलती उनको ||
एक शुक्ल मार्ग, एक कृष्ण मार्ग, ये शाश्वत हैं, इनसे जाए |
जो शुक्ल, मोक्ष तक पहुँचाए, जो कृष्ण, पुनः जग में लाए ||
जो इन दोनों से अवगत हो, वह योगी मोह से ग्रस्त न हो |
पार्थ अतः तुम सर्वकाल में, केवल योग का आश्रय लो ||
वेदपाठ, तप, यज्ञ, दान के, पुण्य से भी ऊपर जाते |
योगी जो तत्त्व समझते हैं, वे परम धाम मेरा पाते ||
Saturday, March 31, 2018
Thursday, March 22, 2018
धूल पोंछ दो
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,
क्या इससे बेहतर नहीं होता, चित्र बनाते, पुस्तक लिखते
व्यंजन की तैयारी करते, पौधों में जल सिंचन करते
इच्छा या आवश्यकता है, मन में इसका चिंतन करते ||
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,
अभी शेष नदियों में तैरना, नभ को छूते पर्वत चढ़ना
मनभावन संगीत को सुनना, पुस्तक कितनीं शेष है पढ़ना
समय अल्प, मित्रता संजोना, जीवन में आगे है बढ़ना ||
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,
सूर्य धूप अपनी बरसाए, चले पवन, बाल लहराए
हिमवर्षा से श्वेत हुआ नभ, जल वृष्टि भूमि महकाए
प्रस्तुत है सम्पूर्ण विश्व पर, बीता समय पुनः नहीं आए ||
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,
वृद्धावस्था इक दिन होगी, होगी सरल सुखद, नहीं निश्चित
जब प्रस्थान जगत से होगा, निःसंदेह, जाना है निश्चित
प्रकृति अपना चक्र चलाए, तुम्हें धूल में होना मिश्रित ||
Inspired from "Dust if you must" by Rose Milligan
क्या इससे बेहतर नहीं होता, चित्र बनाते, पुस्तक लिखते
व्यंजन की तैयारी करते, पौधों में जल सिंचन करते
इच्छा या आवश्यकता है, मन में इसका चिंतन करते ||
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,
अभी शेष नदियों में तैरना, नभ को छूते पर्वत चढ़ना
मनभावन संगीत को सुनना, पुस्तक कितनीं शेष है पढ़ना
समय अल्प, मित्रता संजोना, जीवन में आगे है बढ़ना ||
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,
सूर्य धूप अपनी बरसाए, चले पवन, बाल लहराए
हिमवर्षा से श्वेत हुआ नभ, जल वृष्टि भूमि महकाए
प्रस्तुत है सम्पूर्ण विश्व पर, बीता समय पुनः नहीं आए ||
धूल पोंछ दो, पर यह सोचो,
वृद्धावस्था इक दिन होगी, होगी सरल सुखद, नहीं निश्चित
जब प्रस्थान जगत से होगा, निःसंदेह, जाना है निश्चित
प्रकृति अपना चक्र चलाए, तुम्हें धूल में होना मिश्रित ||
Inspired from "Dust if you must" by Rose Milligan
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