हनुमान थे ध्वज पर चिन्हित, हाथ धनुष गांडीव सबल।
देवदत्त की पांचजन्य की, शंख ध्वनि थी बड़ी प्रबल ॥
मधुसूदन रथ आगे बढ़ाओ, मुझे करना अवलोकन है ।
मेरे पक्ष में कौन खड़े हैं, करना किस से मुझे रण है ॥
समर क्षेत्र के बीच पहुँच, अर्जुन करते हैं अवलोकन ।
पिता समान कई योद्धा हैं, कई हैं मित्र और कई स्वजन ॥
सूख रहा मेरा मुख केशव, काँप रहा मेरा तन है ।
धनुष हाथ से छूट रहा, जल रही त्वचा, विचलित मन है॥
नहीं दिखता कोई हित मुझको, स्वजनों के संहार में ।
रुचि नहीं कोई विजय पाने में, सुख में ना साम्राज्य में॥
तुच्छ है सत्ता, तुच्छ भोग है, तुच्छ है जीवन का विस्तार।
इन सबकी जिन हेतु कामना, युद्ध भूमि पर है परिवार ॥
इनके वध की नहीं है इच्छा, भले करें ये मुझ पर वार ।
तीन लोक मिल जाने पर भी, बन्धु हनन नहीं स्वीकार ॥
आततायी यद्यपि ये लोग हैं, फिर भी इनका वध है पाप ।
स्वजनों के संहार के भय से, होता है मन में संताप ॥
लोभ के वश ये नहीं देखते, मित्र द्रोह भारी अपराध ।
हमें समझ है, हम किस हेतु, निज कुल क्षय में देवें साथ ॥
कैसी विचित्र परिस्थिति माधव, इसमें भूल हमारी है।
राज्य सुखों की तृष्णा वश, विध्वंस की अब तैयारी है ॥
Friday, May 31, 2013
Sunday, May 19, 2013
धूप और कबूतर
48 डिग्री धूप ने देखो,
कैसा कहर बरपाया है।
तपे हुए पंखों को लेकर,
कबूतर घर में आया है ॥
राहत थोड़ी मिली प्राणी को,
चैन की सांस उसे आई ।
घर के अन्दर उसने पाई,
मौसम में कुछ ठंडाई ॥
सोचा बाहर धूप है ज्यादा,
थोड़ी देर मैं यहीं रहूँ ।
गर्म हवाएं सहकर आया,
ठंडी हवा में सांस भरूँ ॥
शीतल जल थोड़ा मिल जाए,
कुछ ऐसा मैं करूँ उपाय ।
यह अवसर किस्मत से पाया,
खाली हाथ न जाने पाय ॥
देख रसोई, मुंह में पानी,
रोज मैं दूर भटकता हूँ ।
इतना भोजन हाथ लगा है,
आज कुछ तूफानी करता हूँ ॥
अति लोभ विनाश की जड़ है,
ज्ञानी जन देते उपदेश ।
अज्ञानी श्रीसांत भी अपने,
कर्मों से देते सन्देश ॥
प्यास बुझाई, क्षुधा मिटाई,
प्यास बुझाई, क्षुधा मिटाई,
अन्तःकरण भी तृप्त हुआ ।
इतना सुख था कभी न पाया,
मन प्रसन्नता युक्त हुआ ॥
चहक उठा, मन महक उठा,
स्वर गूंजे, माधुर्य भरे ।
मस्ती छाई, चाल भी बदली,
धूप से अब काहे को डरे ॥
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